अधिनायक



इस गणतंत्र दिवस पर मेरे प्रिय कवि रघुवीर सहाय की कविता अधिनायक आप लोगों के लिए
राष्ट्रगीत में भला कौन
वह भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते
हैं नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,
उनकेतमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है






तीस मिनट का वजन कितना होता है...


यह जानकारी क्या रूह को कंपा देने के लिए काफी नहीं है कि देश में औसतन हर तीस मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा है। तीस मिनट कितना समय होता है? लगभग उतना, जितना मैं शायद अक्सर अपने दोस्त से मोबाइल पर बात करने में बिता देता हूं या फिर आफिस की कैंटीन में चाय पीते हुए... वो तीस मिनट जिसमें एक किसान आत्महत्या कर लेता है या फिर उसके आसपास के कुछ और मिनट, कितने भारी होते होंगे उस एक शख्स के लिए। क्या उस समय उसके दिमाग पर पड़ रहे बोझ के वजन को मापने के लिए कोई पैमाना है?
मौत के बारे में आंकड़ों में बात करना चीजों को थोड़ा आसान कर देता है। जैसे हैती में भूकंप से लाखों मरे, मुंबई हमले में 218 या फिर देश में 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्या की। ऐसा लगता है यह किसी प्लाज्मा टीवी के निहायत किफायती माडल की कीमत है 16196 रुपये मात्र। दरअसल यह अश्लील आंकड़ा भी अखबार के उसी पन्ने पर छपा है जिसमें गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर सोनी के लैपटाप पर 12000 रुपये की छूट का विज्ञापन है। ये अखबार वालों को क्या होता जा रहा है?
किसी को ऐसा भी लग सकता है कि चलो देश की आबादी तो डेढ़ अरब पहुंच रही है 16000 मर भी गए तो क्या फर्क पड़ता है। छुट्टी करो यार.
आंकड़ों से थोड़ा और खेला जाए, हूं... लीजिए जनाब 1997 से अब तक देश में तकरीबन 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके। बिलकुल ठीक ठीक गिनें तो 199,132 । 2 लाख यह संख्या किस जुबानी मुहावरे के करीब है???? हां याद आया 2 लाख यानी टाटा की दो लखटकिया कारें। अकेले महाराष्ट्र में बीते 12 सालों में सर्वाधिक 41,404 किसानों ने आत्महत्या की है यह तो संख्या तो एक हीरोहोंडा स्प्लेंडर मोटरसाइकिल की कीमत से भी कम है। क्या यार ??? इन किसानों को हुआ क्या है कोई समझाओ भाई!
(आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो और हिन्दू में प्रकाशित पी साईनाथ के लेख से)T





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जोर्ज फोर्म्बी (George Formby)

जोर्ज फोर्म्बी (George Formby)(26 May 1904 – 6 March 1961) को देखना और सुनना एक सुखद अनुभूति और बेहतरीन अनुभव है, और उनके बारे में जानना और भी अच्छा है, इंग्लॅण्ड में पैदा हुए है इस कलाकार को अक्सर बेन्जोलेले ,बेन्जोनुमा यंत्र बजाते, हलके फुल्के मजाकिया गाने गाते , लोगों को हंसते सुनाने वाले के रूप में याद किया जाता है 1920-30 के दशक में उनका संगीत अपने चरम पर था। और बाकी आज जिन लोगों ने उन्हें नहीं सुना है, उनके लिए मौका है यू-ट्यूब पर
ये संगीत दरअसल मुझे बुर्ज दुबई के एक विडियो से देखने को मिला, जिज्ञासा जगी तो जोर्ज फोर्म्बी साहब के बारे में कुछ जानने कि इक्षा हुई,और सही बता रहा हूँ अभी तो दिल बस खिड़कियाँ ही साफ़ कर रहा है.और कुछ करने को कर ही नहीं रहा है, तो यहाँ में आपको छोड़े जा रहा हूँ, उन्ही के कुछ चल चित्रों के सहारे , ज़रूर देखिए। मै क्या करूँगा, जी आज ही सारे के सारे उपलब्ध चल चित्र देख डालूँगा
George Formby - When i'm cleaning windows


George Formby plays his ukulele banjo.



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आमिरनुमा कबाब हिरानी भाई की दुकान में


भारतीय सिनेमा की पहली बोलती फिल्म "राजा हरिशचंद्र" से लेकर रेंचो तक के सिनेमाई सफ़र में नायक हमेशा आम आदमी पर हावी रहा है. इसे आम आदमी की मज़बूरी कहें या बाज़ार का सच, कहना मुश्किल है। हालिया रिलीज़ " थ्री इडियट्स " में निर्देशक राजकुमार हिरानी ने व्यवस्था पर चोट करते हुए बताया है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में कितनी खामियां है और किस तरह सृजनशील दिमाग रटने वाली मशीन में तब्दील होते जा रहे हैं। कहानी दिल्ली में इंजीयनियरिंग की पढाई करने वाले दोस्तों को लेकर बुनी गई है, मगर फ्रेम में ज्यादातर समय रेंचो ही छाए रहते हैं, अन्य दो किरदारों में शरमन जोशी और आर माधवन के लिए कुछ खास करने को नहीं था। दोनों हर समय रेंचो के इर्द गिर्द मंडराते रहते हैं अब सवाल यह है जब की बाज़ार के साथ पूरी व्यवस्था आम आदमी के खिलाफ हो वहां सिनेमा से ये उम्मीद तो जगाई ही जा सकती है की वो आम आदमी को ख़ारिज नहीं करेगा, मगर अफ़सोस आज भी हर किसी को नायक की तलाश है उसे कोई राम, कोई गाँधी और कोई नेहरू चाहिए जो उसकी आवाज उठाए, वरना स्वयं कभी नही जागने वाला है। यह फिल्म भी कुछ इस तरह ही है की रेंचो में दम है बाकी सब पानी कम है।
इस फिल्म को हम राजकुमार हिरानी की कहने के बजाय इसे आमिरनुमा कबाब कहें, जो की हिरानी भाई की दूकान में बेचा जा रहा है तो कोई गलत नहीं होगा। फिल्म में शिक्षा व्यवस्था से जुड़े सवालों को तो उठाया गया है मगर पात्रों को जिस नाटकीयता के साथ पेश किया गया है उससे सवालों की तीव्रता बेहद कम रही। अब जब की हर प्रोडक्ट को व्यक्ति के सपनों से जोड़कर बेचा जा रहा है, उसी तरह फिल्म में भी काल्पनिकता की चाशनी इतनी मीठी थी की आम आदमी जो की ५० रु किलो की शक्कर नहीं खरीद पता है उसके लिए बेमानी साबित होगी। कालेज के प्रिंसपल की भूमिका में बोमन इरानी भी पहले वाला कमाल नहीं दिखा पाए।
इन तमाम बातों से इत्तर देखें तो फिल्म कई अर्थों में सार्थक भी रही है जब की नायक कहता है की हमे कामयाबी पर नहीं, काबिलियत पर ध्यान देना चाहिए। वर्त्तमान समय में हर तरफ कामयाबी की लिए भागता हुआ इंसान अगर आमिर के इस प्रयास को देख आपनी रफ़्तार को कुछ कम कर ले तो फिल्म काफी हद तक सफल हो सकती है। जैसा की बाज़ार ने नया फार्मूला बनाया है की प्रोडक्ट की साथ भावनाओं का इस्तेमाल करें। वैसा ही आमिर का फ़ॉर्मूला है, फोर्मुले के साथ सामाजिकता को जोड़ दो तो आल इज वेल हो जाता है, पर असल यथार्थ में देखें तो ऐसी फ़िल्में आदमी को प्रोत्साहित करने के बजाय कमज़ोर बनाती हैं की वो किसी ओर के प्रयासों पर निर्भर रहे। ज़रूरत आज आम आदमी के सामूहिक नायकत्व प्रभावों की है जिससे पूंजी ओर ज्ञान का विकेंद्रीकरण संभव हो सके। संगीत के लिहाज़ से गानों का कम्पोजीशन भी बहुत हद तक फ़ॉर्मूला बेस्ड ही रहा जिसमे एक गाना नायक का गुणगान करता है एक गाना " जाने नहीं देंगे" कुछ हद तक अँधेरे में बैठे दर्शकों की आँखे नम करने में सफल रहा . जुबी -डूबी पहले ही लोगों की जुबान पर चढ़ चुका था। करीना कपूर ने पुनः "जब वि मेट " वाला रूप दर्शकों दिखा मगर वो पूरी फिल्म में शो-पीस ही साबित हुई। अंत में बस इतना ही कह सकते हैं की इस नक्कारखाने में "थ्री इडियट्स " की गूंज सुनाई जरूर देगी ऐसी हम आशा कर सकते हैं।

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