हिंदी कविता- गीत अगीत कौन सुंदर है

https://youtu.be/ctcxv9Co6XI

रामधारी सिंह दिनकर की रचना

गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
गाकर गीत विरह की तटिनी
वेगवती बहती जाती है,
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है।
तट पर एक गुलाब सोचता,
"देते स्‍वर यदि मुझे विधाता,
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता।"
गा-गाकर बह रही निर्झरी,
पाटल मूक खड़ा तट पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते पर छाया देती।
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती।
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर।
किंतु, शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते स्‍नेह में सनकर।
गूँज रहा शुक का स्‍वर वन में,
फूला मग्‍न शुकी का पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्‍हा गाता है,
पहला स्‍वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है,
'हुई न क्‍यों मैं कड़ी गीत की
बिधना', यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत, अगीत, कौन सुन्‍दर है?

ठिठुरता हुआ गणतंत्र - हरिशंकर परसाई

ठिठुरता हुआ गणतंत्र 

स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है।
स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है।

मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है-’घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जाएँगे।

लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। पर कुछ लोग कहते हैं-’गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं-’ऐसा कहने वाले दल प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं ।’

https://youtu.be/c3752FVqzqU

-हरीशंकर परसाई

अमीर खुसरो- बसंत


बसंत होता ही है नया, और अपने गुरु के साथ जो बसंत मानाने को मिल जाए तो फिर बात ही क्या, सुनिए ये ऑडियो ब्लॉग :-


हाथ लागी-लागी नई धूप,
दीखे, धुली साफ मन की चदरिया
दसों दिशा आज सांवरिया
लिए नया रूप..


आज बसंत मनाले सुहागन - 
अज बसंत मनाले सुहागन, 
आज बसंत मनाले; 
अंजन मन कर पिया मोरी, 
लम्बे नेहर लगाये; 
तू क्या सोवे नीन्द की मासी, 
सो जागे तेरी बात, सुहागुन, 
आज बसंत मनाले; 
ऊँची नार के ऊँचे चितवन, 
आयसो दियो है बानाये; 
शाह-ए आमिर तोहे दीखन को, 
नैनन कह नैना मिलै, सुहागुन, आज बसंत मन लाये।



सकल बन फूल रही सरसों
बन बन फूल रही सरसों
अम्बवा फूटे टेसू फूले
कोयल बोले डार-डार
और गोरी करत सिंगार
मलनियाँ गढवा ले आईं कर सों
सकल बन फूल रही सरसों
तरह तरह के फूल खिलाए
ले गढवा हाथन में आए
निजामुद्दीन के दरवज्जे पर
आवन कह गए आशिक़ रंग
और बीत गए बरसों
सकल बन फूल रही सरसों

वैसे तो इस गीत को कई कलाकारों ने अपने अपने तरीके से  गाया है , मैं आपको यहाँ छोड़े जा रहा हूँ सारा रज़ा की इस  प्रस्तुति के साथ