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भारतीय चुनाव सुधार

पिछले अंक में हमने भारत में चुनाव प्रक्रिया को समझा , लोकतंत्र में संविधान को प्रमुख और सर्वोच्च मान कर लोकतान्त्रिक कार्यों का संचालन होता है, चुनाव प्रक्रिया में हम एक महत्वपूर्ण बात बताना चूक गए जिस पर हमारा ध्यान राज भाटिया जी ने एक टिपण्णी के मध्यम से दिलाया के - span style="font-style: italic;">बहुमत वाले दल को ५४३ सीटो मे से कितनी सीटे चाहिये अपना बहुमत साबित करने के लिये, ओर कम से कम कितने प्रतिशत मत दान होना चाहिये - सभी भारतीय चुनावों में बहुमत वाले दल अपना बहुमत साबित करने के लिए कम से कम 50% मतों या सीटों का मिलना ज़रूरी होता है । लोकसभा के 543 सदस्यों वाले सदन में कम से कम 272 सीटें अपना बहुमत साबित करने आवश्यक हैं । पर फिलहाल तो हम भी ये ढूँढने में असमर्थ रहे के न्यूनतम मतदान प्रतिशत कितना होना चाहिए एक चुनाव को वैध कहलाने के लिए ।
आज हम चुनाव सुधारों पर बात करेंगे
चुनाव सुधार के मुद्दे पर इस मुल्क में पिछले कई दशकों से बहस जारी है। चुनाव सुधार की बातें प्राय: सभी पार्टियां कर रही हैं और करती रहीं हैं। लेकिन आवश्यक सुधार आज तक नहीं हुए।
भारत के चुनावों में 1967 के बाद वृहद रूप से गलत प्रवृत्तियां उभरीं। यह प्रवृत्तियां थीं- धन, बल, जोर-जबर्दस्ती, जाति, चुनावी हिंसा, दलबदल, संप्रदाय और सत्ता के दुरूपयोग की प्रतृत्ति। यह प्रवृत्तियां चुनाव प्रणाली को दूषित करने लगी। संसद और विधानसभाओं के लिए होने वाले चुनावों में इसकी स्पष्ट छाप दिखाई देने लगी और अब इन तंत्रों के सहारे लोकतंत्र के इन सर्वोच्च संस्थाओं में अपराधियों की भरमार होने लगी है।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने 10 फरवरी 1992 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने चुनाव सुधार पर मई 1990 में पेश पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी समीति की रिपोर्ट को लागू करने की सिफारिश की थी। ऐसा नहीं है कि यह चुनाव सुधार के लिए पहली रिपोर्ट थी, इससे पहले भी इस कार्य हेतु कई रिपोर्ट आ चुकी हैं।
चुनाव आयोग ने 1970 में विधि मंत्रालय को चुनाव सुधार से संबंधित अपना पहला विस्तृत प्रस्ताव प्रारूप सहित भेजा था। 1975 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनसंघ, अन्नाद्रमुक आदि दलों की संयुक्त समीति ने अनेक सुझाव दिये। 1975 में आठ दलों ने एक स्मार पत्र दिया, जिसमें कई सुझाव दिए गए थे। स्व. जयप्रकाश नारायण ने प्रसिद्ध न्यायविद् वीएम तारकुंडे की अध्यक्षता में चुनाव सुधार पर विचार के लिए एक कमेटी गठित की। चुनाव आयोग ने 1977 में पूर्व के सभी सुधारों से संबंधित प्रस्तावों की समीक्षा कर 22 अक्टूबर 1977 को एक समग्र प्रतिवेदन भारत सरकार को भेजा। 1982 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एसएल शकधर ने पूर्व के सभी सुझावों की समीक्षा के बाद एक नया प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा। इस तरह लगातार इस संबंध में सुझाव आयोग द्वारा भारत सरकार को भेजे जाते रहे, जिनमें कुछ पर ही अमल हो पाया।
कई संसोधन तो केवल लाभ उठाने के उद्देश्य से ही किए गए, जैसे लगभग 23 वर्ष पहले जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 77 की उपधारा (1) में स्पष्टीकरण 1 जोड़ा गया था। इसके अंतर्गत उम्मीदवार के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा जिसमें उसकी राजनीतिक पार्टी, मित्र और समर्थक शामिल हैं, खर्च किया गया धन, उम्मीदवार के चुनाव खर्च में शामिल नहीं किया जाएगा। इस स्पष्टीकरण के अंतर्गत किसी उम्मीदवार के चुनाव में उसकी पार्टी या समर्थकों द्वारा बेहिसाब धन खर्च किया जा सकता है। अनेक लोगों और उच्चतम न्यायालय ने इस स्पष्टीकरण की आलोचना की है लेकिन निहित स्वार्थ के कारण इसे अभी तक हटाया नहीं गया है।

प्रमुख चुनाव सुधार - एक नजर में

• 1995 के बाद मतदाताओं के पहचान पत्र का उपयोग होने लगा। प्रारंभ में यह केवल मतदान के उद्देश्य को लेकर बनाए गए लेकिन पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस रमा देवी ने इसे बहुद्देशीय बनाने की वकालत की और फिर ऐसा ही हुआ। इसकी अनुशंसा प्राय: सभी समीतियों ने की थी। अब तो पूरे भारत में फोटो पहचान पत्र बनाने का कार्य पूरा हो चुका है।
• अस्सी के दशक में मतदान की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई, इससे मतदाताओं की संख्या में काफी बढ़ोतरी हूई है।
• जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में संसोधन करके 15 मार्च 1989 से मतदान में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल शुरू करने की व्यवस्था की गई। हाल के आम चुनाव में पूरे भारत में ईवीएम के जरिये ही वोटिंग की गई।
• शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग ने चुनावों से पहले लोगों के हथियार नजदीकी पुलिस थाने में दर्ज कराने की परंपरा शुरू की।
• मतदान के दिन आयोग ने शराब की बिक्री पर पूर्णत: प्रतिबंध लगा दिया।
• उम्मीदवार अपने प्रचार में अंधाधुंध धन खर्च ना करें इसके लिए निर्वाचन आयोग ने चुनाव प्रचार संबंधी गतिविधियों की वीडियों रिकॉर्डिंग करवाना शुरू की है।
• चुनाव खर्च पर नजर रखने के लिए आयोग ने लेखा परीक्षकों को प्रेक्षक के रूप में नियुक्त करना शुरू किया है।
• जुलाई 1998 में निर्वाचन आयोग ने सिफारिश की थी कि जिन व्यक्तियों के खिलाफ अदालत आरोप पत्र दायर कर दे, उन्हें विधानमंडल या संसद का चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाए।
• चुनाव आयोग ने उम्मीदवार के एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर, एिक्जट पोल और ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध लगाने, राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपनी आय और खर्च का अनिवार्य रूप से हिसाब रखने और उसकी लेखा परीक्षा कराने की भी सिफारिश की।
• चुनावों को पारदशीZ बनाने के लिए निर्वाचन आयोग ने यह आदेश जारी किया है कि चुनाव लड़ने वाले हर उम्मीदवार को अपनी नामजदगी के पर्चे के साथ शपथ पत्र में अपनी पित्न और आश्रितों की कुल चल और अचल संपत्ति और देनदारियों का विवरण, अपनी शिक्षा, योग्यता का विवरण और यदि कोई आपराधिक पृष्ठभूमी हो तो उसकी जानकारी और अपने खिलाफ दायर आपराधिक मामलों का विवरण देना होगा।
• सरकार ने मतदाता को पहचान पत्र देने के साथ-साथ जाली मतदान रोकने के लिए मतदाता सूचियों में मतदाता की तस्वीर लगाने की व्यवस्था की है। निर्वाचन आयोग के प्रेक्षकों की जांच के परिणामस्वरूप मतदाता सूचियों से लाखों मृतकों के नाम हटाए गए हैं और लाखों नए नाम शामिल किए गए हैं।
• दलबदल कानून 1985 में संसोधन कर इसे और कठोर बनाया गया है।
इसके अलावा भी कई छोटे किंतु महत्वपूर्ण चुनाव सुधार को अंजाम दिया गया है, जिन्हें इस शोध पत्र में सम्मिलित करना संभव नहीं है।
उन सुधारों और प्रस्तावित सुधार प्रस्ताव जो करीब पन्द्रह विषयों में हैं ,इसके आलावा भी करीब सात विषयों में चुनाव सुधार प्रस्ताव लंबित हैं उन विषयों की सूची और वर्णन भारत के चुनाव आयोग की वेबसाइट पर या इस लिंक पर जा का देख सकते हैं ।

आपकी सुविधा के लिए इस पोस्ट के साथ भी Proposed Indian Electoral Reforms नामक फाइल संलग्न है

हमारा प्रयास कैसा लगा इसे बताते रहे और कोई त्रुटी पे जाने पर अवश्य सूचित करें
Proposed Indian Electoral Reforms


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चुनाव प्रक्रिया एवं चुनाव सुधार - शोध कार्य

क्रिकेट और चुनाव होते तो भारत को एक बेरौनक देश कहा जाता। थोड़े-थोड़े अंतराल में यहां चुनाव होते रहते हैं, इतने बड़े देश में चुनाव संपन्न करवाना कोई मामूली बात नहीं है।गत 57 वर्षों में लोकसभा के लिए 15 आम चुनाव तथा विभिन्न राज्यों के लिए अनेक विधानसभा चुनाव हुए लेकिन कुछ कठिनाइयों के बावजूद यह चुनाव निष्पक्ष, स्वतंत्र और सफल रहे हैं।
शोर शराबा, उम्मीदें, भावुकता, गुस्सा, चिंता, खुशी सब कुछ चुनाव में एक साथ नजर आते हैं। इन सब मानव भावनाओं को एक साथ संभालना चुनाव प्रबंधकों के लिए एक टेढ़ी खीर बन जाता है। प्रस्तुत शोध पत्र में भारतीय चुनाव प्रणाली की व्याख्या की गई है। एक चुनाव किस तरह संपन्न होता है, इसे समझाया गया है।
मानव की तरह चुनाव में भी सुधार की हमेशा गुंजाइश रहती है और भारत में भी इसकी जरूरत 1967 से समझी जाने लगी थी, तब से लेकर आज तक किए गए सुधारों को समझकर आगे की जरूरतों का पता लगाने की कोशिश की गई है।


क्रिकेट और चुनाव होते तो भारत को एक बेरौनक देश कहा जाता। थोड़े-थोड़े अंतराल में यहां चुनाव होते रहते हैं, इतने बड़े देश में चुनाव संपन्न करवाना कोई मामूली बात नहीं है।गत 57 वर्षों में लोकसभा के लिए 15 आम चुनाव तथा विभिन्न राज्यों के लिए अनेक विधानसभा चुनाव हुए लेकिन कुछ कठिनाइयों के बावजूद यह चुनाव निष्पक्ष, स्वतंत्र और सफल रहे हैं।
शोर शराबा, उम्मीदें, भावुकता, गुस्सा, चिंता, खुशी सब कुछ चुनाव में एक साथ नजर आते हैं। इन सब मानव भावनाओं को एक साथ संभालना चुनाव प्रबंधकों के लिए एक टेढ़ी खीर बन जाता है। प्रस्तुत शोध पत्र में भारतीय चुनाव प्रणाली की व्याख्या की गई है। एक चुनाव किस तरह संपन्न होता है, इसे समझाया गया है।
मानव की तरह चुनाव में भी सुधार की हमेशा गुंजाइश रहती है और भारत में भी इसकी जरूरत 1967 से समझी जाने लगी थी, तब से लेकर आज तक किए गए सुधारों को समझकर आगे की जरूरतों का पता लगाने की कोशिश की गई है।
शोध के द्वारा पता लगाने का प्रयत्न किया गया है कि भारतीय चुनाव प्रणाली में कहां खामी है और इसमें किन सुधारों की आवश्यकता है। साथ ही भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रमुख चुनौतियों को भी ढूंढा गया है। कुल मिलाकर प्रस्तुत शोध पत्र में इस लोकतंत्र के महापर्व की प्रक्रिया यानि चुनाव प्रक्रिया और उसके सुधारों की वर्तमान स्थिति का जायजा लेने की कोशिश की गई है।

भारतीय लोकतंत्र में `चुनाव प्रक्रिया एवं चुनाव सुधार` यह एक ऐसा विषय है जो हमारी संपूर्ण गतिविधियों एवं क्रियाकलापों से किसी किसी रूप में जुड़ा हुआ है। भारत में आजादी के तीन वर्ष बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई और इसके लगभग दो साल बाद चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ हुई।
भारतीय लोकतंत्र की कल्पना करते ही हमारे मस्तिष्क में संविधान का ध्यान आता है, जिसमें भारत की समस्त लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के साथ चुनाव प्रक्रिया का भी वर्णन है। लोकतंत्र राज्य व्यवस्था को बुनियादी ढंग से चलाने की व्यवस्था है, जिसमें जनता `स्व` से शासित होना चाहती है।
लोकतंत्र की व्यवस्था को अनवरत बनाए रखने के लिए ही चुनाव का प्रावधान हमारे संविधान में किया गया है, फिर लोकतंत्र की जीवंतता के लिए चुनाव सुधार की आवश्यकता पड़ती है। यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। गौरतलब है भारत अपनी आजादी के 62 साल पूरे कर चुका है और यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यही नहीं इसके लोकतंत्र की मजबूती की मिसाल पूरी दुनिया के लिए प्रेरणादायक है। इसका कारण भी है कि लोकतंत्र को ताक पर रखने वाले और तानाशाही से संचालित होने वाले पड़ोसी देशों से घिरे होने के बावजूद भारत के लोकतंत्र की बुनियाद काफी मजबूत है। प्रस्तुत शोध पत्र में इस लोकतंत्र के महापर्व की प्रक्रिया यानि चुनाव प्रक्रिया और उसके सुधारों की वर्तमान स्थिति का जायजा लेने की कोशिश की गई है।
भारतीय लोकतंत्र वर्षों के संघर्षों का परिणाम है, जिसकी बुनियाद में हमारे देश के शहीदों की यादें दबी पड़ी हैं। हालांकि भारत में प्राचीन काल से गणतंत्रों का वर्णन है जिसमें सोलह महाजनपदों का विवरण मिलता है। इसके बाद वर्षों तक हम गुलाम रहे। गुलामी की बेड़ियां तोड़ने और सुंदर भारत का सपना अपनी आंखों में सजाये भारत के वीर सपूतों ने अपने प्राणों की तिलांजलि तक दे दी। इसी क्रम में बापू, नेहरू, भगत सिंह, पटेल और तमाम लोगों ने भारत को आजादी का सवेरा दिखाया।
1947 के बाद भारत ने अपना नया अध्याय शुरू किया और स्वच्छंद माहौल में आजादी के तीन वर्षों बाद भारत ने खुद को गणतंत्र घोषित कर दिया। तब से लेकर अब तक भारत का लोकतंत्र निरंतर समृद्ध और सुदृढ़ ही हुआ है। बीते 62 वर्षों में भारत ने लोकतंत्र की मजबूती एवं सतत विकास की प्रक्रिया के लिए अपना सारा कुछ न्यौछावर किया है। विश्व के उभरते हुए राष्ट्रों में 1950 के दशक में लोकतंत्र एकमात्र पसंद थी। तब से अनेकों बार ऐसे अवसर आये हैं जब प्रश्न किए गए हैं कि क्या भारतीय लोकतंत्र परिस्थितियों की कसौटी पर खरा उतरेगा ? तब प्रत्येक अवसर पर भारत ने सकारात्मक तरीके से हामी भरी है और सभी सवालों के जवाब दिए हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत वयस्क मताधिकार देता है। यह अधिकार प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के दिया गया है, जो मजबूत लोकतंत्र को उंचाईयों पर ले जाने की पहली सीढ़ी है।

इस श्रंखला में हम आपको भारतीय चुनाव प्रक्रिया और चुनाव सुधार पर किए गए शोध कार्य से अवगत कराएँगे आपके अनुभव और सुझाव सदैव आमंत्रित हैं


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इन पर भी कसो नकेल, ब्राउन से सीखो

क्या आप सांसद हैं ? क्या आपने कभी पैसा खाया है, किसी को मरवाया है, किसी घोटाले में आपका नाम है, या अपने किसी भतीजे की नौकरी लगवाई है तो फ़िर भी परेशान होने की कोई ज़रूरत नही है , आप भारत में है और यहाँ सांसदों के लिए कोई आचार संहिता नही है पर भूल कर भी ब्रिटेन मत जाइएगा क्योंकि वहां आचार संहिता बने जा रही है सांसदों के लिए आचार संहिता सुनने में जरूर कुछ अजीब लग रहा होगा, पर कुछ ऐसा हुआ है ब्रिटेन में। सांसदो के खर्च घोटाले के शर्मसार खुलासों के बीच ब्रिटेन सरकार की योजना निर्माताओं के लिए बाध्यकारी कानून लागू करने की योजना बनाई है।

प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने कहा कि उनकी योजना सांसदों के लिए बाध्यकारी कानून लागू करने की है, जो अन्य सार्वजनिक संस्थानों के लिए चेतावानी है कि कठोर छानबीन का सामना करना होगा।

संविधान सुधार विधेयक की योजना तय करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें ऐसा प्रावधान शामिल होगा जो जिम्मेदारियां निर्धारित करेगा। सांसदों के लिए एक आचार संहिता होगी। ब्राउन के हवाले से मीडिया में कहा गया है कि उसके बाद हम एक स्वतंत्र बाहरी संस्था बनाएंगे। जो अब से आगे इन चीजों का प्रबंधन करेगी।

लेकिन ब्राउन की परेशानी इस से सुलझने से ज्यादा बढ़ते जा रही है , एक-एक करके उनके तीन मंत्री इस्तीफा दे चुके हैं
वे एक दमदार नेता हैं और ऐसी छोटी बातों से वे डिगने वाले नही हैं , उनकी पार्टी का विशवास उन में है और वे पूरे विश्व के लिए उदहारण प्रस्तुत करना चाहते हैंउन की जय हो

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जनता ने सांप्रदायिक ताकतों को पूरी तरह नकार दिया

लोकसभा चुनाव के नए जनादेश पर मैंने देश के कुछ नए पुराने साहित्यकारों की राय ली एक ख़बर के लिए.......पेश है आप के लिए जैसी की तैसी


लोकसभा चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) को जीत हासिल हुई है और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) तथा वाम दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा है। इन चुनाव नतीजों को लेकर देश के कुछ वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों का मानना है कि देश की जनता ने सांप्रदायिकता, जाति और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाली ताकतों व आपराधिक छवि वालों को साफ तौर पर खारिज कर दिया है।


वरिष्ठ साहित्यकारों के मुताबिक राजग जहां वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय भावनात्मक उभार पैदा करने की कोशिशों और भविष्य के लिए स्पष्ट नीतियों के अभाव के चलते पराजित हुआ, वहीं संप्रग की जीत उसकी नीतियों और मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि का नतीजा है।


राजेंद्र यादव



क्या इस जनादेश को देश के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में किसी परिवर्तन का द्योतक माना जा सकता है, यह पूछे जाने पर वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कहा कि ये चुनाव इस मायने में खास हैं कि इस बार जनता ने सांप्रदायिक ताकतों को पूरी तरह नकार दिया साथ ही उसने यह भी स्पष्ट किया कि छोटे और क्षेत्रीय दलों से उसका मोहभंग हो रहा है।


उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पुनरोदय के बारे में उन्होंने कहा कि जनता ने मायावती के भ्रष्ट और आपराधिक शासन के खिलाफ जनादेश दिया है, जबकि देश के अन्य हिस्सों की ही भांति कांग्रेस की युवाओं को आगे लाने की रणनीति भी उत्तर प्रदेश में कारगर साबित हुई।


भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार पर उन्होंने कहा कि भविष्य के लिए कोई स्पष्ट योजना न होना उसकी हार का प्रमुख कारण रहा। वाम दलों की खराब स्थिति के बारे में उन्होंने कहा कि वास्तविकता को न समझ पाने और आपसी बिखराव की वजह से उनकी यह दुर्दशा हुई।


प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव और वरिष्ठ समालोचक डॉ. कमला प्रसाद कहना है कि इन चुनावों में जनता ने छिपे हुए एजेंडे लेकर चलने वाले दलों को किनारे लगा दिया। इसके अलावा यह जनादेश बाहुबलियों, धनबलियों और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और समाजवादी पार्टी (सपा) जैसे व्यक्ति केंद्रित दलों के भी खिलाफ रहा।


कांग्रेस की स्थिति में सुधार पर उनका स्पष्ट मानना है कि इसमें कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं रही बल्कि उसे अन्य दलों के खिलाफ लोगों की नाराजगी का फायदा मिला। उनके मुताबिक उत्तर प्रदेश में मायावती से नाराज सवर्णो, दलितों और मुस्लिम समुदाय के वोट इस बार कांग्रेस को मिले।


वाम दलों की पराजय पर कमला प्रसाद ने कहा कि संप्रग सरकार द्वारा किए गए सभी अच्छे कामों में वाम दल शरीक रहे, लेकिन ऐन चुनाव के पहले सरकार से समर्थन वापस लेने से वह इन कामों का लाभ नहीं उठा सके। इसके अतिरिक्त उन्हें परमाणु करार के मुद्दे पर भाजपा के साथ खड़े होते दिखने का भी नुकसान हुआ।


कृष्णमोहन



युवा आलोचक कृष्णमोहन ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के उभार पर कहा कि मुलायम शासन से त्रस्त जनता ने मायावती को जनादेश दिया था लेकिन उसका बहुत जल्दी उनसे भी मोहभंग हो गया और राज्य में तीसरे विकल्प के रूप मे कांग्रेस को उभने का मौका मिल गया।


वामदलों की करारी पराजय पर उन्होंने कहा कि नंदीग्राम और सिंगुर जैसे प्रकरणों ने वाम दलों की छवि को भारी क्षति पहुंचाई। इसके अलावा सैद्धांतिक विचलन भी उनकी हार का कारण बना। उन्हें दोहरेपन का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। दरअसल वह खुद उन कमियों का शिकार हो गए जिनके लिए वह अन्य दलों की आलोचना किया करते थे।


भाजपा और राजग की हार पर उन्होंने कहा कि उसने वास्तविक मौजूदा मुद्दों की बजाय लोगों का भावनात्मक दोहन करने की नीति अपनाई जो अंतत: उनके लिए नुकसानदेह साबित हुई। उन्होंने कहा कि आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है जिस पर राष्ट्रीय बहस छेड़ी जा सकती थी लेकिन भाजपा अफजल की फांसी और वरुण गांधी के बयानों पर ही उलझी रह गई।


ज्ञानपीठ युवा लेखन पुरस्कार से सम्मानित युवा किस्सागो चंदन पांडेय का कहना है कि इन चुनावों से राष्ट्रीय स्तर पर तो कोई सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव परिलक्षित नहीं होते लेकिन फिर भी इस बार लोगों ने जातिवाद, बाहुबल और ब्लैकमेलिंग की राजनीति को खारिज किया है जो अपने आप में एक बड़ा परिवर्तन है ।


वाम दलों की स्थिति को चंदन उनकी हार न मानते हुए कहते हैं कि आम तौर पर उनके वोटों का प्रतिशत इसके आसपास ही रहता है लेकिन उनकी सीटों में जो कमी आई वह स्थानीय मुद्दों पर विफलता के कारण आई।


राजग की हार पर उन्होंने कहा कि उनके पास वास्तव में मुद्दों का अभाव था क्योंकि उन्हें अच्छी तरह पता था कि बेरोजगारी के वैश्विक कारण है और यह स्थानीय मुद्दा नहीं बन सकता। इसके अलावा ठोस आर्थिक नीतियों के अभाव में उन्हें पता था कि वह महंगाई और मंदी को मुद्दा नहीं बना सकते क्योंकि उनके पास खुद इससे निपटने की कोई योजना नहीं थी।

चंदन ने देश के मीडिया जगत को दक्षिणपंथी रुझान वाला करार देते हुए कहा कि यह मीडिया ही था जो राजग को लगातार मुकाबले में बता रहा था।


युवा कथा लेखिका वंदना राग का मानना है कि इन चुनावों में भाषाई विद्रूपता को अपनाने वाले लोगों की पराजय हुई है और जनता ऐसी छोटी बातों से ऊपर उठी है। उन्होंने कहा कि बुढ़िया और गुड़िया जैसे निचले स्तर के संबोधनों के प्रयोग ने लोगों को यह जता दिया कि देश के बड़े नेता बुजुर्गो और महिलाओं को कितना सम्मान देते हैं।


वाम दलों की हार पर उन्होंने कहा कि नंदीग्राम व सिंगुर जैसे मुद्दों ने उसे नुकसान तो पहुंचाया ही साथ ही जनता ने भी सरकार का साथ छोड़ने के बाद उसे विकास विरोधी मान लिया।

And here is the rest of it.

शर्म आने लगी है ऐसे भेड़ियों को चुनने में

पंद्रहवें आम चुनाव के लिए हो रहे चुनाव प्रचार में राजनेताओं का जो वाकयुद्ध हो रहा है उसमें विचारधारा, नीतियॉंऔर आम आदमी के मुद्दे नदारद हैं। यहॉं तो बस सड़कछाप गुण्डों की तरह लड़ाई छिड़ी दिख रही है। जो बीच बाज़ारएक-दूसरे को गाली दिए जा रहे हैं, बिना इस बात की चिंता किए कि सड़क से गुजरने वाले दूसरे लोग उन्हें क्याबोलेंगे। आडवाणी कह रहे हैं कि मनमोहन कमजोर प्रधानमंत्री हैं और सोनिया कह रही हैं आडवाणी आरएसएस केगुलाम हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए जिससे जो संभव हो रहा है वो कर रहा है और कह रहा है। किसीकोइस बात की चिंता नहीं है कि देश की जनता को इसी कमजोर प्रधानमंत्री और आरएसएस के गुलाम में से किसीएक को देश की बागडोर सौंपनी है। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या तीसरे मोर्चे के नेता। किसी को इस बात की फिकरनहीं है कि आजादी के परवानों ने इस देश में एक ऐसे लोकतंत्र की नींव रखी है जिसमें जनता ही जनार्दन है। लेकिन बरस बाद लगता है कि हमारे नेताओं को लोकतंत्र की अवधारणा याद नहीं रह गई है। लोकतंत्र का दिल लोकसेवा है। लेकिन अब तो नेताओं के भाषण और उनकी करतूतें देखकर लग रहा है कि ये सब राजसत्ता के भूखे भेड़िए हैं। इन्हें देश की जनता के ईमान से कोई सरोकार नहीं। सब के सब एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं।सब दूसरे की थाली में छेद ढूंढ रहे हैं। देश की तरक्की का खाका किसी के पास नहीं है। किसी को 62 सालों के इसआजाद दौर की परवाह नहीं। इस बात पर किसी को शर्म नहीं आ रही है कि इतने सालों बाद भी हम कहॉं खड़े हैं।राजनीतिक दलों के ऐजेण्डे लोकलुभावन वादे से अटे पड़े हैं। कोई कह रहा है हम 2 रुपए किलों खाद्यान्न देंगे तोकोई एक रुपए किलो देने की बात कह रहा है। लेकिन इनको इस बात की कोई परवाह नहीं कि अभी तक आप जो रुपए और 4 रुपए किलो दे रहे थे क्या वो उन जरुरतमंदों तक सही अनुपात और समय पर पहुँच पाया। अगरनहीं पहुँच पाया तो कौन है इसके लिए जिम्मेदार। सत्ता सुंदरी के साथ शयन करने की इनकी कामना ने इन्हें अंधाबना दिया है। इनके आक्षेप के केन्द्र में विचारधाराएं और सिद्धांत नहीं `बुढ़िया´ और `गुड़िया´ आ गई है। बेहतर होगा यदि नेता अपनी बयानबाजियों से लोकतंत्र के सवा अरब नुमाइंदों को शर्मिंदा न करें। क्योंकि इनकी बात सुनकर अब हमें इस बात पर शर्म आने लगी है कि हम इस लोकतंत्र के लोक हैं, जो ऐसे भूखे भेडियों को अपने मतसे चुनकद संसद और विधानमंडलों तक भेजते हैं। ऐसे भेड़िए जिन्हें अपनी कुर्सी के आगे देश की अस्मिता और गरिमा सब कमतर लगे।

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लोकलज्जा भंग होने का प्रतीक है जरनैल का जूता

बड़ा ही अहम सवाल है कि क्या जरनैल जैसे पत्रकारों का एक जूता भारतीय राजनीति की दिशा को बदल सकताहै? इस जूते के कई मायने हैं। एक तो ये कि क्या एक पत्रकार के लिए ऐसा करना ठीक है ? दूसरा ये कि क्या एकजुता भारतीय राजनीति में किसी की टिकट कटा सकता है। निसंदेह जरनैल के जूते ने भारतीय राजनीति, पत्रकारिता और ब्लागर्स के मध्य एक नई बहस को जन्म दिया है। लेकिन थोड़ा सा सापेक्ष होकर सोचें तो क्या यहसही नहीं है कि ये जरनैल के जूते का ही असर है कि सिक्ख दंगों के लिए दोषी टाइटलर और सज्जन के हाथ सेकांग्रेस की टिकट फिसल गई।
थोड़ा सा और गहरे में जाएं तो क्या ये भी सही नहीं है कि 60 साल के लोकतंत्र की हालत अब भी इस कदर कमजोर है कि एक पत्रकार का जूता इसमें हिलोरें पैदा कर सकता है। सवाल जरनैल के जूते से सज्जन और टाइटलर के टिकट काटकर जन भावनाओं के सम्मान का नहीं है (जैसा कांग्रेस कह रही है) यदि हिंदुस्तान के राजनीतिक दलों को जनभावनाओं की इतनी ही कदर है तो फिर दोषी ठहराए जाने के बावजूद सज्जन और टाइटलर आज इस मुकाम पर कैसे पहुंचे । यहाँ तो राजनीतिक पार्टियों का ये एक सूत्रीय ऐजेंडा है सत्ता सुख का भोग। चाहे उसके लिए उन्हें कुछ करना पड़े। इस आम चुनाव में कौनसा ऐसा मुद्दा है जो आम आदमी से सीधा जुड़ा है। यदि सिक्ख दंगों के लिए दोषी ठहराए जाने के बावजूद सज्जन और टाइटलर को टिकट मिल रही थी तो शर्म आना चाहिए हमारे लोकतंत्र के पुराधाओं को , हम बहस इस विषय पर कर रहे हैं कि जरनैल का चिंदबरम पर जूता उछालना कितना जायज है। हम ये नहीं जानना चाहते कि भारतीय राजनीति में ऐसे न जाने कितने टाइटलर और सज्जन हैं जिन्होंने अपनी पार्टी के फायदे के लिए क्या-क्या नहीं किया। इसीलिए तो अब लोकतंत्र में लोकलज्जा भंग हो रही है।
जरनैल का एक पत्रकार होते हुए चिदंबरम पर जूता उछालना इसी बात का प्रमाण है। चाहे कोई किसी पेशे में हो लेकिन सबसे पहले वह एक इंसान है। इंसान के भीतर उसके अपनी संवेदनाएं है। यदि जरनैल का मामला प्लांटेड नहीं हुआ तब तो ये पूरी राजनीतिक बिरादरी पर फेंका गया एक जुता है। यदि इस जूते ने कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के निर्णय को प्रभावित किया है तब तो निश्चित रुप से जरनैल का कृत्य काबिले तारीफ है। इराक में जार्ज़बुश पर फेंके गए जैदी के जूते की इसीलिए वहॉं जय-जयकार हुई थी। दरअसल ये जूता नहीं जनभावनाओं का प्रतीक है।

अब आपके लिए भी ये एक जूता छोडे जा रहे हैं , मन चाहे पत्रकारों पर मारें, मन चाहे हमारी राजनीती पर मारें , या चाहें तो उस पर क्लिक करें और हमें गरिया दें या कमेन्ट दे दें


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सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कारसेवा

5 दिसम्बर 1992 , बाबरी विध्वंस से ठीक एक दिन पहले लखनऊ मैं हुई एक सभा जिसमे अटल बिहारी वाजपेयी जी ने लोगों को संबोधित किया ।
इस वीडियो मैं किसी भी और बात के आलावा धयान देने योग्य अटल जी का यौवन है ।
आज से 17 वर्ष पहले इस घटना को आप सभी जानते हैं आइये एक-एक कर इन वीडियो पर नज़र डालें ।



प्रथम भाग




द्वितीय भाग

तृतीय भाग





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वरूण को हटाना भाजपा की नैतिक जिम्मेदारी

लंबी जांच प्रक्रिया के बाद आखिरकार चुनाव आयोग ने भड़काउ भाषण देने के लिए वरूण गांधी को दोषी ठहरा हीदिया है। साथ ही भाजपा को यह सलाह भी दे डाली कि वह पीलीभीत से वरूण गांधी को उम्मीदवार न बनाए। इससलाह के बाद एक राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते भाजपा की यह नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है कि वह पीलीभीत सेअपना उम्मीदवार बदल दे। सभी राजनैतिक दल भी अपने-अपने बयान जारी कर भाजपा पर यह दवाब बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
वरूण गांधी पर मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप है और वरूण गांधी ने यह कहते हुए इनआरोपों को बेबुनियाद बताया था कि उनके वीडियो के साथ छेड़छाड़ की गई है। लेकिन जब चुनाव आयोग ने वरूणको यह साबित करने को कहा तो वे इसमें नाकाम रहे। मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी भी कह चुके हैं किवीडियो के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। भारत के चुनावी इतिहास में संभवतः यह पहला मौका है जब आयोगने किसी पार्टी को ऐसी सलाह दी हो।
चुनाव के दौरान मतदाताओं को इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए राजनेता इस तरह के हथकंडे अपनाते रहे हैं।कईयों को तो दोषी भी करार दिया गया और कुछ किसी तरह गोलमोल कर बच निकलने में सफल हो गए। लेकिनमामला यहां तक नहीं पहुंचा था।
भारतीय राजनीति के लगातार गिरते स्तर का यह एक अच्छा खासा उदाहरण है। इस घटनाक्रम के बाद भाजपा केपार्टी विद डिफरेंस की छवि एक बार फिर उजागर हुई है लेकिन इस बार भी किसी तरह की आड़ी-तिरछीबयानबाजी कर वह अपना पलड़ा झाड़कर इस प्रकरण से मुक्त होने की कोशिश करेगी।
यदि आपने ये वीडियो पहले नही देखा हो तो अब देख लें । एडिटेड है ,
भगवान बचाए ऐसे नेताओं से

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