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`सोशल ट्रीटमेंट´का संकल्प लेना होगा

प्रस्तुति-योगेश पांडे





अंतराष्ट्रीय
महिला दिवस पर जगह- जगह संगोष्ठियॉं हो रही है। अखबारों में अग्रलेख छप रहे हैं, पुलआऊट महिला केंद्रित दिख रहे हैं। इन सबमें महिलाओं को समाज के एक उपेक्षित हिस्से के रुप में रेखांकित किया गया है। लेकिन ऐसा करके क्या वाकई हम महिला दिवस की प्रासंगिकता को साकार कर रहे हैं या सिर्फ ....
जो खास सवाल है वो हमें खुद से पूछना होगा। क्या महिला का अस्तित्व एक समाज और व्यक्ति से परे है? ठीक है समाज के कुछ हिस्सों में उसे अन्य हिस्सों की तरह स्वतंत्रता और स्वच्छंदता नहीं है।
मुझे लगता है कि पूरे देश और समाज की यही एक मात्र समस्या है कि हम चीजों और समस्याओं को वर्गीकृत कर देना चाहते हैं। हम ये नहीं देखना चाहते कि यदि कहीं समाज का कोई तबका उपेक्षित या अपने अधिकारों से वंचित है तो ये उस समाज और उस पूरे परिवेश की समस्या है। हमें उस परिवेश पर ध्यान केंद्रीत करना होगा। उस मनोविज्ञान को परखने की कोशिश करनी होगी। दरअसल ऐसा करके हम समस्याओं को टुकड़ों में बॉट देते हैं और फिर हो-हल्ला मचाते हैं कि ये नहीं हो रहा है वो नहीं हो रहा है। समस्याओं को टूकड़ों में बॉंटने की इसी आदत के कारण तो आए दिन हमें अखबारों में ये पढ़ने मिल जाता है कि `दलित महिला का उत्पीडन और आदिवासी महिला का उत्पीडन´ आदि आदि। ये शब्दों का वह भ्रम है जो हमें मूल समस्या के समाधान से और ज्यादा दूर करता जाता है। हमारी दृष्टि को भ्रमजाल में उलझा जाता है। हम ये नहीं तय कर पाते कि इस समस्या की जड़ क्या है? उसका समाधान कैसे हो सकता है? जहॉं तक मुझे लगता है कि बात महिला के अधिकारों की नहीं व्यक्ति के अधिकारों और उसके प्रति संजीदगी की है। हमें महिलाओं की समस्या का समाधान भी उसी स्तर पर खोजना होगा। महिला आरक्षण के मामले में भी वैसा ही है। क्या ये सही नहीं है कि महिला आरक्षण विधेयक पारित न होने के बावजूद भी महिलाएं आज शीर्ष पदों से लेकर पंचायत स्तर में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रही है। जो लोग महिलाओं के पृथक अधिकारों की पैरवी कर रहे हैं वे उस प्रक्रिया से लाभ कमाना चाहते हैं। चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक या आर्थिक , आखिरी में ये कहना ज्यादा बेहतर है कि पहले भी अतीत में मातृसत्तात्मक समाज रहे हैं और मुझे लगता है कि अभी भी 50 फीसदी से ज्यादा घरों में घर के प्रबंधन की जिम्मेदारी महिलाएं ही संभालती है। हमें अपना ध्यान उस परिवेश पर केन्द्रीत करना होगा जहॉं ऐसा नहीं है। गॉंव में तो आज भी महिलाएं जंगल से सिर पर ढोकर लकड़ी लाती है और उसे पास के ही शहर में बेचने जाती है। ऐसा नहीं है कि ग्रामीण और आर्थिक रुप से पिछड़े वर्ग में महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं है। दरअसल जो लोग महिलाओं को आगे नहीं आने देना चाहते वे वह हैं जिन्हें उनके आगे आने से स्वयं का अस्तित्व खतरे में दिखाई पड़ता है। हमें ऐसे लोगों को पहचान कर उनका `सोशल ट्रीटमेंट´ करना होगा। इस प्रक्रिया को किसी एक दिन और दिवस में बॉंधना इस प्रक्रिया की गति को और धीमा करेगा। इस दिन को हमें एक संकल्प दिवस के रुप में स्थापित कर ये संकल्प लेना होगा कि हम पूरे समय सोशल ट्रीटमेंट की अपनी प्रक्रिया को रफ़्तार देते रहेंगे । आत्मुल्यॉंकन करेंगे और पर उपचार करेंगे कि महिलाएं दोयम नहीं, आपके और हमारे अस्तित्व का अनिवार्य और अटूट अंग है। .....