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राजनेताओं की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ५)

प्रस्तुति-सौरभ खंडेलवाल
मौका भी है दस्तूर भी ,चुनावों की घोषणा हो चुकी है रंगों का त्यौहार सर पर है तो राजनेताओं को कैसे भूल सकते हैं रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला में हम आज पांचवे रंग पर आ चुके हैं । आपके मिल रहे प्यार के हम आभारी हैं . भारतीय राजनेताओ का हर त्योहार मनाने का अंदाज निराला होता है, और हो भी क्यों नही राजनेता जो हैं , होली की बात करें तो शायद राजनेता सबसे ज्यादा उल्लास के साथ इसी त्योहार को मनाते हैं। होली के सबसे बड़े
खिलाड़ी हैं राजनीतिक हास्य के अवतार लालू प्रसाद यादव। उनकी कपड़ा फाड़ होली पूरे देश में सुर्खियाँ तो बटोरती ही है साथ ही इसे काफी लोकप्रियता भी मिली है। होली को याद किया जाता है.होली के दिन लालू के घर पर कपड़ा फाड़ होली देखने वालों की भी खूब भीड़ जुटती है और तब उनकी पत्नी राबड़ी देवी शरमाती हुई अपने पति का असली गंवई रूप देखती हैं। भीड़ के साथ-साथ लालू भी भीड़ में शामिल होकर अपने गाने से सबका खूब मनोरंजन करते हैं। उनका होली गीत `आ रा रा रा रा रा रा` खासा प्रसिद्ध है। होली के दिन कोई भी उनके घर से कपड़े फड़वाए बिना नहीं जा सकता। सभी को लालू के घर में बने स्वीमिंग पूल में नहलाकर रंगों से तरबतर कर दिया जाता है।ली को याद किया जाता है.
पूरे देश में शांति होना चाहिए, होली रंगों से खेली जाती है न कि रक्त से। चुनाव आपको बदलाव का मौका देते हैं मगर बदलाव भी ऐसा होना चाहिए कि वो जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके।
-अटल बिहारी वाजपयी

होली के एक और बड़े खिलाड़ी हैं, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी। वाजपेयी लालू की तरह कपड़ा फाड़ होली तो नहीं खेलते लेकिन इनके घर भी होली का उत्साह चरम पर रहता है। भाजपा के सभी शीर्ष नेताओं के अलावा दूसरी पार्टियों के नेता और अटलजी के मित्र जनों का यहां अच्छा खासा मजमा लगता है। सन् 2004 की होली में जब वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे, तब चुनाव नजदीक ही थे। ऐसे में चुनावी रंग भी वहां देखने को मिला, अटलजी ने तब अपने संदेश में कहा था कि पूरे देश में शांति होना चाहिए, होली रंगों से खेली जाती है न कि रक्त से। उन्होंने कहा था कि चुनाव आपको बदलाव का मौका देते हैं मगर बदलाव भी ऐसा होना चाहिए कि वो जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके। 5 साल पहले दिया गया यह बयान आज भी शायद उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। इस वर्ष शायद हम उनकी होली को नहीं देख सकेंगे लेकिन उनके जल्द स्वस्थ्य होने की कामना तो कर ही सकते हैं।
बहरहाल, होली की मौज मस्ती पर वापस लौंटे तो सोनिया गांधी भी होली खेलने में पीछे नहीं है। 10, जनपथ होली के दिन कार्यकर्ताओं से पटा होता है और सोनिया गांधी भी उस दिन फूल मूड में होती है। इस बार होली के दिन बयान देने की बारी शायद उनकी है। उनका बयान तो हम सुन ही लेंगे लेकिन आप यह मस्ती भरा गाना सुनिए-

इस श्रृंखला की पुरानी पोस्ट
  1. भोपाल की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ४)

  2. होली आई रे कन्हाई (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ३)

  3. बनारस की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग २ )

  4. रंग बरसे ...आप झूमें श्रंखला भाग १




भोपाल की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ४)


भाई आज बारी है हमारे शहर की होली की ,याने भोपाल की होली ,गंगो जमनी संस्कृति मैं शायद ये रंग होली ने हीघोला हैं। शहर को जानने वाले जानते हैं शहर दो भागों मैं बटा है नया भोपाल पुराना भोपाल ,पुराने भोपाल में कुछज्यादा ही उत्साह से होली मानती है ,यहाँ होली उत्सव पाँच दिन चलता है होली से शुरू होकर यह त्यौहाररंगपंचमी तक पूरे शहर को रंगीन किया करता है होली के दिन शहर के हर गली मुहल्ले मैं होलिका कर निकलपड़ते है हुल्लिआडे होली मानाने हाथों मैं रंगों की थैली ,पुरानी शर्ट और पैंट जिनके लिए वोह आखिरी शाम हीसाबित होती है,जाते हैं अपने दोस्तों के यहाँ , परिवारों मैं चौराहों पर ,जो मिलता है उसे रंग मैं भिडा देना ही इनकीजीत होती है और उल्लास से भर देती है, लाल, कला, हरा, नीला जाने कितने ही रंग घरों की छतों से छोटे बच्चेआने जाने वालों पर पिचकारी,रंगों से भरे फुग्गों से तर करते हैं , पीरगेट(सोमवारा) , चौक, करोंद, सिन्धी कालोनी, जवाहर चौक और अशोका गार्डन में तो विशेष रूप से बड़े बड़े हौद तैयार किए जाते है जहाँ होली से बच रहे लोगों कोपकड़ पकड़ कर नेहलाया जाता है कहा जाता है की भाई आज तो नहा लो,फिर क्या है ! कई जगहों पर भंग कीगुमठियां और भंग की आइसक्रीम के ठेले लग जाते हैं और लोग भांग के नशे में तर और सर पे सवार रंग के नशे केसाथ उतर जाते हैं सड़कों पर ,कुछ तो बेचारे कीचड़ की होली भी खेल लेते हैं अब ढोल तो कम ही सुनाई देते हैंउनकी जगह डी जे कमी को पूरा कर देते हैं गाने होते हैं-'पापी चुलो' ,' देखें जरा ',बीच बीच में 'ये देश है वीरजवानों भी सुनाई देता है' सच मानिए भोपाल में लोगों
को झूमते देखना अपना अलग अनुभव है। शाम बजेतक ये हुरदंग ख़तम हो जाता है और लोग अपने घर लौटकर,गुजिया पपडिया ,खा कर और जो पैर लंबे करते है कीशाम उन्हें उठाने में अपना समय ही बरबाद नही करती शाम होने पर कुछ शान्ति प्रिय युवक निकलते हैं गुलाललेकर और शहर में होली जारी रहरी है
भोपाल में असली होली तो होती है रंग पंचमी पर जब चल समारोह निकलता है ,बाकायदा नगरनिगम के टेंकरपानी के की धार से लगातार समारोह को सराबोर करते हैं,ढोल होते हैं बंद होता है,अरे भाई पूछिए क्या नही होतामहापौर भी होते हैं और बीच बीच में जगह जगह के पार्षद भी। बिना किसी जाती या धर्म के हर एक सिर्फ़ रंगीन हीदीखता रंग ही मेरा रंग ही मेरा इमां नज़र आता हैं ,हजरत आमिर खुसो का कलाम 'आज रंग है री ,माँ रंग है री मोहे पीर पायो ..' ऐसे ही हर कोई यहाँ रंग में खो जाने के बाद ख़ुद को पहचानने की कोशिश करता है और कोई कोई रंग तो सब को भाता ही है ...तो इसी उम्मीद के साथ के आप भी रंगीन हुए होंगे लीजिये प्रस्तुत है ये मस्ती भरा गीत फ़िल्म नवरंग से .





होली आई रे कन्हाई ((रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ३)

तो आज हम सफर के तीसरे मुकाम पर जा पहुंचे हैं,भोले के अट्ठारह डिब्बों मैं पहुंचे हैं फिल्मो मैं होली मनाने। शब्दों की तरुनाई सबसे बड़ी ठंडक देती है कबीर दास जी ने कहा भी है की
ऐसी वाणी बोलिए,मन का आपा खोये ,औरन को सीतल करे,आपहु सीतल होए।
तो चलिए फिर एक बार रंगीन हो जायें
होली आई रे कन्हाई रंग छलके , सुना दे जरा बांसुरी...। फिल्म मदर इंडिया में शकील बदायुनी का लिखा और नौशाद के संगीत से सजा यह गाना अनायास ही मन में उमड़ती हुई सैकड़ों उमंगों को जगा जाता है और हम झूमते हुए निकल जाते हैं उल्लास व अल्हड़ देशों की यात्रा पर। सिनेमा हमारे समाज, परिवेश, देश और सभ्यता का दर्पण होता है। भारतीय फिल्मों में होली के रंगों की छाप हमेशा से ही दिखाई देती है और एक चिंतनीय तथ्य यह भी है कि आज जब सिनेमा तकनीकी सफलता के युग में जी रहा है वहीं फिल्मों से होली और उसके रंग बिल्कुल जुदा हो चुके हैं। पुरानी फिल्मों में होली के लिए बाकायदा पूरा एक गीत तैयार किया जाता था। आजकल होली के रंग एक शॉट तक सिमट गए हैं। फिल्म रब ने बना दी जोड़ी में होली का सिर्फ एक शॉट ही है। फिल्म शोले में गब्बर का डायलॉग `होली कब है` आज तक लोगों की जुबान पर है साथ ही प्रसिद्ध गाना `होली के दिन दिल खिल जाते हैं` सुनते ही पैर थिरकने पर मजबूर हो जाते हैं। पराया धन फिल्म का गाना ` होली रे होली रंगो की डोली` अपने आप में अद्भुत है। फिल्म सिलसिला का `रंग बरसे`, बागबान का `होली खेले रघुवीरा` सहित कई गाने हैं जो आपको होली उत्सव के आनंद में आनंदित कर देते हैं। शायद वो फिल्मकार, गीतकार और कलाकार सभी उत्सवों में जीने की इच्छा भी रखते थे इसलिए इतने उत्सव गीत लिखे जा सकें हैं।
आजकल रंगो से ज्यादातर फिल्मकार परहेज ही करते हैं। चार साल पहले आई फिल्म वक्त में होली के ऊपर तथाकथित संगीतकार अनु मलिक ने भी गाना तैयार किया था- `लेट्स प्ले होली` जो उनकी तरह ही तथाकथित होली गीत था। खैर हमारे पूर्वज सिनेमाकारों ने हमें होली के उत्सवों में झूमने के लिए इतना कुछ दिया है कि इन नक्कारों की जरूरत नहीं है। पेश-ए-खिदमत है फिल्म मदर इंडिया का नौशाद साहब द्वारा संगीतबद्ध किया यह गीत-



बनारस की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग २ )

तो आइये अपने सफर के दूसरे पड़ाव पर चलते हैं पड़ाव है बनारस,भगवन भोले नाथ की नगरी में . मैं यकीं दिलाता हूँ की ये आनंद अभी और बढता ही जाएगा मील दर मील ,कोस दर कोस तो चलिए बनारस होली मानाने .
वैसे तो बनारस की बात ही निराली है, चाहे बनारसी पान हो, बनारसी साड़ी हो या वहां की गलियां, मंदिर, लंगड़ाआम, गंगा घाट या बनारसी चाई (ठग)- यह सभी बनारस को अनूठेपन से भरने का काम करते हैं। इन सब के बीच काशी की होली का अपना अलग ही महत्व है। फागुन के मौसम का सुहानापन संपूर्ण बनारस को जीवंतता से भर देता है। इस शहर की फिजाओं में रंगो का अहसास बहुत आसानी से किया जा सकता है। वैसे भी रंगों में अपना रंग नहीं होता परंतु काशी के वातावरण में संपूर्ण शहर रंगमय हो जाता है। बाबा विश्वनाथ की इस नगरी में आप फागुनी बयार को देखकर भारतीय संस्कृति का दीदार कर सकते हैं। इस शहर की संकरी गलियों से होली के गीतों की सुरीली धुन अथवा चौराहों पर के होली मिलन समारोह अपने आप में बेजोड़ हैं। बनारस को फागुन में महादेव का भरपूर आशीर्वाद मिलने से गंगा के घाटों पर प्रेम का नशा चढ़ सा जाता है। काशीवासियों के साथ-साथ भारत केअन्य हिस्सों से आये लोगों के अलावा दूर देशों के सेलानियों से काशी संजीदगी से भर उठता है। खास तौर पर होली के दिन काशी की मटका फोड़ होली और संपूर्ण शहर में गाए जाने वाले होली के लोकगीत शहर को उर्जामय और प्रेम से सराबोर कर देते हैं। काशी की विद्वत परंपरा के साथ-साथ हम फाल्गुन में गंगा की लहरों में एक उमंग का दीदार कर सकते हैं। रंगो के मौसम में आप गंगा तट पर खड़े होकर सुबह--बनारस को अपनी आंखों में संजो कर रख सकते हैं। काशी में आप इस मौसम में पाएंगे कि संपूर्ण कायनात आपका स्वागत कर रही है। गंगा की अविरल धारा में आप अतीत की यादों के झरोखे में आसानी से गोते लगा सकते हैं। फाग के इस त्यौहार में बनारस का रंगनिरंतर प्रगाढ़ होता जाता है। बनारस की हवाओं में आप एक सिहरन महसूस कर सकते हैं, जो शहर की विविधताओं का अहसास कराती हैं। इस मौसम में शहर में मिठाई की दुकानों पर दही, लस्सी, लोंगलता और गुजिया की भरमार से वास्ता पड़ने पर इस शहर का स्वाद भी अंतरंग में गहरे उतरता है। विश्व की प्राचीन नगरी को सदैव दैवीय पुण्य मिलता रहा है। इसी कारण इस नगरी में हम रंगों में डूबकर होली के रंगों से खेल पाते हैं . बाबा भोले की नगरी में गंगा-जमुना तहजीब का नजारा बरबस ही दिखने लगता है। मालवीय जी के कर्म क्षेत्र से रौशन यह शहर लोगों के दिलों को एक रंग में रंग देता है, जिसको आसानी से देखा जा सकता है।
वर्तमान दौर में तमाम प्रगतियों के बावजूद लोगों के दिलों की दूरियां बढ़ती जा रही है। ऐसे में अगर शिव के त्रिशूल पर बसे नगर की होली से हम शहर की होली से हम दिलेरी और प्रेम को आत्मसात कर सकें तो शायद हमारी होली भी सही अर्थों में नायाब बन जाए।
कूचा--यार ऐन काशी है।
जोगिए दिल वहां का वासी है ।
वली दकनी जैसे मशहूर शायर की इन पंक्तियों से हम देश की संस्कृति और परंपरा के प्रति त्याग और मोह पैदा कर सकें तो सचमुच मानवता से भरे इस पर्व का रंग सब पर चढ़ेगा और हम प्रेम की अविरल गंगा कहीं भी बहा सकेंगे।
बम बम बोल रहा है कशी तो आप भी बोलिए ब बम बम्ब बम ब बम बम्ब बम बम बम बम और झूम उठिए भोले बाबा के इस गीत के साथ ।
जो बोले भोलेनाथ जय जय विश्वनाथ
रविशंकर सिंह


रंग बरसे ...आप झूमें श्रंखला भाग १

होली रंगो का त्यौहार है। रंग जीवन के विविध रुपों का प्रतीक माने जाते हैं। खुशी और उल्लास के प्रतीक इस पर्व पर हम भी आपके साथ शरीक होना चाहते हैं। रंगों के इस उत्सव को बहुरंगी बनाने के लिए हम एक नई श्रृंखला शुरु कर रहे हैं। इसमें हम कलम के साथ संगीत की भी तान छेड़ेंगे। उम्मीद है हमारी इस महफिल में आप बोर नहीं होंगे।
आज पहला दिन है और शुरुआत अगर राधे के नाम से हो तो आगे आते आते श्री कृष्ण का आना तय माना जा सकता है , अपनी नित्य निकुंज बिहारणी राधा मैया बरसाने वाली है और फिर बरसाने की होली तो वैसे ही प्रसिद्ध है ,आपने कभी बरसाने की होली देखी हो तो आप जानते ही होंगे , जब नंदग्राम के गोपी राधे के गाँव बरसाने जाते हैं और वहां की गोपियाँ उनका स्वागत लट्ठ से करती हैं ,आहा!! फिर क्या है आप बजने दीजिये सुर और ताल और झूमिए श्रीराधे जी का नाम लेकर ,अगले दिन फिर बारी पुरुषों की होती है और होती है रंग और गुलालों की होली . इसी बीच सुंदर संगीत मन को बार बार छू जाता है हमारी कोशिश है ब्रज से दूर बैठे उन लाखों लोगों को श्री राधे रानी से और उनकी होली से जोड़ने की ,आगे हम और भी प्रस्तुतियां देंगे जिसमे कोशिश होगी देशभर की होली के रंग में रंगने की और कुछ मधुर मधुर संगीत प्रेषित करने की तो फिर क्या है श्री राधे का नाम लीजिये
नीचे श्री राधे का एक मधुर गीत है सुनी और कही श्री राधा राधा .....
होली पर यदि आप भी कुछ लिख कर देना चाहें और कुछ गाने सुझाने चाहें तो ज़रूर बताएं .
श्री राधा राधा .....


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यदि फायर फॉक्स पर गाना सुनाई नही दे रहा हो तो इन्टरनेट एक्स्प्लोरर पर देखें

प्यासा न बनाते गुरुदत्त ब्लॉगर बन जाते



यदि गुरुदत्त आज होते तो शायद प्यासा न बनाते, क्योंकि तब उस फ़िल्म मैं उनकी नज्में कोई नही छापता था पर अब तो ब्लॉगर है और फिर कुछ इन्टरनेट विज्ञापन दाता भी हैं अब अगर गुरु दत्त को कोई नही छाप रहा होता और वे गरीब भी होते तो भी वे किसी अब्दुल जब्बार के पुराने होते कंप्यूटर पर अपनी कविता टाइप कर पोस्ट ज़रूर कर देते -,वाह, वाह, फिर क्या था टिप्पणियां आती -लगातार, लाइन से दन्न -दन्न "हिन्दी ब्लॉग जगत मैं आपका स्वागत है , लगातार लेखन के लिए धन्यवाद,आप जब हिन्दी मैं लिखते हैं तो अच्छा लगता है । बहुत सुंदर…॥आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। ‍‍ ‍‍‍ ….. फिर कोई पहले सेव और अब अंगूरों के शहर वाले भइया उन्हें बताते की ब्लॉग से पैसा कैसे कमाया जाए,कुछ गली मोहल्लों मैं उनकी चर्चा होती ,फिर क्या था उनके पास होते इनविटेशन ब्लॉगों पर लिखने के। पता चल रहा है कि भइया पिछले तीन महीने से गुरु दत्त (फ़िल्म किरदार) को उनकी माँ ने देखा ही नही है ,सब जगह उनके भाई भी ढूँढ रहे है की पता नही छोटा भाई कहाँ है,अब तो वो ब्लॉगर हो गया है,और भाभी जी परेशां है कि अभी अगर भइया आ गए और बोलने लगे की मेरी नज्मों वाली फाइल कहां है तो मैं क्या कहूँगी कि वो तो मैंने किसी कबाडी को बेच दी ,वो भी ब्लॉग पोस्टिंग के लिए । फिर कहीं किसी दिन गुरु भइया अपने भतीजे की पकड़ में आ जाते हैं । भतीजा चिल्लाता है दादी वो देखो चाचा जा रहे हैं ,दादी तो देर मैं सुन पाती है पर पहले आस-पास खड़े लोग उनके पीछे हो लेते हैं सब पकड़ लेते हैं कि भइया जरा हमारे ब्लॉग पर कोई कमेन्ट तो दे दो ,अरे ये ही लिख दो की -अच्छा लगा,या ये लिख दो की आपके द्वारा दी गई जानकारी उत्तम लगी,या ये ही लिख दो की एक नया शब्द सीखने को मिला । खैर गुरु साहब ज़रा जल्दी में हैं उन्हें एक ब्लॉगर मीट जो अटेंड करनी है ,मेरठ की ट्रेन पकड़नी है ,शायद अबकी बार कोई भिखारी रस्ते में ठण्ड से ठिठुर भी रहा होगा फिर भी गुरुदत्त साहब अपना कोट निकाल कर उसे नही देंगे क्योंकि सारे ब्लॉगर जो बैठे हैं उधर मेरठ में और फिर बिना कोट के काम कहाँ चलता है ।
खैर इस छोटे से लेख से में सिर्फ़ अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता हूँ ,अपने ब्लॉग पर क्योंकि ब्लॉग पर पोस्ट न करने की दशा में चिटठा जगत में सक्रियता कम हो जाती है और फिर कोई पढ़े न पढ़े लगना चाहिए कि हम लिख रहे हैं । मैं क्षमा चाहता हूँ जो किसी को बुरा लगा हो मेरा गुरु दत्त जी के जी के बारे में लिखना ,अगर आपत्ति हो बताएं .

वो कहते हैं न कि सब कुछ बच्चा माँ के पेट से सीख कर नही आता अभी हिन्दी ब्लागिंग भी कुछ ऐसी ही स्थिति मैं नज़र आती है, ब्लॉग की मूल अवधारणा अब बदल चुकी है ,ये उन प्रकाशकों और संपादकों के मुँह पर तमाचा मरने की कोशिश करती है जो कई बार नए कवियों की कविता नही छापते और कई बार उन्हें नज़रंदाज़ करते हैं । खैर बहुत कुछ होना अभी बाकी है ,सचमुच बहुत कुछ ,लीजिये आपके लिए एक मधुर सा गाना पेश कर रहा हूँ,गुरुदत्त साहब का ............ ।

संसद की दीवारों से

कहाँ हो सर एडविन लुटियन्स तुम ही थे जिसने हमें ये आकर दिया था क्या तुम जानते थे की तुम्हारी इस आकृति को इतना सम्नानीय स्थान और नाम मिलेगा तुम देख रहे हो की तुम्हारा सृजन आज फिर से सृजित होने का लालायित है पहले तो हम दीवारें कुछ बातों पर ठहाके भी लगा लेती थी ,एक दूसरे की चुटकी भी ले लेती थीं ,मगर जब से लोकतंत्र की पाठशाला मैं प्रवेश लिया हम भी मर्यादित आचरण करने लगी ,इसका ये मतलब नही की हम ठहाके नही लगा सकते थे ,या चुटकी नही ले सकते थे अब जनता के प्रतिनिधि हमारी गोद मैं बैठ कर भारत निर्माण की इबारत लिखने लगे
शुरूआती दौर मैं हमने आज़ादी के उत्साह और सृजन की इक्षा शक्ति से प्रफुल्लित स्वरों को सुना और मनो ऐसा महसूस हो रहा था की हम द्वापर की उस पत्थर रूपी अहिल्या से ज्यादा भाग्यशाली तो नही ,जो की राम की चरण राज लगने पर पुनः नारी बनी ,पर हम कठोर दीवारें उन महान स्वरों की अनुगूंज की टकराहट से अपने आप को भाग्यशाली महसूस करने लगीं थी

समय बढता गया और और स्वरों मैं भी बदलाव आता गया कभी किसानो की दुर्दशा पर स्वर उठे तो कभी कभी उद्योगों के विकास के लिए थपथपाती मेजों ने गला फाड़कर आवाज़ को तीखा किया बरस गुज़रे की स्वरों मैं बदलाव आया ,भाषा के नाम पर ,छेत्र के नाम पर तो हम दीवारों को लगा की देर रात तक दोने की वजह से हम पूरे होश मैं नही है मगर उन स्वरों की निरंतरता ने हमें स्तब्ध कर दिया पर उन दिनों कुछ जन प्रतिनिधियों की आवाज़ हमारे कलेजे को ठंडक देती थीं जिन्हें पक्ष और विपक्ष ध्यान से सुनते थे ,ऐसे प्रतिनिधि 90 के दशक तक आते आते काफी कम हुए उसके बाद साफ़ स्वर सुने आना बंद हो गए ,सिर्फ़ चीखें सुने देती थीं और उन चीखों मैं जनता का दर्द नही आपरी स्वार्थ ज्यादा प्रबल थे बहस शुरू नही होती की अचानक सदस्य सदन से वाकआउट कर के चले जाते ,खैर हम दीवारों को तो इससे राहत होती है,पर क्या ये बात देश को राहत दे सकती है नही चीखों के साथ कभी लत घूँसे चले ,दस्तावेज़ छींटे हुए प्रतिनिधि ,और सुना था एक दिन तो उन स्वरों और चीखों के लिए जनता से पैसे लिए गए हद तो तब हो गई जब हमारे आँगन मैं कुछ सदस्य पैसों से भरे बैग लेकर गए क्या यहाँ संविधान की आत्मा नीलम हो रही थी ,क्या वे गाँधी को दोबारा मार रहे थे या फिर उन लोगों को तमाचा मर रहे थे जिन्होंने उन्हें चुना है

आजकल मैं लोकसभा अधयाखा ने इन्ही के बारे मैं कहा है की "भगवन करे आप लोग हार जायें " अध्यक्ष महोदय की इस बात पर हम दीवारों ने भी मर्यद्दा तोडी और ठहाके लगते हुए कहा की नक्कारों के बीच टूटी का कोई असर नही होता है और यही हुआ अध्यक्ष जी के इस अमृत वचन को मीडियाई लोगों ने शाप बता दिया और कुछ लोगों ने पान ठेलों ,चाय की दुकानों पर 10 मिनट की चर्चा मैं इस विषय को क्लोस कर दिया मगर हम दीवारों को पता चला है की अध्यक्ष जी की इस बात के बाद हमारे चरों स्तम्भ की मौलिक आत्मा गहरे सदमे मैं है और बाहर आने से इनकार कर रही है

कलकत्ता के प्रसिद्ध छोले भटूरे

कभी भोपाल आयें तो छोले भटूरे ज़रूर खाइएगा , वो भी न्यू मार्केट मैं . अरे ख़ास कुछ नही है,वैसे ही है . भाई आप हर चीज़ मैं खास क्यों ढूँढने लगते हैं . खासियत कई हैं पर वो जगह की हैं ,ये न्यू मार्केट की इकलौती जगह है जहाँ भटूरे खाने के लिए लाइन लगती है ,लोग इस कदर दीवाने है की न्यू मार्केट आकर यहाँ के भटूरे और मिश्रा की जलेबी ज़रूर खाते हैं .हनुमान मन्दिर के पीछे भटूरे की लाइन से तीन दुकाने हैं .पंजाब के छोले भटूरे,दिल्ली के छोले भटूरे,और कलकत्ता के छोले भटूरे .

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क्या कहा भटूरे मैं कुछ काला है ,कलकत्ता मैं भटूरे प्रसिद्ध नही ,हाँ भाई लोचा तो ये ही है .दरअसल पहले दिल्ली फिर पंजाब तो तीसरी दूकान वाले ने सोचा मैं क्यों पीछे रहूँ पुरानी ही सही राजधानी का नाम ही रखूँगा और फिर हम कलकत्ता के हैं तो कलकत्ता क्यों नही . तो भाई ऐसे ही aसहा साहब ने अपनी दुकान का नाम कलकत्ता के छोले रखा . DSC02966

बीते दिनों महंगाई के बड़ते ही हमारे भटूरों के रेट भी बढ़ गए ,दिवाली तक 10 रुपए प्लेट आने वाले भटूरे अब 15 रुपए प्लेट हो गए हैं .हाय री मंहगाई मेरे भटूरों को तो छोड़ देती ! कभी मूड बने तो आएये यारों के साथ शाम को 6 के बाद आप खुश किस्मत होंगे की जाते ही बैठने की जगह मिल जाए .

आप देखिये की किस तरह से भटूरे बनते ,कैसे खाते हैं खाने का तरीका सीखिए फिर ही खाने को मिलेगा .बीते कई सालों से तीन दुकाने जम के धूम मच रही है . और फिर हमारा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसे ही नही है इसलिए कुछ फोटो भी दे रहे हैं लगाइए ..... चटकारे .

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क्या वेटिंग क्लीअर होगी ?



"नेट प्रेमी " राजनेता ' पी .एम . इन वेटिंग ' याने की लाल कृष्ण अडवाणी का प्रचार अभियान हाई टेक तरीके से शुरू हो चुका है । दो दिन पहले ख़बरों से पता चला की पार्टी लगभग 2 हज़ार वेबसाइटों के मध्यम से अभियान को मजबूती प्रदान करेगी । जिसमे दुनिया भर की लोकप्रिय वेबसाइट शामिल की जाएँगी । प्रचार का काम गूगल एडसेंस को दिया गया है । आपको यह याद दिला दूँ कि भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन ने भी देश के लोगों को शाइनिंग इंडिया की पञ्च लाइन थमाई थी , हुआ क्या बेचारे अटल जी की गाड़ी को ब्रेक लग गया। अब अडवाणी की बारी है । गौर तलब है की पिछले साल इसी नेता ने अपनी वेबसाइट शुरू की और कुछ ही दिन बाद इन्तेराक्टिवे ब्लॉग भी शुरू कर दिया । यहाँ दिलचस्प बात यह है की दुनिया के सबसे बड़े रेल तंत्र में जहाँ ज्यादातर लोगों की वेटिंग क्लीअर हो जाती है वहां अडवाणी की वेटिंग क्लेअर होगी या नही । वक्त आने दो सब पता चल जाएगा ।


कुछ रिश्ते टाई की तरह होते हैं

कुछ रिश्ते टाई की तरह होते हैं अक्सर इन रिश्तों के निशान टाई पर न होकर शर्ट पर होते हैं । टाई जब सही बंधी हो समझो की बहुत ग़लत हो रहा है ,जैसे ही जश्न ख़त्म और आदमी अकेला होता है वह अपनी टाई निकलता है तो पहले उसके आकार को परिवर्तित कर उसे थोड़ा व्यापक कर देता है फ़िर तेज़ी से खींचता है और तुंरत बन्धनों से मुक्त टाई सीधी और सपाट हो जाती है ,उस पर न पुराने वक्त की सिलवटें हैं न चहरे पर कुछ खोने का गम , सब कुछ सामान्य सा दिखाई देता है । मगर कमीज़ के कालर पर निशान अक्सर छुट जाते हैं ,कुछ छोटे तो कुछ लंबे जैसे किसी ने पीठ पर हंटर चलायें हों ,लेकिन जब टाई सही नही बंधी हो तो अक्सर आसानी से नही छूटती और इसी कशमकश में वह गले का स्पर्श भी कर लेती है और जब खुलती है तो उसके सीने पर फ्रेंडशिप बैंड बंधे होते हैं ,जो कुछ पागलपन भरे रिश्तों की शुरुआत लिए होते हैं ।अब सवाल है की क्या टाई कभी इतनी सख्त हो सकती है की वह किसी की जान ले सके ,अभी तक ऐसे हादसों की ख़बर अखबारों में छपी नही ,चॅनल वालों को मालूम नही । आस पड़ोस की महिलाओं और बुजुर्गों को ये टाई का किस्सा समझ नही आया । वाकई क्या हम इतने आधुनिक हों गए है की परम्पराओं मैं दम घुटने लगे । मगर नही कल ही मैंने शव यात्रा में लाश को खामोश और खली हाथ जाते हुए देखा है ।