आमिरनुमा कबाब हिरानी भाई की दुकान में


भारतीय सिनेमा की पहली बोलती फिल्म "राजा हरिशचंद्र" से लेकर रेंचो तक के सिनेमाई सफ़र में नायक हमेशा आम आदमी पर हावी रहा है. इसे आम आदमी की मज़बूरी कहें या बाज़ार का सच, कहना मुश्किल है। हालिया रिलीज़ " थ्री इडियट्स " में निर्देशक राजकुमार हिरानी ने व्यवस्था पर चोट करते हुए बताया है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में कितनी खामियां है और किस तरह सृजनशील दिमाग रटने वाली मशीन में तब्दील होते जा रहे हैं। कहानी दिल्ली में इंजीयनियरिंग की पढाई करने वाले दोस्तों को लेकर बुनी गई है, मगर फ्रेम में ज्यादातर समय रेंचो ही छाए रहते हैं, अन्य दो किरदारों में शरमन जोशी और आर माधवन के लिए कुछ खास करने को नहीं था। दोनों हर समय रेंचो के इर्द गिर्द मंडराते रहते हैं अब सवाल यह है जब की बाज़ार के साथ पूरी व्यवस्था आम आदमी के खिलाफ हो वहां सिनेमा से ये उम्मीद तो जगाई ही जा सकती है की वो आम आदमी को ख़ारिज नहीं करेगा, मगर अफ़सोस आज भी हर किसी को नायक की तलाश है उसे कोई राम, कोई गाँधी और कोई नेहरू चाहिए जो उसकी आवाज उठाए, वरना स्वयं कभी नही जागने वाला है। यह फिल्म भी कुछ इस तरह ही है की रेंचो में दम है बाकी सब पानी कम है।
इस फिल्म को हम राजकुमार हिरानी की कहने के बजाय इसे आमिरनुमा कबाब कहें, जो की हिरानी भाई की दूकान में बेचा जा रहा है तो कोई गलत नहीं होगा। फिल्म में शिक्षा व्यवस्था से जुड़े सवालों को तो उठाया गया है मगर पात्रों को जिस नाटकीयता के साथ पेश किया गया है उससे सवालों की तीव्रता बेहद कम रही। अब जब की हर प्रोडक्ट को व्यक्ति के सपनों से जोड़कर बेचा जा रहा है, उसी तरह फिल्म में भी काल्पनिकता की चाशनी इतनी मीठी थी की आम आदमी जो की ५० रु किलो की शक्कर नहीं खरीद पता है उसके लिए बेमानी साबित होगी। कालेज के प्रिंसपल की भूमिका में बोमन इरानी भी पहले वाला कमाल नहीं दिखा पाए।
इन तमाम बातों से इत्तर देखें तो फिल्म कई अर्थों में सार्थक भी रही है जब की नायक कहता है की हमे कामयाबी पर नहीं, काबिलियत पर ध्यान देना चाहिए। वर्त्तमान समय में हर तरफ कामयाबी की लिए भागता हुआ इंसान अगर आमिर के इस प्रयास को देख आपनी रफ़्तार को कुछ कम कर ले तो फिल्म काफी हद तक सफल हो सकती है। जैसा की बाज़ार ने नया फार्मूला बनाया है की प्रोडक्ट की साथ भावनाओं का इस्तेमाल करें। वैसा ही आमिर का फ़ॉर्मूला है, फोर्मुले के साथ सामाजिकता को जोड़ दो तो आल इज वेल हो जाता है, पर असल यथार्थ में देखें तो ऐसी फ़िल्में आदमी को प्रोत्साहित करने के बजाय कमज़ोर बनाती हैं की वो किसी ओर के प्रयासों पर निर्भर रहे। ज़रूरत आज आम आदमी के सामूहिक नायकत्व प्रभावों की है जिससे पूंजी ओर ज्ञान का विकेंद्रीकरण संभव हो सके। संगीत के लिहाज़ से गानों का कम्पोजीशन भी बहुत हद तक फ़ॉर्मूला बेस्ड ही रहा जिसमे एक गाना नायक का गुणगान करता है एक गाना " जाने नहीं देंगे" कुछ हद तक अँधेरे में बैठे दर्शकों की आँखे नम करने में सफल रहा . जुबी -डूबी पहले ही लोगों की जुबान पर चढ़ चुका था। करीना कपूर ने पुनः "जब वि मेट " वाला रूप दर्शकों दिखा मगर वो पूरी फिल्म में शो-पीस ही साबित हुई। अंत में बस इतना ही कह सकते हैं की इस नक्कारखाने में "थ्री इडियट्स " की गूंज सुनाई जरूर देगी ऐसी हम आशा कर सकते हैं।

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5 comments:

  1. बहुत सुंदर लगा आप का यह लेख

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  2. दूसरा पहलू ! शानदार आलेख ! आभार ।

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  3. आपका आलेख रोचक है, काश के हमारी फिल्म इन्द्रस्ती भी कामयाब फिल्मों कि बजे काबिल फिल्मे बनाना शुरू कर दे '
    भाषा शैली अच्छी लगी
    दिल से मुबारकबाद

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  4. nakkarkhane se aapka kya aashay hai mahoday???

    aisa lag raha hai ki aap film dekhne kuch purvagrahon ke sath gaye the...ya kuch alag likhne ke chakkar me ye sab likha hai...

    berhaal aapka lekh umda hai...badhai. lekin mujhe 3idiot ki alochna pasand nahi aayi.

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  5. लज़ीज़ लिखा है आपने अच्छा गुंथा है शब्दों को पढने बाद फिल्म कम और उसमे तुम्हारा द्रष्टिकोण ज्यादा प्रभावित कर रहा है, उम्दा

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