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मीडिया की भूमिका कर्तव्य और भटकाव


आईआरएस के 2007 के आंकड़े बताते हैं कि मीडिया केवल अपना बाजार देखता है। आखिर कौन सी वजह है कि आजादी के 60 वर्ष बाद तक महिला जनसंख्या तक मीडिया की पहुंच काफी कम रही है। इसके कारण चाहे जो भी हो लेकिन इसे शुभ संकेत नहीं माना जा सकता क्योंकि लोकतंत्र में लिंग असमानता का कोई प्रश्न ही नहीं खड़ा होता। फिर मीडिया की यह प्रवृत्ति संविधान के खिलाफ भी है।
आखिर क्या हो भारतीय लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका
  • लोकतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार तो देता है लेकिन इस व्यवस्था में अधिकार के साथ-साथ कर्तव्य भी चलतेरहते हैं। लोकतंत्र अधिकार और कर्तव्य में असंतुलन की इजाजत नहीं देता। फिर मीडिया पर तो लोकतंत्र कीपहरेदारी का भी जिम्मा है, जिससे उसे इस गंभीर दायित्व से मुहं नहीं मोड़ना होगा।
  • मीडिया को मार्शल मैक्लूहान की बात "मीडियम इज मैसेज" हमेशा याद रखनी चाहिए क्योंकि इससे लोकतंत्र मेंसार्थक सूचना व संचार क्रांति आ सकती है।
  • मीडिया को खुद जज बनने की प्रवृत्ति से बचना होगा, क्योंकि लोकतंत्र में न्याय के लिए न्यायपालिका का प्रावधानहै न कि खबरपालिका का। आरूषि हत्याकांड से सबक लेने की भी जरूरत है।
  • लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था, शिक्षा, चिकित्सा, तकनीकी विकास और सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना जागृतकरने में मीडिया को आगे आना होगा।
  • दलित, महिला एवं ग्रामीण विकास से मुंह फेरने की प्रवुत्ति से मीडिया को बचने की आवश्यकता है
  • राष्ट्र की एकता व अखंडता तथा मानवाधिकार के मुद्दों को स्थान देना होगा।
  • भारतीय जीवन मूल्य व लोक संस्कृति को प्रवाहमान बनाए रखने की भूमिका का भी मीडिया को निर्वहन करनाहोगा।
  • पर्यावरणीय चेतना जागृत करने और बहुसंख्यक समाज के सरोकारों को तवज्जो देना होगा मीडिया को।
  • समाज के यथार्थ को यथावत प्रस्तुत करना, जो कि मीडिया का मूल धर्म है।
  • विकास के मुद्दों को उभारना और सकारात्मक ख़बरें छापना।
  • आम आदमी की आवाज बनना और सबसे बड़ी भूमिका यह निभानी होगी जिससे भारत का लोकतंत्र मजबूत हो, सबको भागीदारी मिले और मीडिया के धर्म पर कभी सवाल न उठे।

भारतीय लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में संचार माध्यमों की भूमिका शायद कह देने से तय नहीं होने वाली। हमारे देश का मीडिया आज भी जो काम कर रहा है वह अन्य क्षेत्रों से बेहतर है। लेकिन इससे संतोष नहीं किया जा सकता क्योंकि भारतीय संदर्भ में लोकतंत्र के इस चौथे खंभे ने अपनी भूमिका से देश की आजादी में योगदान से लेकर तमाम ऐसे कार्य किए हैं जिस पर खबरपालिका गर्व कर सकती है। लेकिन मीडिया का रूझान हाल के वषोZं में जिस तरह से बदला है उस पर उसे स्वयं विचार करना होगा।
मीडिया को हम केवल लताड़ दें, इससे बात नहीं बनने वाली। हालांकि मीडिया को अब जनसामान्य की उन चिंताओं के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है जो मीडिया की प्राथमिकताओं के खिलाफ विकसित हो रही है। मीडिया को अपनी कार्यप्रणाली पर सोचने की जरूरत है कि कैसे वह अब समाज की आवाज बन सके।
हालांकि बिना बाजार के मीडिया चल भी नहीं सकता, लेकिन उसे ध्यान रखना होगा कि वह लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करे। लोकहित के लक्ष्य को प्रधानता देते हुए समाज के संपूर्ण तबके पर उसे नजर रखनी होगी। क्योंकि जिसे देश की मीडिया राष्ट्रीय संस्था की तरह पनपी और काम करती रही हो वहां वह सिर्फ बाजार की एजेंट नहीं हो सकती। अर्थात मीडिया को स्वमेव अपनी भूमिका पर फिर सोचना होगा।
मीडिया को अब अपने सरोकारों के दायरों को बढ़ाने की जरूरत है। 25 अगस्त 1936 में द बाम्बे क्रॉनिकल में नेहरूके लेख पर मीडिया को पुनर्विचार करने की जरूरत है जिसमे उनने कहा था कि "मैं इस बात का बुरा नहीं मानता कि अखबार अपनी नीति के मुताबिक किसी खास तरह की खबरों को तरजीह दें, लेकिन मैं खबरों को दबाये जाने के खिलाफ हूँ क्योंकि इससे दुनिया की घटनाओं के बारे में सही राय बनाने का एकमात्र साधन जनता से छिन जाता है। " आज जरूरत नेहरू के आशय को समझने की जरूरत है।
कुल मिलाकर वर्तमान में मीडिया की भूमिका पर चिंता जायज है लेकिन हम सभी को मिलकर इसका रास्ता ढूंढना होगा। वरन मीडिया को खुद आगे बढ़कर अपनी भूमिका निर्धारित करनी होगी नहीं तो मीडिया पर नियंत्रण के समर्थन में जो मुहिम चलाई जा रही है, उस खतरनाक संकेत को भांप लेना चाहिए।
हमें स्वीकार करना चाहिए कि भारत जैसे विकासशील देश में मीडिया का दायित्व लोगों को ख़बर पहुंचाना ही नहीं होता है बल्कि उन्हें विश्लेषणात्मक व विवेचनात्मक चेतना से समृद्ध करना भी होता है।
इससे गुरेज नहीं किया जा सकता कि मीडिया पर पूंजी का नियंत्रण बढ़ा है और गरीब की आवाज को बुलंद करने वाले लोकतंत्र का दायरा तेजी से सिमटता चला गया है लेकिन इस दायरा को बढ़ाने का साधन मीडिया ही हो सकता है। खैर हम सकारात्मक दृष्टिकोण से भविष्य में मीडिया की सकारात्मक भूमिका की आशा कर ही सकते हैं क्योंकि बहुत ज्यादा दिन तक सेक्स, फैशन, क्राइम, क्रिकेट नहीं चल सकता। मीडिया का उद्देश्य वैश्विक बाजार खड़े करना है अथवा फिर जनकल्याण के लिए अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना ।
सवाल गंभीर जरूर है लेकिन ऐसे प्रश्नों के उत्तर खोजे जाएंगे, ऐसा विश्वास है। इसी विश्वास के साथ कि मीडिया की भूमिका के साथ-साथ लोकतंत्र के संपूर्ण तत्वों को अपनी भूमिका पर सोचना होगा। अंत में दुष्यंत कुमार की पंक्तियां याद आती हैं-
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
पिछली कड़ी
  1. लोकतंत्र में संचार माध्यमों की भूमिका- शोध पत्र
  2. संचार माध्यम : एक संक्षिप्त परिचय
  3. लोकतंत्र में संचार माध्यमों की भूमिका
  4. समकालीन समाज में मीडिया की भूमिका

सम्पूर्ण आलेख प्रस्तुति रवि शंकर सिंह माखनलाल विश्वविध्यालय भोपाल
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समकालीन समाज में मीडिया की भूमिका

समाजिक चेतना जागृत करने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है मीडिया, जो अपनी प्रभावी प्रस्तुतियों के माध्यम से समाज को सिर्फ दिशा देता है बल्कि उसके दिशा निर्देशों को ध्यान में रखते हुए उसे संचालित भी करता है। समकालीन समाज में मीडिया समाज की अग्रगामिता को आगे बढ़ाने का प्रयास भी कर रहा है। लेकिन सवाल यह है वैश्वीकरण तकनीकी के इस युग में समाज में हो रहे परिवर्तनों को भांपने की उसकी क्षमता कुंद होती जा रही है। आखिर क्यों ? यह सवाल बाजारवादी प्रवृत्ति के मीडिया के लिए कोई मायने भले ही रखता हो लेकिन इससे मीडिया की साख खतरे में पड़नी शुरू हो चुकी है। आज मीडिया उन मूल्यों आदर्शों को तिलांजली देने पर तुला है जिसे आजादी के पहले और उसके बाद के वर्षों में पत्रकारिता की बुनियाद समझा जाता था।
समकालीन समाज में मीडिया क्रिकेट, क्राइम, फैशन शो, बॉलीवुड और रियलिटी शो के भंवर में फंसा हुआ है। कुछ स्टिंग आपरेशन से छुपी हुई सच्चाईयां जरूर निकाल रहा है लेकिन उससे ज्यादा वह स्टिंग के नाम पर मनमानी कर रहा है। उपभोक्तावादी संस्कृति के संरक्षण में पल रहा मीडिया केवल उन्हीं खबरों और मुद्दों पर खुद को केंद्रित कर रहा है जिससे उसे अपने बाजार चलाते रहने की प्रक्रिया बाधित हो।

श्रमिक वंचित तबके के विकास में मीडिया की भूमिका
अगर सरकारी तंत्र के मीडिया को छोड़ दें तो हम पाते हैं कि आज का मीडिया गरीब श्रमिकों की जमीनी परेशानियों पर चंद शब्द लिखने बोलने में भी परहेज करता है। क्योंकि वह जानता है कि इस तरह की ख़बरों का कोई लेनदार नहीं है। पर दर्शक, श्रोता, पाठक और लिए ही वे विज्ञापनदाता जिनके भरोसे मीडिया का बाजार टिका है। इसके वंचित तबकों तक नहीं पहुंचने के कारण भी साफ है कि इनमें सामूहिक शक्ति राजनीतिक शक्ति का अभाव होता है।

हिंसाग्रस्त इलाकों में मीडिया की भूमिका
26 नवंबर 2008 की मुंबई की घटना में आतंकवादी घटना के कवरेज को लेकर पूरी दुनिया में भारत का मीडिया कटघरे में खड़ा हो गया था। खासतौर पर टीवी चैनलों की भूमिका की सर्वत्र निंदा की गई। इस एक घटना के 60 घंटे के लाइव कवरेज ने सेना तथा पुलिस की कठिनाइयां बहुत हद तक बढ़ा दी थी। इससे आम जनता में भी दहशत का माहौल कायम हो गया था।
इसी घटना के प्रकरण में टीवी चैनलों की भूमिका से पता लगने लगा कि अग मीडिया से सरोकार के शब्द लुप्त होते जा रहे हैं। इस घटना में टीवी ने ताज को जितना कवरेज दिया उतना शिवाजी टर्मिनस को नहीं दिया। इसका कारण साफ था कि ताज में बड़े लोग मारे गए थे जो मीडिया के बाजार में उपभोक्ता थे, जबकि शिवाजी टर्मिनस के लोग उसके दायरे में नहीं आते थे।
हालांकि उग्रवाद तथा आतंकवाद प्रभावित इलाके से मीडिया ख़बर जरूर निकाल रहा है लेकिन अपने हिसाब से।
लेकिन सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि मीडिया ने हिंसाग्रस्त इलाकों में आतंकियों की धमकी के बावजूद पत्रकारीय धर्म को निभाया है। उदाहरण के लिए वर्ष 2005 तक कश्मीर में 28 पत्रकारों को शहादत देनी पड़ी है। वर्ष 2006 में असम में उल्फा की धमकी के बाद भी मीडिया ने अपना धर्म निभाया था लेकिन इसमें उनको परेशानियां भी झेलनी पड़ी थीं।
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लोकतंत्र में संचार माध्यमों की भूमिका

रवि शंकर सिंह
आजादी से लेकर आज तक लोकतंत्र के इस सुहाने सफर में संचार माध्यमों की भूमिका तलाशने पर हम पाते हैं कि समय के साथ-साथ इनकी भूमिका भी बदलती रही है। जैसे 1970 तक पत्रकारीय मूल्य मर्यादाएं प्रभावी थी पर उसके बाद व्यावसायिकता का दौर शुरू हुआ और आज तो संचार माध्यमों पर बाजारवादी प्रवृत्तियों का खासा प्रभाव देखा जा सकता है। संचार माध्यमों अर्थात मीडिया की भूमिका को स्पष्ट करने के लिए हमें इसकी कार्यप्रणाली, वर्तमान स्थिति, लोगों तक पहुंच, विषय वस्तु इत्यादि पर भी नजर डालना होगा।
मीडिया की भूमिका का अध्ययन एक दिलचस्प मामला भी इस कारण हो जाता है क्योंकि यह एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें निरंतर परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। हम इसकी भूमिका को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों संदर्भों में दिखा सकते हैं, लेकिन बेहतर होगा कि इसकी सपाट व्याख्या की जाए, ताकि सच का सामना मीडिया स्वमेव कर सके।
विकास योजनाएं : मीडिया की भूमिका
चूंकि भारत एक कल्याणकारी राज्य है और इस नाते वह आम जनता के विकास के लिए तमाम विकास योजनाओं को क्रियान्वित करता है। ये सभी योजनाएं लोगों के प्रगति को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। आजादी से लेकर वर्तमान तक सरकारी एवं गैर सरकारी विकास योजनाओं को जनता तक पहुंचाने तथा उसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित कराने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सवाल शिक्षा का हो अथवा चिकित्सा या अन्य बुनियादी विकास का मीडिया के कारण ही ये जनता तक पहुंच पा रहा है। उदाहरण के लिए आज अगर भारत पोलियो मुक्त देश बनने के कगार पर है तो इसमें मीडिया की जबर्दस्त भूमिका है क्योंकि पोलियो उन्मूलन के लिए लोगों में लोक चेतना जागृत करने का काम मीडिया ने ही किया।

दलितों के उत्थान के संदर्भ में मीडिया की भूमिका
दलितों का प्रश्न देश से तो जुड़ा ही हुआ है, मीडिया से भी जुड़ा है। आजादी के 62 वर्ष बीत जाने पर भी हम देश में आर्थिक-सामाजिक खाई को पाटने में अक्षम रहे। दलितों का प्रश्न हमारे विकास के दावों की पोल खोलने वाला है। मीडिया ने आजादी के बाद लगभग तीन दशक तक इनके प्रश्न व इनकी आवाज को उठाने की मुहिम जरूर शुरू की थी लेकिन कालांतर में मीडिया पर बाजार की पकड़ बनने के बाद दलित समेत सभी कमजोर समूहों को जगह देने में मीडिया को मुश्किल होने लगी। हालांकि दलित तबके में जो भी चेतना जागृत हुई है उसमें मीडिया की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी सही है मीडिया ने जब से ख़बर का उत्पादन करना शुरू किया वैसे-वैसे उत्पादन से दलित प्रश्न व उनसे जुड़े मुद्दे दरकिनार होने लगे। यह दिगर बात है कि मीडिया इस बात को नहीं समझ रहा है कि भारत में सबसे तेजी से दलितों में चेतना जागृत होनी शुरू हुई है।
इसी कारण आज यह बात समझ लेना चाहिए कि भूमंडलीकरण की व्यवस्था में दलित खुद एक सशक्त स्तंभ बनकर उभर रहे हैं।
इसी कारण सिच्चदानंद सिन्हा जैसे चिंतक दलित एवं आदिवासियों के विकास पर बल दे रहे हैं क्योंकि इससे ही भारत की स्थिति मजबूत हो सकेगी।

ग्रामीण विकास में मीडिया की भूमिका
आज के संदर्भ में हम ग्रामीण विकास की बात करें तो स्थिति गंभीर मालूम पड़ती है। हालांकि अब तक ग्रामीण विकास को वर्तमान स्तर तक लाने में मीडिया ने दखल जरूर दी है। लेकिन 1991 के उदारीकरण और फरवरी 2009 में मीडिया में विदेशी निवेश भी छूट के बाद अब स्थिति बदलने की संभावना है और बदली भी है। हालांकि मीडिया में विदेश निवेश 25 जून 2001 को ही अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा मंजूरी दे दी गई थी। इसके बाद से ग्रामीण विकास के मुद्दों को दरकिनार करने की खतरनाक कोशिश की गई जो अब तक बदस्तूर जारी है।
भोपाल में राजबहादुर पाठक स्मृति व्याख्यानमाला में `मीडिया की विफलताएं` विषय पर बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार श्री राम बहादुर राय ने कहा कि आज मीडिया से ग्रामीण मुद्दे और हाशिए के लोग दूर होते जा रहे हैं, जिसके पीछे मुख्य वजह है मीडिया में विदेशी पूंजी की छूट। श्री राय ने ग्रामीण मुद्दों, हाशिए के लोगों और वंचितों की आवाज का विकल्प खोजने के लिए हमें समानांतर मीडिया को विकसित करना होगा।
अगर संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि चाहे अखबार हो अथवा न्यूज चैनल या सिनेमा इनसे ग्रामीण विकास के मुद्दे और गांव गायब होते जा रहे हैं। फिर इनके गायब होते जाने का सिलसिला नया नहीं है। इसका संबंध तत्कालीन भारत में अपनायी गयी विकास की खास पद्धति से भी रहा है, जिसने नगरीकरण को बढ़ावा दिया है और गांव को राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से बाहर फेंक दिया है।

भाषा के विकास में मीडिया की भूमिका
लेकतंत्र को उद्देश्यपूर्ण तथा अनवरत प्रवाहमान बनाए रखने में भाषा की भूमिका खासा महत्व भी होती है। इस लिहाज से हम देखते हैं तो पता चलता है कि मीडिया ने आजादी के बाद नब्बे के दशक तक भाषा की मर्यादा को बनाए रखा। लेकिन इसके बाद मीडिया के सभी घटकों ने प्रतिस्पर्धा के कारण सनसनीखेज और चटकारेदार जिस भाषा को प्रश्रय देना शुरू किया, वह आज चिंता का विषय बनी हुइ्रZ है।
भोपाल में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में `भाषा, संस्कृति व मीडिया` विषय पर श्री रमेश नैयर, प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज, सूर्यप्रकाश दीक्षित, केसी पंत, पुष्पेंद्रपाल सिंह, रमेशचंद्र शाह और प्रभु झिंगरन ने मीडिया में प्रयोंग की जा रही भाषा को लेकर चिंता जाहिर की। यह चिंता वाजिब भी है क्योंकि आज मीडिया से भाषा की तहजीब व तमीज गायब होते जा रहे हैं।
भाषा राष्ट्र के विकास का प्रमुख हथियार होती है लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि भारत का मीडिया आज टीआरपी की होड़ में लोकतांत्रिक मूल्यों को तरजीह नहीं दे रहा है। चूंकि भाषा स्वयं की संस्कृति लेकर चलती है जिससे लोकतंत्र समृद्ध होता है। यह बात मीडिया के जेहन में रखने की होनी चाहिए।

कल हम पढेंगे समकालीन समाज में मीडिया की भूमिका


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संचार माध्यम : एक संक्षिप्त परिचय

संचार माध्यमों से पहले संचार को जानना जरूरी है। संचार शब्द अंग्रेजी के कम्युनिकेशन का हिंदी रूपांतर है जो लैटिन शब्द कम्युनिस से बना है, जिसका अर्थ है सामान्य भागीदारी युक्त सूचना।
चूंकि संचार समाज में ही घटित होता है, अत: हम समाज के परिप्रेक्ष्य से देखें तो पाते हैं कि सामाजिक संबंधों को दिशा देने अथवा निरंतर प्रवाहमान बनाए रखने की प्रक्रिया ही संचार है। संचार समाज के आरंभ से लेकर अब तक के विकास से जुड़ा हुआ है।
परिभाषाएं-
प्रसिद्ध संचारवेत्ता डेनिस मैक्वेल के अनुसार, " एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक अर्थपूर्ण संदेशों का आदान प्रदान है।
डॉ. मरी के मत में, "संचार सामाजिक उपकरण का सामंजस्य है।"
लीगैन्स की शब्दों में, " निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया निरंतर अंतक्रिZया से चलती रहती है और इसमें अनुभवों की साझेदारी होती है।"

राजनीति शास्त्र विचारक लुकिव पाई के विचार में, " सामाजिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण ही संचार है।"
इस प्रकार संचार के संबंध में कह सकते हैं कि इसमें समाज मुख्य केंद्र होता है जहां संचार की प्रक्रिया घटित होती है। संचार की प्रक्रिया को किसी दायरे में बांधा नहीं जा सकता। फिर संचार का लक्ष्य ही होता है- सूचनात्मक, प्रेरणात्मक, शिक्षात्मक मनोरंजनात्मक।

संचार माध्यम से आशय :- संचार माध्यम से आशय है संदेश के प्रवाह में प्रयुक्त किए जाने वाले माध्यम। संचार माध्यमों के विकास के पीछे मुख्य कारण मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना है। वर्तमान समय में संचार माध्यम और समाज में गहरा संबंध एवं निकटता है। इसके द्वारा जन सामान्य की रूचि एवं हितों को स्पष्ट किया जाता है। संचार माध्यमों ने ही सूचना को सर्वसुलभ कराया है। तकनीकी विकास से संचार माध्यम भी विकसित हुए हैं तथा इससे संचार अब ग्लोबल फेनोमेनो बन गया है।
संचार माध्यम अंग्रेजी के "मीडिया"से बना है, जिसका अभिप्राय होता है दो बिंदुओं को जोड़ने वाला। संचार माध्यम ही संप्रेषक और श्रोता को परस्पर जोड़ते हैं। हेराल्ड लॉसवेल के अनुसार, संचार माध्यम के मुख्य कार्य सूचना संग्रह एवं प्रसार, सूचना विश्लेषण, सामाजिक मूल्य एवं ज्ञान का संप्रेषण तथा लोगों का मनोरंजन करना है।
संचार माध्यम का प्रभाव समाज में अनादिकाल से ही रहा है। परंपरागत एवं आधुनिक संचार माध्यम समाज की विकास प्रक्रिया से ही जुड़े हुए हैं। संचार माध्यम का श्रोता अथवा लक्ष्य समूह बिखरा होता है। इसके संदेश भी अस्थिर स्वभाव वाले होते हैं।
फिर संचार माध्यम ही संचार प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाते हैं।


संचार माध्यमों की प्रकृति :- भारत में प्राचीन काल से ही संचार माध्यमों का अस्तित्व रहा है। यह अलग बात है कि उनका रूप अलग-अलग होता था। भारत में संचार सिद्धांत काव्य परपंरा से जुड़ा हुआ है। साधारीकरण और स्थायीभाव संचार सिद्धांत से ही जुड़े हुए हैं। संचार मुख्य रूप से संदेश की प्रकृति पर निर्भर करता है। फिर जहां तक संचार माध्यमों की प्रकृति का सवाल है तो वह संचार के उपयोगकर्ता के साथ-साथ समाज से भी जुड़ा होता है। चूंकि हम यह भी पाते हैं कि संचार माध्यम समाज की भीतर की प्रक्रियाओं को ही उभारते हैं। निवर्तमान शताब्दी में भारत के संचार माध्यमों की प्रकृति चरित्र में बदलाव भी हुए हैं लेकिन प्रेस के चरित्र में मुख्यत: तीन चार गुणात्मक परिवर्तन दिखाई देते हैं।
पहला : शताब्दी के पूर्वाद्ध में इसका चरित्र मूलत: मिशनवादी रहा, वजह थी स्वतंत्रता आंदोलन औपनिवेशिक शासन से मुक्ति। इसके चरित्र के निर्माण में तिलक, गांधी, माखनलाल चतुर्वेदी, विष्णु पराडकर, माधवराव सप्रे जैसे व्यक्तित्व ने योगदान किया था।
दूसरा : 15 अगस्त 1947 के बाद राष्ट्र के एजेंडे पर नई प्राथमिकताओं का उभरना। यहां से राष्ट्र निर्माण काल आरंभ हुआ, और प्रेस भी इसके संस्कारों से प्रभावित हुआ। यह दौर दो दशक तक चला।
तीसरा : सातवें दशक से विशुद्ध व्यावसायिकता की संस्कृति आरंभ हुई। वजह थी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का विस्फोट।
चौथा : अंतिम दो दशकों में प्रेस का आधुनिकीकरण हुआ, क्षेत्रीय प्रेस का एक `शक्ति` के रूप में उभरना और पत्र-पत्रिकाओं से संवेदनशीलता एवं दृष्टि का विलुप्त होना।
इसके इतर आज तो संचार माध्यमों की प्रकृति अस्थायी है। इसके अपने वाजिब कारण भी हैं हालांकि इसके अलावा अन्य मकसद से भी संचार माध्यम बेतुकी ख़बरें सूचनाएं सनसनीखेज तरीके से परोसने लगे हैं।


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