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एक पाठक की टिपण्णी : पोस्ट खंडन : नवाबों की होली सोने की पिचकारी से

10 मार्च 2009 को हमने हमारे मित्र फैज़ान सिद्दीकी का एक लेख भोपाल की नवाबी होली पर प्रकाशित कियाशीर्षक था नवाबों की होली सोने की पिचकारी से इस पोस्ट में नवाबी दौर में किस तरह होली मनाई जाती थी , मुख्यतः नवाब हमीदुल्लाह खान से जुड़ी जानकारी दी गई थी इस पोस्ट के एक हिस्से में लिखा था -


नवाब हमीदुल्ला खान इनके साथ होली मनाने के बाद सीहोर होली मनाने जाया करते थे। जो उस वक्त रियासत का एक हिस्सा हुआ करता था,सीहोर के कई हिस्सों में यहाँ से शुरू हुई परम्परा को आज भी पूरा किया जाता है और दूसरे दिन भी होली मनाई जाती है।



इस पर हमारे एक पाठक फुर्सत ने आपत्ति दर्ज कराई है और अपना पक्ष एक टिपण्णी के मध्यम से रखा है कुछ पुराने लोगों से और सीहोर जिले से जुड़े वरिष्ठ पत्रकारों से बात करने के बाद हमने पाया उनकी दी हुई जानकारी काफी हद तक सही है , इसीलिए उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं हम अपने पाठकों का धन्यवाद करते हैं जो संवाद में विश्वास करते हैं , और अपने विचार इस तरह अग्रेषित करते हैं


यह समझ लें की होली कोई एक दिन का त्यौहार नहीं है बल्कि पूरे 5 दिन का त्‍यौहार तो तिथियों के मान तिथियों के मान से ही है...........

आपकी गलत व भ्रामक जानकारी में सुधार कर लीजिये, नवाब के कारण तो होली संकट में है
नवाब हमीदुल्‍ला को होली का शोक था इसमें हमें इंकार नहीं है, वह सोने की पिचकारियों से होली खेलते थे इससे भी हमें कोई सरोकार नहीं ।
लेकिन नवाब साहब की सरपरस्‍ती कसीदे घड़ने वालों ने जो यह लिख दिया है कि नवाब साहब दूसरे दिन होली खेलने सीहोर जाते थे और आज भी इस कारण सीहोर में दूसरे दिन होली खेलने की परम्‍परा कायम है, वह लोग अपनी इस नाजायज भूल में सुधार कर लें ।
अव्‍वल तो इतिहास लिखने वाले को संस्‍कृति व परम्‍पराओं का भी ज्ञान होना चाहिये लेकिन जो सिर्फ साहब जी हजूरी करने के लिये ही लिख रहा हो उससे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
तथैव – यह समझ लें की होली कोई एक दिन का त्‍यौहार नहीं है बल्कि पूरे 5 दिन का त्‍यौहार तो तिथियों के मान से ही है। यह भी बता देना उचित है कि सीहोर में होली भोपाल से कई गुना ज्‍यादा उत्‍साह, उमंग व अपनी अनेक परम्‍पराओं के साथ मनाई जाती है, इसमें किसी राजा या नवाब की कोई देन नहीं है ।
मूल बात यह है कि सीहोर में ही नहीं बल्कि आसपास क्षेत्रों में पहले दिन गमी की होली मनती है और दूसरे ऐसी शानदार होली मनती है कि वह लोग जिन्‍हे होली खेलने का शोक हो, वह स्‍वयं ही सीहोर खींचे चले आते है.........

होली की यह अतिसामान्‍य जानकारी भी वह कथित इतिहासकार जान लें कि होली की पड़वा एकम को ‘‘गमी’’ की होली रहती है, पूरे देश में ही गमी की होली मनाई जाती है, सीहोर में आज भी पहले दिन गमी की होली पर विभिन्‍न जाति समाज के लोग अपनी-अपनी ‘’गैर’’ निकालते हैं, और उन घरों में जाते हैं जहां बीते वर्ष गमी अर्थात किसी की मृत्‍यु हुई हो ।
हिन्‍दु धर्म में यह परम्‍परा बता देना उचित होगा कि गमी वाले घरों के लिये सारे त्‍यौहार सामान्‍य रहते हैं लेकिन यदि वर्ष के बीच में होली आ जाये तो होली की एकम को जब समाज की गैर गमी वाले घर के लोगों को बाहर निकालकर गम भूल जाने की समझाईश देती तो इस दिन बाद आगामी सारे त्‍यौहार वह परिवार मना सकता है ।
मूल बात यह है कि सीहोर में ही नहीं बल्कि आसपास क्षेत्रों में पहले दिन गमी की होली मनती है और दूसरे ऐसी शानदार होली मनती है कि वह लोग जिन्‍हे होली खेलने का शोक हो, वह स्‍वयं ही सीहोर खींचे चले आते है। सीहोर में पूर्व वर्षों में 5 दिन की होली मनती थी, कथित इतिहासकार सोचे की क्‍या बाकी के 3 दिन क्‍या नवाब की याद में होली मनती होगी।
इसे नोट कर लें – कि अभी 9-10 वर्ष वर्ष 2000 के पूर्व तक सीहोर से लगी हुई आष्‍टा तहसील में तो होली की धूम इतनी जबर्दस्‍त रहती थी कि पूरे 5 दिन तक बाजार बंद रहता था प्रतिदिन होली होती थी, लेकिन अभी 10 वर्ष पूर्व बैठक करके निर्णय लिया गया कि 5 दिन होली शहर के अलग-अलग हिस्‍सों में बांटकर होगी, अब वहां भी जिसे होली पसंद होती है वह पूराने आष्‍टा नगर को छोड़ जहां होली हो रही होती है उस मोहल्‍ले क्षेत्र में चला जाता है, ठीक वैसे ही है जैसे नवाब सीहोर आ जाते थे ।
...मूर्ख इतिहासकारों के कारण आज आम स्‍वाभिमानी सीहोर का नागरिक पारम्‍परिक होली खेलते हुए परेशानी महसूस करता है, उसे चारों और होली के विरोधियों द्वारा यह स्‍वर सुनाई देता है कि नवाब की होली खेल रहे हो.........

यदि नवाब सीहोर में आकर होली खेलता था तो यही कहा जाना चाहिये कि नवाब होली खेलने के शोक में सीहोर में होली खेलने चले जाया करते थे, उनके कारण सीहोर में होली होती यह कहना ना सिर्फ गलत, भ्रामक, असत्‍य है बल्कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ भी है ।
इन्‍ही कथित इतिहासकारों के कारण आज सीहोर में दूसरे दिन की होली संकट के दौर से गुजर रही है, क्‍योंकि यहां पहले दिन गमी की होली का इतना महत्‍व है कि इस दिन सामान्‍य कम लोग होली खेलते हैं लेकिन दूसरे दिन हर हुरियारा सड़क पर होता है, ऐसे में प्रशासन, पुलिस बल हर कोई यह चाहता है कि होली की मस्‍ती कम हो, प्रशासन व पुलिस बल लगातार होली के सप्‍ताह भर पहले से यह कहना शुरु कर देता है कि सीहोर के लोग आज भी नवाब की याद में होली खेल रहे हैं, एक नया सिपाही भी यहां आता है जिसे सीहोर का इतिहास नहीं मालूम हो, वह तक नई उम्र के हुरियारों से कहता है कि नवाब खेलते आते थे इसलिये यहां होली हो रही है, कुछ नये लोग जिन्‍हे होली से घबराहट होती है वह भी खुद को बचाने के लिये कह देते हैं कि हम नवाब की होली क्‍यों खेलें

मूर्ख इतिहासकारों के कारण आज आम स्‍वाभिमानी सीहोर का नागरिक पारम्‍परिक होली खेलते हुए परेशानी महसूस करता है, उसे चारों और होली के विरोधियों द्वारा यह स्‍वर सुनाई देता है कि नवाब की होली खेल रहे हो।
क्षमा प्रार्थना सहित – निवेदन है कि आपके चिट्ठे पर सरपरस्‍ती में लिखा गया उक्‍त लेख व विषय उचित है लेकिन उसमें यह उल्‍लेख किया जाना गलत है कि सीहोर के कई हिस्‍सो मे आज भी वह परम्‍परा निभाई जाती है........ ।

हर घर में होली होती है, और इतनी होती है कि एक बार हिम्‍मत करके आप आकर तो देखिये........ रंगपंचमी पर भी चाहे तो आ सकते हैं । सोने की पिचकारियां भूल जायेंगे.........
अरे आपको मालूम भी नहीं है कि दूसरे दिन सीहोर के हर एक हिस्‍से में, हर घर में होली होती है, और इतनी होती है कि एक बार हिम्‍मत करके आप आकर तो देखिये........रंगपंचमी पर भी चाहे तो आ सकते हैं । सोने की पिचकारियां भूल जायेंगे।

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भोपाल की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ४)


भाई आज बारी है हमारे शहर की होली की ,याने भोपाल की होली ,गंगो जमनी संस्कृति मैं शायद ये रंग होली ने हीघोला हैं। शहर को जानने वाले जानते हैं शहर दो भागों मैं बटा है नया भोपाल पुराना भोपाल ,पुराने भोपाल में कुछज्यादा ही उत्साह से होली मानती है ,यहाँ होली उत्सव पाँच दिन चलता है होली से शुरू होकर यह त्यौहाररंगपंचमी तक पूरे शहर को रंगीन किया करता है होली के दिन शहर के हर गली मुहल्ले मैं होलिका कर निकलपड़ते है हुल्लिआडे होली मानाने हाथों मैं रंगों की थैली ,पुरानी शर्ट और पैंट जिनके लिए वोह आखिरी शाम हीसाबित होती है,जाते हैं अपने दोस्तों के यहाँ , परिवारों मैं चौराहों पर ,जो मिलता है उसे रंग मैं भिडा देना ही इनकीजीत होती है और उल्लास से भर देती है, लाल, कला, हरा, नीला जाने कितने ही रंग घरों की छतों से छोटे बच्चेआने जाने वालों पर पिचकारी,रंगों से भरे फुग्गों से तर करते हैं , पीरगेट(सोमवारा) , चौक, करोंद, सिन्धी कालोनी, जवाहर चौक और अशोका गार्डन में तो विशेष रूप से बड़े बड़े हौद तैयार किए जाते है जहाँ होली से बच रहे लोगों कोपकड़ पकड़ कर नेहलाया जाता है कहा जाता है की भाई आज तो नहा लो,फिर क्या है ! कई जगहों पर भंग कीगुमठियां और भंग की आइसक्रीम के ठेले लग जाते हैं और लोग भांग के नशे में तर और सर पे सवार रंग के नशे केसाथ उतर जाते हैं सड़कों पर ,कुछ तो बेचारे कीचड़ की होली भी खेल लेते हैं अब ढोल तो कम ही सुनाई देते हैंउनकी जगह डी जे कमी को पूरा कर देते हैं गाने होते हैं-'पापी चुलो' ,' देखें जरा ',बीच बीच में 'ये देश है वीरजवानों भी सुनाई देता है' सच मानिए भोपाल में लोगों
को झूमते देखना अपना अलग अनुभव है। शाम बजेतक ये हुरदंग ख़तम हो जाता है और लोग अपने घर लौटकर,गुजिया पपडिया ,खा कर और जो पैर लंबे करते है कीशाम उन्हें उठाने में अपना समय ही बरबाद नही करती शाम होने पर कुछ शान्ति प्रिय युवक निकलते हैं गुलाललेकर और शहर में होली जारी रहरी है
भोपाल में असली होली तो होती है रंग पंचमी पर जब चल समारोह निकलता है ,बाकायदा नगरनिगम के टेंकरपानी के की धार से लगातार समारोह को सराबोर करते हैं,ढोल होते हैं बंद होता है,अरे भाई पूछिए क्या नही होतामहापौर भी होते हैं और बीच बीच में जगह जगह के पार्षद भी। बिना किसी जाती या धर्म के हर एक सिर्फ़ रंगीन हीदीखता रंग ही मेरा रंग ही मेरा इमां नज़र आता हैं ,हजरत आमिर खुसो का कलाम 'आज रंग है री ,माँ रंग है री मोहे पीर पायो ..' ऐसे ही हर कोई यहाँ रंग में खो जाने के बाद ख़ुद को पहचानने की कोशिश करता है और कोई कोई रंग तो सब को भाता ही है ...तो इसी उम्मीद के साथ के आप भी रंगीन हुए होंगे लीजिये प्रस्तुत है ये मस्ती भरा गीत फ़िल्म नवरंग से .





सूरत बदलने के संकल्प के साथ पीपुल्स का आगाज:

पीपुल्स समाचार का आगाज हो चुका है। जन के मन को जीवन बनाने और गण में गुणों की वृद्धि का संकल्प लिए पीपुल्स समाचार राजधानी के पत्रकारिता पटल पर दाखिल हुआ है।

प्रवेशांक में समूह संपादक महेश श्रीवास्तवजी ने दुष्यंत कुमार को उद्धृत करते हुए लिखा है कि हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिए। पहले तीन अंकों के आधार पर कुछ ज्यादा कहना ठीक नहीं होगा। सूरत बदलने की कोशिश की दिशा को समझने के लिए अभी थोड़ा इंतजार करना होगा।

ले आऊट और प्रिंटिंग से अखबार की सूरत जरुर निखर सकती है पर समाज की नहीं। समाज और देश की सूरत बदलने के लिए रिपोर्टिंग को धारदार बनाना होगा। हालॉंकि पाठकों तक अखबार पहुँचाने की रणनीति में पीपुल्स शुरुआती दौर में सफल दिख रहा है। अभी बस इतना ही आगे- देखते हैं कहॉं जय होगी, कहॉं पराजय...

श्रमदान के बहाने हम आए हैं फोटू खिचाने


हमारे भोपाल मैं पिछले कई दिनों से फोटो खिंचाओ महोत्स चल रहा है ,जिसमे लोग बड़े तालाब पर सज-धज के आते हैं फावडा तागादी उठाते हैं,थोडी सी मिटटी उठाते निकलते हैं ,फिर मुस्कुराते हुए फोटू खिचाते हैं और निकल जाते हैं ,ऐसा सिलसिला चल रहा है फोटू खिचाने का रोजाना कई वीभागों के ,स्कूल-कॉलेजों के और स्वयं सेवी संस्थाओं के मॉडल आते हैं ,थोड़ा कैट वाक किया और खड़े हो गए पोस देने अब इन तथाकथित मजदूरों को कैसे समझाएँ की भइया यहाँ फोटो खिंचाओ महोत्सव नही श्रमदान उत्सव चल रहा है हमारे शहर के अखबारों को और तथाकथित न्यूज़ चैनलों को भी चैन नही ,लगे हैं फोटो खीचने और शूटिंग करने मैं ,अरे साहब जितना समय इस काम मैं दे रहे हैं उतना अगर श्रमदान मैं देते तो ज़्यादा सार्थक पत्रकारिता होती रोजाना अख़बारों मैं एक फुल पेज श्रमदान के नाम रहता है अलग अलग नामों के सरोकारों से तालाब सोच रहा होगा की अच्छे लोग हैं एक तो मैं बीमार अवस्था मैं हूँ ऊपर से ये मेरी छाती पर मूंग दल रहे हैं क्या ये सब अनुपम मिश्रा देख रहे हैं , शायद नही वरना उनके कदम यहाँ आने के लिए रुकते नही, कोई उन तक पुकार पहुँचा दे तो कुछ बात बने अभी लिखा ही था की पड़ोस से आवाज़ आई ऐ जी सुनती हो तैयार हो जाओ सन्डे है श्रमदान करने चलना है नै सदी पहन लेना वरना फोटो ठीक नही आएगी
एक सुंदर फोटो

कलकत्ता के प्रसिद्ध छोले भटूरे

कभी भोपाल आयें तो छोले भटूरे ज़रूर खाइएगा , वो भी न्यू मार्केट मैं . अरे ख़ास कुछ नही है,वैसे ही है . भाई आप हर चीज़ मैं खास क्यों ढूँढने लगते हैं . खासियत कई हैं पर वो जगह की हैं ,ये न्यू मार्केट की इकलौती जगह है जहाँ भटूरे खाने के लिए लाइन लगती है ,लोग इस कदर दीवाने है की न्यू मार्केट आकर यहाँ के भटूरे और मिश्रा की जलेबी ज़रूर खाते हैं .हनुमान मन्दिर के पीछे भटूरे की लाइन से तीन दुकाने हैं .पंजाब के छोले भटूरे,दिल्ली के छोले भटूरे,और कलकत्ता के छोले भटूरे .

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क्या कहा भटूरे मैं कुछ काला है ,कलकत्ता मैं भटूरे प्रसिद्ध नही ,हाँ भाई लोचा तो ये ही है .दरअसल पहले दिल्ली फिर पंजाब तो तीसरी दूकान वाले ने सोचा मैं क्यों पीछे रहूँ पुरानी ही सही राजधानी का नाम ही रखूँगा और फिर हम कलकत्ता के हैं तो कलकत्ता क्यों नही . तो भाई ऐसे ही aसहा साहब ने अपनी दुकान का नाम कलकत्ता के छोले रखा . DSC02966

बीते दिनों महंगाई के बड़ते ही हमारे भटूरों के रेट भी बढ़ गए ,दिवाली तक 10 रुपए प्लेट आने वाले भटूरे अब 15 रुपए प्लेट हो गए हैं .हाय री मंहगाई मेरे भटूरों को तो छोड़ देती ! कभी मूड बने तो आएये यारों के साथ शाम को 6 के बाद आप खुश किस्मत होंगे की जाते ही बैठने की जगह मिल जाए .

आप देखिये की किस तरह से भटूरे बनते ,कैसे खाते हैं खाने का तरीका सीखिए फिर ही खाने को मिलेगा .बीते कई सालों से तीन दुकाने जम के धूम मच रही है . और फिर हमारा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसे ही नही है इसलिए कुछ फोटो भी दे रहे हैं लगाइए ..... चटकारे .

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