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एक पाठक की टिपण्णी : पोस्ट खंडन : नवाबों की होली सोने की पिचकारी से

10 मार्च 2009 को हमने हमारे मित्र फैज़ान सिद्दीकी का एक लेख भोपाल की नवाबी होली पर प्रकाशित कियाशीर्षक था नवाबों की होली सोने की पिचकारी से इस पोस्ट में नवाबी दौर में किस तरह होली मनाई जाती थी , मुख्यतः नवाब हमीदुल्लाह खान से जुड़ी जानकारी दी गई थी इस पोस्ट के एक हिस्से में लिखा था -


नवाब हमीदुल्ला खान इनके साथ होली मनाने के बाद सीहोर होली मनाने जाया करते थे। जो उस वक्त रियासत का एक हिस्सा हुआ करता था,सीहोर के कई हिस्सों में यहाँ से शुरू हुई परम्परा को आज भी पूरा किया जाता है और दूसरे दिन भी होली मनाई जाती है।



इस पर हमारे एक पाठक फुर्सत ने आपत्ति दर्ज कराई है और अपना पक्ष एक टिपण्णी के मध्यम से रखा है कुछ पुराने लोगों से और सीहोर जिले से जुड़े वरिष्ठ पत्रकारों से बात करने के बाद हमने पाया उनकी दी हुई जानकारी काफी हद तक सही है , इसीलिए उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं हम अपने पाठकों का धन्यवाद करते हैं जो संवाद में विश्वास करते हैं , और अपने विचार इस तरह अग्रेषित करते हैं


यह समझ लें की होली कोई एक दिन का त्यौहार नहीं है बल्कि पूरे 5 दिन का त्‍यौहार तो तिथियों के मान तिथियों के मान से ही है...........

आपकी गलत व भ्रामक जानकारी में सुधार कर लीजिये, नवाब के कारण तो होली संकट में है
नवाब हमीदुल्‍ला को होली का शोक था इसमें हमें इंकार नहीं है, वह सोने की पिचकारियों से होली खेलते थे इससे भी हमें कोई सरोकार नहीं ।
लेकिन नवाब साहब की सरपरस्‍ती कसीदे घड़ने वालों ने जो यह लिख दिया है कि नवाब साहब दूसरे दिन होली खेलने सीहोर जाते थे और आज भी इस कारण सीहोर में दूसरे दिन होली खेलने की परम्‍परा कायम है, वह लोग अपनी इस नाजायज भूल में सुधार कर लें ।
अव्‍वल तो इतिहास लिखने वाले को संस्‍कृति व परम्‍पराओं का भी ज्ञान होना चाहिये लेकिन जो सिर्फ साहब जी हजूरी करने के लिये ही लिख रहा हो उससे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
तथैव – यह समझ लें की होली कोई एक दिन का त्‍यौहार नहीं है बल्कि पूरे 5 दिन का त्‍यौहार तो तिथियों के मान से ही है। यह भी बता देना उचित है कि सीहोर में होली भोपाल से कई गुना ज्‍यादा उत्‍साह, उमंग व अपनी अनेक परम्‍पराओं के साथ मनाई जाती है, इसमें किसी राजा या नवाब की कोई देन नहीं है ।
मूल बात यह है कि सीहोर में ही नहीं बल्कि आसपास क्षेत्रों में पहले दिन गमी की होली मनती है और दूसरे ऐसी शानदार होली मनती है कि वह लोग जिन्‍हे होली खेलने का शोक हो, वह स्‍वयं ही सीहोर खींचे चले आते है.........

होली की यह अतिसामान्‍य जानकारी भी वह कथित इतिहासकार जान लें कि होली की पड़वा एकम को ‘‘गमी’’ की होली रहती है, पूरे देश में ही गमी की होली मनाई जाती है, सीहोर में आज भी पहले दिन गमी की होली पर विभिन्‍न जाति समाज के लोग अपनी-अपनी ‘’गैर’’ निकालते हैं, और उन घरों में जाते हैं जहां बीते वर्ष गमी अर्थात किसी की मृत्‍यु हुई हो ।
हिन्‍दु धर्म में यह परम्‍परा बता देना उचित होगा कि गमी वाले घरों के लिये सारे त्‍यौहार सामान्‍य रहते हैं लेकिन यदि वर्ष के बीच में होली आ जाये तो होली की एकम को जब समाज की गैर गमी वाले घर के लोगों को बाहर निकालकर गम भूल जाने की समझाईश देती तो इस दिन बाद आगामी सारे त्‍यौहार वह परिवार मना सकता है ।
मूल बात यह है कि सीहोर में ही नहीं बल्कि आसपास क्षेत्रों में पहले दिन गमी की होली मनती है और दूसरे ऐसी शानदार होली मनती है कि वह लोग जिन्‍हे होली खेलने का शोक हो, वह स्‍वयं ही सीहोर खींचे चले आते है। सीहोर में पूर्व वर्षों में 5 दिन की होली मनती थी, कथित इतिहासकार सोचे की क्‍या बाकी के 3 दिन क्‍या नवाब की याद में होली मनती होगी।
इसे नोट कर लें – कि अभी 9-10 वर्ष वर्ष 2000 के पूर्व तक सीहोर से लगी हुई आष्‍टा तहसील में तो होली की धूम इतनी जबर्दस्‍त रहती थी कि पूरे 5 दिन तक बाजार बंद रहता था प्रतिदिन होली होती थी, लेकिन अभी 10 वर्ष पूर्व बैठक करके निर्णय लिया गया कि 5 दिन होली शहर के अलग-अलग हिस्‍सों में बांटकर होगी, अब वहां भी जिसे होली पसंद होती है वह पूराने आष्‍टा नगर को छोड़ जहां होली हो रही होती है उस मोहल्‍ले क्षेत्र में चला जाता है, ठीक वैसे ही है जैसे नवाब सीहोर आ जाते थे ।
...मूर्ख इतिहासकारों के कारण आज आम स्‍वाभिमानी सीहोर का नागरिक पारम्‍परिक होली खेलते हुए परेशानी महसूस करता है, उसे चारों और होली के विरोधियों द्वारा यह स्‍वर सुनाई देता है कि नवाब की होली खेल रहे हो.........

यदि नवाब सीहोर में आकर होली खेलता था तो यही कहा जाना चाहिये कि नवाब होली खेलने के शोक में सीहोर में होली खेलने चले जाया करते थे, उनके कारण सीहोर में होली होती यह कहना ना सिर्फ गलत, भ्रामक, असत्‍य है बल्कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ भी है ।
इन्‍ही कथित इतिहासकारों के कारण आज सीहोर में दूसरे दिन की होली संकट के दौर से गुजर रही है, क्‍योंकि यहां पहले दिन गमी की होली का इतना महत्‍व है कि इस दिन सामान्‍य कम लोग होली खेलते हैं लेकिन दूसरे दिन हर हुरियारा सड़क पर होता है, ऐसे में प्रशासन, पुलिस बल हर कोई यह चाहता है कि होली की मस्‍ती कम हो, प्रशासन व पुलिस बल लगातार होली के सप्‍ताह भर पहले से यह कहना शुरु कर देता है कि सीहोर के लोग आज भी नवाब की याद में होली खेल रहे हैं, एक नया सिपाही भी यहां आता है जिसे सीहोर का इतिहास नहीं मालूम हो, वह तक नई उम्र के हुरियारों से कहता है कि नवाब खेलते आते थे इसलिये यहां होली हो रही है, कुछ नये लोग जिन्‍हे होली से घबराहट होती है वह भी खुद को बचाने के लिये कह देते हैं कि हम नवाब की होली क्‍यों खेलें

मूर्ख इतिहासकारों के कारण आज आम स्‍वाभिमानी सीहोर का नागरिक पारम्‍परिक होली खेलते हुए परेशानी महसूस करता है, उसे चारों और होली के विरोधियों द्वारा यह स्‍वर सुनाई देता है कि नवाब की होली खेल रहे हो।
क्षमा प्रार्थना सहित – निवेदन है कि आपके चिट्ठे पर सरपरस्‍ती में लिखा गया उक्‍त लेख व विषय उचित है लेकिन उसमें यह उल्‍लेख किया जाना गलत है कि सीहोर के कई हिस्‍सो मे आज भी वह परम्‍परा निभाई जाती है........ ।

हर घर में होली होती है, और इतनी होती है कि एक बार हिम्‍मत करके आप आकर तो देखिये........ रंगपंचमी पर भी चाहे तो आ सकते हैं । सोने की पिचकारियां भूल जायेंगे.........
अरे आपको मालूम भी नहीं है कि दूसरे दिन सीहोर के हर एक हिस्‍से में, हर घर में होली होती है, और इतनी होती है कि एक बार हिम्‍मत करके आप आकर तो देखिये........रंगपंचमी पर भी चाहे तो आ सकते हैं । सोने की पिचकारियां भूल जायेंगे।

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होली पर बढ़ती हुडदंग और चिंता की फ्रिक्वेंसी


हिन्दुस्तान के कुछेक इलाकों की होली के बारे में जानकर कम से कम इतना कहने की स्थिति में तो हैं कि होली एक विशिष्ट पर्व है, रागद्वेष से मुक्त होकर उल्लास और उमंग में डूब जाने का। लेकिन जब हम खुद के भीतर झॉंकते हैं तो पाते हैं कि बदलते दौर के साथ हमने वो सब खो दिया है जिसके मायने हम खोजते रहते हैं। सब कुछ बदल गया है। इतना बदल गया है कि थोड़ी बहुत कोशिश से हम उस स्थिति को फिर वापस नहीं पा सकते। अब तो होली आई तो चंदे के नाम पर हत्या, शराब के नशे में दुर्घटना और ऐसी ही दर्ज़नों खबरों से अखबार रंगे रहते हैं। क्या वाकई मस्ती के इस पर्व में हमें इतना मस्त होने की जरुरत है कि अपनी सुधबुध ही खो जाएं। अभी बीते चार दिनों से भोपाल में होली की तैयारियों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ । होली क्या आई। पुलिस के लिए तो जैसे आफत आ गई। पुलिस महकमा हर दिन बैठकें कर होली पर सांप्रदायिक सदभाव बिगड़ने से रोकने की कोशिशों में जुटा हुआ है। ईदमिलादुन्नबी का जुलूस क्या निकला राजधानी की सड़कें छावनी में तब्दील हो गई। पुलिस का भय है कि इसी दिन रात में होलिका दहन है। स्थिति बिगड़ सकती है। दरअसल ऊपर लिखी पूरी बात को मैं यहॉं सम्बद्ध करना चाहता हूँ कि दो धर्मों के परस्पर त्यौहार किसी स्थिति बिगड़ने का प्रतीक कैसे बने। हमने ऐसा क्या कर दिया कि अब प्रशासन को इस बात की चिंता करनी पड़ रही है कि स्थिति बिगड़ सकती है। इसके लिए हमें खुद के भीतर झॉंकना होगा। हमने चीजों के मायने खो दिए हैं। चीजों को अपनी सुविधा के लिहाज से डायवर्ट कर दिया है। हमें लगा कि मस्ती बिना शराब की नहीं हो सकती। बिना हुडदंग के नहीं हो सकती। बिना जबरदस्ती किए होली का मजा फीका पड़ जाएगा। जब किसी पर्व पर इतने लांछन हो तो जाहिर सी बात है कि उसमें उमंग और उल्लास की फ्रिक्वेंसी कम और हुडदंग और चिंता की फ्रिक्वेंसी ज्यादा होगी।विराम...(श्रृंखला रंग बरसे आप झूमें )
होलिका दहन के साथ ही कलम और संगीत की जुगलबंदी की यह होली अब खत्म हुई। इस श्रृंखला में हमने हर दिन एक नई होली देखी और होली से पहले होली के उमंग का अहसास किया। हमारा प्रयास आपको कैसा लगा, इसमें कहॉं कमी रही और आगे हम कैसे बेहतर कर सकते हैं। अपने सुझावों से अवगत कराएं तो सही मायने में हमारा प्रयास अपनी परिणति की ओर पहला कदम साबित होगा। आप सभी को होली की शुभकामनाओं के साथ सरपरस्त .....

नवाबों की होली सोने की पिचकारी से

प्रस्तुति -फैजान सिद्दीकी

भोपाल गंगा जमुनी तहजीब का शहर है, यहाँ सभी धर्मों के त्यौहार मिलजुल कर मनाने की रिवायत रही है। इस परम्परा की शुरूआत नवाबी दौर से हुई। रंगों और उल्लास के पर्व होली को मनाने का इतिहास भी शहर में अनौखा रहा है। नवाब शाहजहां बेगम के शासन काल में ताजमहल में बने सावन-भादों में जाफरानी रंगों से होली खेली जाती थी। होली पर बड़े औहदेदारों को रियासत की ओर से सोने की पिचकारियां होली खेलने के लिए भेंट की जाती थीं।taj mahal bhopal
नवाब शाहजहाँ बेगम का निवास ताजमहल में हुआ करता था। महल में हर वर्ष हुलियारों की महफिल जमती थी। रियासत के औहदेदार और आम लोग ताजमहल के प्रांगढ़ में बने खूबसूरत चौकोर फव्वारों जिन्हें सांवन-भादों कहा जाता है, में जमा होते थे। यहाँ चांदी के कटोरों में जाफरान (कैसर) व केवड़े के मिश्रण से बने रंग से होली खेली जाती थी। शाहजहां बेगम खुद इस जश्न में शामिल होती थी। उनके द्वारा रियासत के खास लोगों को सोने से बनी पिचकारियां होली खेलने के लिए दी जाती थीं।
बाद में भी रहा यह सिलसिला जारी
नवाब शाहजहां बेगम के बाद होली मनाये जाने का सिलसिला बाद के नवाबों दौर में भी जारी रहा। इतिहासकारों के मुताबिक नवाब हमीदुल्ला खान के कोहेफिजा स्थित महल कस्र-ए-सुल्तानी में होली के दूसरे दिन होली मनाने का कार्यक्रम आयोजित किया जाता था।
इसमें भोपाल रियासत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अवद नारायण बिसारिया, नवाबी खानदान के फेमिली ज्वेलर्स मदनलाल अग्रवाल व घड़ी साज(घड़ियां सुधाने वाले) गुलास राय सहित शाही परिवार से जुड़ी शहर की विभिन्न हस्तियाँ शामिल होती थीं। नवाब हमीदुल्ला खान इनके साथ होली मनाने के बाद सीहोर होली मनाने जाया करते थे। जो उस वक्त रियासत का एक हिस्सा हुआ करता था,सीहोर के कई हिस्सों में यहाँ से शुरू हुई परम्परा को आज भी पूरा किया जाता है और दूसरे दिन भी होली मनाई जाती है।


रियासतकाल में होली मनाने की अनोखी परम्परा थी। पहले ताजमहल में और बाद में अहमदाबाद पैलेस में होली मनाई जाती थी। इसमें धर्मो के लोग धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर होली खेला करते थे। सोने की पिचकारियों से होली खेलने की परम्परा भोपाल के अलावा ओर कहीं नहीं मिलती।

एसएम हुसैन आर्किटेक्ट और नवाबी परिवार से संबंधित
ताजमहल के सावन-भादों में होली मनाई जाती थी। सावन-भादों के अंदर तांबे की नलकियों से पानी इस तरह बहता था जैसे सावन की झड़ी लगी है। इस माहौल में होली खेलने का अपना अलग ही महत्व होता था।
सैयद अख्तर हुसैन, द रायल जनी आफ भोपाल के लेखक

आर के से बिग बी तक सभी तर हैं रंगों से

ब्लॉग जगत मैं जम के होली की धूम है ,और हमारी श्रंखला भी चल ही रही है वादे के अनुसार रोजाना हम हाजिर होही जाते हैं कुछ कुछ लेके, वो क्या है हमारा एक सपना है रंगों से भरा ,रंग खुशियों के ,रंग संतुष्टि के ,और रंगसुफिआना कुदरत के और अगर एक ही दिन में रुक जाते तो शायद बात बनती या सिर्फ़ बधाई दे देते तो भी बात बनतीतो फ़िर क्या था हम जुट गए कुछ जानकारी जुटाने मैं ,बरसाने ,कुमाऊ, राजिस्थान, बंगाल, हरियाणा और पंजाब , भोपाल ,कुछ पुराने सन्दर्भ और बनारस की होली बताने के बाद आज हम बिग बी के घर जा पहुंचे हैं ,रास्ता बीबीसीने बताया हैये आलेख यहाँ इसलिए दे रहे हैं क्योंकि कोई साल पहले की बीबीसी की खबरें कोई नही पढता .हम तो भाई तर हैं रंग से उम्मीद है आप भी सँभालने की कोशिश नही कर रहे होंगे । रोज़ की तरह एक मधुर गीत भी लगा है पोस्ट में ।
<span title=अमिताभ बच्चन
अमिताभ बच्चन के बंगले प्रतीक्षा में होता है अब होली का आयोजन
एक ज़माना था जब फ़िल्म जगत की होली राज कपूर के आरके स्टूडियो की होली से पहचानी जाती थी.

लेकिन ज़माना बदला और आरके स्टूडियो की रौनक ख़त्म हो गई अब बिग बी का ज़माना है और फ़िल्मी दुनिया की होली का रंग जमता है अमिताभ बच्चन के बंगले 'प्रतीक्षा' में.

पहले कहा जाता था कि जिस हीरो-हीरोइन ने आरके स्टूडियो में होली नहीं खेली उसने क्या होली खेली.

बीते ज़माने के किसी भी कलाकार से होली की बात करें तो उसके ज़हन में आरके की होली ही नज़र आती है.

पृथ्वीराज से राजकपूर तक

पृथ्वी थियेटर्स के सारे कलाकार मिलकर राग-रंग का उत्सव मनाया करते थे और आस-पास के फ़िल्मी गैर-फ़िल्मी कलाकार, बिन बुलाए जुट जाया करते थे
शशि कपूर

इन्हीं यादों के गलियारे से गुज़रते हुए शशि कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के समय मनाई जाने वाली होली के बारे में बताते हैं- "पृथ्वी थियेटर्स के सारे कलाकार मिलकर राग-रंग का उत्सव मनाया करते थे और आस-पास के फ़िल्मी गैर-फ़िल्मी कलाकार, बिन बुलाए जुट जाया करते थे."

अबीर गुलाल लगाने के बीच पृथ्वी थियेटर्स के लोग मेहमानों को पूरी-भाजी परोसते थे और होली का दिन रंग के साथ नाच-गाने से सराबोर हो उठता था.

पृथ्वीराज कपूर की इसी परंपरा को राज कपूर ने आरके स्टूडियो के निर्माण के साथ संस्थागत रूप दे दिया. 1952 के आसपास जब फ़िल्म 'आह' और आरके स्टूडियो दोनों मुकम्मिल हुए तो शशि कपूर की उम्र मात्र 14 साल थी मगर आरके की होली और मस्ती भरी हुड़दंग उन्हें बखूबी याद है.

एक बड़े टैंक में रंग और दूसरी तरफ भंग मेहमानों के स्वागत के लिए तैयार किए जाते थे. और हर आने वाले को उन दोनों से सराबोर किया जाता था.

<span title=राजकपूर और वैजयन्ती बाला माली"
फ़िल्मों में साथ काम करने वाली सभी हीरोइनें आरके स्टूडियो में उपस्थित होती थीं

फ़िल्म उद्योग से जुड़ी लगभग सभी छोटी-बड़ी हस्तियाँ आरके की होली में शरीक होती थीं. मशहूर नृत्यांगना सितारा देवी का नृत्य तो इस होली की ख़ासियत थी ही मगर शैलेन्द्र के गीतों और शंकर जयकिशन के संगीत से समाँ बंध जाया करता था.

इस महफिल में खान-पान की जिम्मेदारी नरगिस पर होती थी. वैजंतीमाला और सितारा देवी की एक नृत्य जुगलबंदी की याद शशि कपूर ख़ास तौर पर करते हैं. इस अनूठे और मस्तीभरे प्रयोग से उस साल की होली का मज़ा कई गुना हो गया था.

आने वाले सालों में आरके की होली ख़ुद अपनी पहचान बन गई और इंडस्ट्री के साथ-साथ देश को भी इसका इंतजार रहने लगा.इस साल पता नही क्या होगा

बदलते रंग

1970 के आस-पास फ़िल्म इंडस्ट्री बुरे दौर से गुज़र रही थी और आरके में भी ‘मेरा नाम जोकर’ के पिट जाने से मायूसी थी, मगर सन् 74 के आते-आते बॉबी की सिल्वर जुवली से खुशियों के रंग फिर लौट लाए और इस साल फ़िल्म जगत ने आरके की होली में अपनी बदहाली से उबरने का जश्न भी मनाया.

आरके की होली जहाँ फ़िल्म इंडस्ट्री की मस्ती और रिश्तों की गर्माहट का आईना हुआ करती थी वहीं प्रतीक्षा की होली ‘पेज थ्री’ की होली होती है जो रिश्तों के लिए कम और अपने मीडिया कवरेज के लिए ज़्यादा जानी जाती है

शशि कपूर की पत्नि जेनिफर कपूर भी होली में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करती थीं. शशि कपूर को याद है कि राज कपूर की पीढ़ी के लोगों के अलावा कई पीढ़ी के उभरते कलाकार भी आरके की होली में जोर-शोर से शामिल होते थे.

दरअसल आरके की होली फ़िल्मी लोगों के लिए एक ऐसा पड़ाव भी जहाँ वो सालभर के काम के बाद मस्ती भरी तरावट पा जाते थे.

राज कपूर की बीमारी और निधन के साथ इस होली का रंग फीका पड़ता गया और आरके की मशहूर होली इतिहास हो गई.

‘प्रतीक्षा’ की होली

आरके की होली के बंद होने के कुछ बरसों बाद तक एक तरह का शून्य रहा.

<span title=अमिताभ बच्चन"
राज कपूर की विरासत को अमिताभ बच्चन आगे बढ़ा रहे हैं

फिर अमिताभ बच्चन ने सामूहिक रूप से मिल-बैठने की परंपरा को अपने ढंग से ‘प्रतीक्षा’ में निबाहने की कोशिश शुरु की.

धीरे-धीरे ‘प्रतीक्षा’ की होली का रंग जम गया.

अब तो अक्षय कुमार से लेकर एश्वर्या राय तक शहर में मौजूद हर हस्ती ‘प्रतीक्षा’ की होली के लिए प्रतीक्षारत रहती है.

मगर जहाँ लोग पुराने शिकवे शिकायत भूल रंग और नरंग में डूबने कम और जान पहचान के साथ रिश्तों के नए समीकरण बिठाने ज़्यादा आते हैं.

लेकिन दोनों होली में एक मूलभूत अंतर नज़र आता है शायद बदलते ज़माने के प्रतीक स्वरुप या फिर शोमैन राजकपूर और बिग बी की अलग जीवनदृष्टि के कारण.

आरके की होली जहाँ फ़िल्म इंडस्ट्री की मस्ती और रिश्तों की गर्माहट का आईना हुआ करती थी वहीं प्रतीक्षा की होली ‘पेज थ्री’ की होली होती है जो रिश्तों के लिए कम और अपने मीडिया कवरेज के लिए ज़्यादा जानी जाती है.

क्या कहते हैं लोग

‘कलकत्ता’ और ‘चमेली’ के निर्देशक सुधीर मिश्रा को होली से प्यार है वो कहते हैं कि होली ही एकमात्र त्योहार है जिसमें पूरी इंडस्ट्री तहे दिल से मिलती और मस्ती में खिलती है.

सुधीर की होली अपने दोस्त केतन मेहता और नसीरुद्दीन शाह को रंगने से शुरू होती है और फिर उनका कारवाँ निकल पड़ता है, इंडस्ट्री के बड़े-छोटों को अपने रंग में रंगने. इस सफ़र में अमिताभ बच्चन का घर भी आता है और जुहू बीच भी, जहाँ आम मुंबइया अपनी होली मनाने जुटता है.

सुधीर के लिए शालीनता से मनाई जाने वाली होली ऐसा त्यौहार है जिसकी मस्ती में डूबकर बीते दिनों की कड़ुवाहट घुल जाती है.

<span title=अमिताभ और रेखा सिलसिला में"
फ़िल्मों में भी होली का ग़ज़ब का रंग रहा है: सिलसिला में अमिताभ बच्चन और रेखा (फ़ोटो-यशराज फ़िल्म्स)

ज़रूरत और व्यस्तता के चलते फ़िल्म जगत का एक वर्ग होली काम करते हुए ही मनाता है.

‘लगान’ और ‘गंगाजल’ के चर्चित अभिनेता यशपाल शर्मा पिछले दो सालों से अपनी होली निर्देशक प्रकाश झा के साथ शूटिंग करते हुए मना रहे हैं.

वे कहते हैं कि काम की अपनी तरंग होती है और होली का रंग तो काम पर भी छलक ही जाता है मगर बेफ़िक्री से खुलकर होली मनाने का मज़ा ही कुछ और है.

इंडस्ट्री के दोस्तों के बीच मनाई जाने वाली बंबई की होली को यशपाल ‘मिस’ करते हैं.

जलवा और चालबाज़ के ख्यातिनाम निर्देशक पंकज पराशर इन दिनों अपनी नई फ़िल्म ‘बनारस’ की शूटिंग में व्यस्त हैं. इस साल तो अपनी होली बनारस में मनाने जा रहे हैं और बनारस की ख़ास होली का रंग पूरी तरह जश्न करने के लिए उन्होंने होली के दिन छुट्टी रखी है ताकि अपनी यूनिट के साथ शिव की नगरी “वाराणसी” में जमकर होली की हुड़दंग की जा सके.

मगर मुंबई की होली भी उन्हें कम प्यारी नहीं है और वे अपने अपने मित्र अमिताभ के घर ‘प्रतीक्षा’ में मनाई जाने वाली होली को याद करते हैं.प्रस्तुति सहयोग सधन्यवाद बीबीसी आज ये मधुर गीत फ़िल्म धनवान से है ,बहुत ही अच्छा संदेश देता है ,होली के कुछ तर खोलता है और रंग घोलता है .

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पंजाब का होला मोहल्ला और हरियाणा की धुलन्डी

उत्सवों का अड्डा और रंगों की पनाहगाह पंजाब,हर मायने में भारत की विविधता का प्रतिक है उत्सव हो और शोर शराबा न हो भला ऐसा हो सकता है !

आज हम आप को लिए चलते हैं पंजाब के एक मोहल्ले में और हरियाणा की धुलन्डी में बशर्ते आप झूमेंगे।
हाँ और जाने से पहले गीत जरूर सुनियेगा


पंजाब का होला मोहल्ला


पंजाब मे भी इस त्योहार की बहुत धूम रहती है। सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री अनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है।

सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है।कहते है गुरु गोबिन्द सिंह(सिक्खों के दसवें गुरु) ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी।तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में सिख शौर्यता के हथियारों का प्रदर्शन और वीरत के करतब दिखाए जाते हैं। इस दिन यहाँ पर अनन्दपुर साहिब की सजावट की जाती है और विशाल लंगर का आयोजन किया जाता है।

कभी आपको मौका मिले तो देखियेगा जरुर।

हरियाणा की धुलन्डी

हरियाणा मे होली के त्योहार मे भाभियों को इस दिन पूरी छूट रहती है कि वे अपने देवरों को साल भर सताने का दण्ड दें।इस दिन भाभियां देवरों को तरह तरह से सताती है और देवर बेचारे चुपचाप झेलते है, क्योंकि इस दिन तो भाभियों का दिन होता है।

शाम को देवर अपनी प्यारी भाभी के लिये उपहार लाता है इस तरह इस त्योहार को मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति मे यही तो अच्छी बात है, हम प्रकृति को हर रुप मे पूजते है और हमारे यहाँ हर रिश्ते नाते के लिये अलग अलग त्योहार हैं।

ऐसा और कहाँ मिलता है।

और फिर सुनिए ये हरयान्वी होली गीत ,नया ही है, आनंद लीजिये
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कृष्ण-राधा से लेकर अकबर-जोधाबाई तक(रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ९)

होली तब भी ,होली अब भी ,होली का कोई सानी नही,होली का त्यौहार अगर साल मैं दो बार आता तो भी शायद लोग उतने ही मजे से मानते पर भाई अब दिक्कत पानी की है ,जब आप कार धोते समय, दाडी बनते समय,अपने हरे बगीचे को तेज़ धुप मैं सींचते समय ,और बे फिजूल मैं अपने नलकूप से पानी निकलते समय उसका ध्यान नही रखते तो वो भला आपको होली क्यों खेलने दे, और जनाब अब तो बात सूखी होली से तिलक होली तक गई है ,एक अखबार ने सही विषय उठाया है इस साल ? छोटे शहरों मैं अब भी होली मैं विशेष बाज़ार लगते हैं ,जहाँ गुलाल,रंग और पिचकारी की जम की बिक्री होती है ,कुछ बेरोजगार कुछ दिन तो चैन से रोटी खा ही लेते हैं , पर अब जब पिचकारी नही होगा तो पिचकारी कैसे चलाओगे,कभी फुर्सत मिले तो सोचें और पानी थोड़ा बचैएँ ,अब बात ही कर रहे हैं तो कहूँगा की हिन्दी फ़िल्म जगत के एक प्रसिद्ध वाक्य का शायद अस्तित्व ही नही होता 'होली कब है,होली कब है '--- "श्रीमान गब्बर "-फ़िल्म शोले
होली की इस श्रृंखला का आज नौंवां दिन है ,कुछ एतिहासिक द्रश्य दिखाना चाहते हैं .
कृष्ण-राधा से लेकर अकबर-जोधाबाई

<span title=कृष्ण राधा की होली">
मिथक से लेकर इतिहास तक होली का ज़िक्र रंग और मस्ती के त्यौहार के रुप में होता है
होली कृष्ण की राधा और गोपियों के साथ हो या अकबर की जोधाबाई के साथ या फिर सिनेमा के रुपहले पर्दे पर खेली जाने वाली होली हो.

हर समय काल में होली का रंग और उसकी मस्ती एक जैसी होती आई है.

बाजों और नगाड़ों के बीच रंग और गुलाल की छटा के बीच हुड़दंग और चुहलबाज़ियाँ.

प्रहलाद और होलिका के प्रसंग को छोड़ दें तो मिथक में भी होली के फागुन की मस्ती में सराबोर उदाहरण ही मिलते हैं.

कृष्ण की राधा के साथ आय की जो तस्वीरें चित्रकारों ने कल्पना से बनाई हैं वो देखते ही बनती हैं.

फिर वो चाहे रंग शताब्दी ही ओंगे की पेंटिंग हो या फिर मेवाड़ तक चित्रकला या फिर बूंदी, कांगड़ा और मधुबनी शैली का चित्र हो कृष्ण और गोपियों की होली के चित्र कलाकारों की पसंद रहे हैं.

मुगलों की होली

सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के क़िस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं.

अकबर का जोधाबाई के साथ रंग खेलना अपने आपमें उस समाज की कई कहानियाँ कहता है.

अकबर के बाद जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का ज़िक्र मिलता है.

शाहजहाँ के ज़माने तक तो होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था.

इतिहास में दर्ज है टी शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था या आब-ए-पाशी यानी रंगों की बौछार कहा जाता था.

आख़िरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र तो होली के दीवाने ही थे.

उनके लिखे होली के फाग आज भी गाए जाते हैं.

''क्यों मो पे मारी रंग की पिचकारी, देखो कुँअर जी दूंगी गारी'' लिखने वाले बहादुर शाह जफ़र के बारे में मशहूर है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे.

मेवाड़ की चित्रकारी में दर्ज़ है कि महाराणा प्रताप अपने दरबारियों के साथ मगन होकर होली खेला करते थे.

राजस्थान के किलों और महलों में खेले जाने वाली होली के रंग तो पूरी दुनिया में मशहूर रहे हैं. वरना बिल क्लिंटन की बिटिया अमरीकी राष्ट्रपति का आवास छोड़कर होली ?

प्रस्तुति सहयोग बीबीसी हिन्दी.कॉम

आज झूमने के लिए ये मधुर गीत छोडे जा रहे हैं .और नजीर अकबरावादी की एक नज़्म भी 'जब फागुन रंग चमकते हों "

'जब फागुन रंग चमकते हों "

ये मस्ती भरा गीत

कुमाऊँ की बैठक होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ८)

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होली में गाना-बजाना न हो तो फिर बचा ही क्या...
रंगों के मचलते अरमान आज फ़िर कागज़ पे आ गए हैं और हम आपके लिए कुमाऊं की होली लेकर एक बार फिर हाज़िर हैं । जय हो महाकाल की।
उत्तरांचल के कुमाऊं मंडल की सरोवर नगरी नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में तो नियत तिथि से काफी पहले ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं.

इस रंग में सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है.

बरसाने की होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है.

यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है. राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी साथ लाईं. ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं
गिरीश गिर्दा

फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है.

शाम ढलते ही कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है. बैठक होली घर की बैठक में राग रागनियों के इर्द गिर्द हारमोनियम तबले पर गाई जाती है.

“.....रंग डारी दियो हो अलबेलिन में...
......गए रामाचंद्रन रंग लेने को गए....
......गए लछमन रंग लेने को गए......
......रंग डारी दियो हो सीतादेहिमें....
......रंग डारी दियो हो बहुरानिन में....”

यहां की बैठ होली में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायरों का कलाम भी प्रमुखता से देखने को मिलता है.
“....जब फागुन रंग झमकते हों....
.....तब देख बहारें होली की.....
.....घुंघरू के तार खनकते हों....
.....तब देख बहारें होली की......”

बैठकी होली में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है.

होली की ये रिवायत महज़ महफिल नहीं है बल्कि एक संस्कार भी है.

ये भी कम दिलचस्प नहीं कि जब होली की ये बैठकें खत्म होती हैं-आर्शीवाद के साथ. और आखिर में गायी जाती है ये ठुमरी…..
“मुबारक हो मंजरी फूलों भरी......ऐसी होली खेले जनाब अली..... ”

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महिलाओं की टोलियाँ भी रंग जमा देती हैं

बैठ होली की पुरूष महफिलों में जहां ठुमरी और खमाज गाये जाते हैं वहीं अलग से महिलाओं की महफिलें भी जमती हैं.

इनमें उनका नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं.

इनके ज्यादातर गीत देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े रहते हैं जैसे... फागुन में बुढवा देवर लागे.......

होली गाने की ये परंपरा सिर्फ कुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है.

इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हुई इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है. कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठ होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहराई से अध्ययन किया है.

वो कहते हैं कि “यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है. राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी साथ लाईं. ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं. यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ भरे पड़े हैं ।” हमारी कोशीश कैसी लगी टिपण्णी कर ज़रूरबताएंकुमोनी होली पर हमें एक काकेश.कॉम का पोडकास्ट भी मिलाहै ,सादा है पर सुंदरहै. इश्वर आपकी होली सुखद और मंगलमय बनाये

राजस्थान में तमाशे के ज़रिए होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ७)



सचमुच कितना अच्छा होता जो हर किसी के जीवन मैं रंग ही रंग होते,सब को सुख और शान्ति हासिल होती ,आज रंग तो सिर्फ़ ड्राइंग रूम की सीनरी तक ही सीमित होकर रह गए हैं,आप समझ सकते हैं कि ड्राइंग रूम किनके घरों में होते हैं ,खैर जिनके सरों पे छत नहीं उन्हें भी रंगों भी रंगों कि समझ है तो फिर ये खाइयाँ क्यों हैं । इश्वर हम सब को ऐसे रंग में रंग दे कि सारा जहाँ एक रंग में दीखे
आज हम इस श्रंखला के सातवें रंग कि बात करेंगे ,जयपुर कि तमाशा होली का रंग । तो लीजिये आनंद गुलाबी नगरी जयपुर कि होली का .

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तमाशे के ज़रिए होली
जयपुर में होली के अवसर पर पारंपरिक तमाशा अब भी होता है लेकिन ढाई सौ साल पुरानी इस विधा को देखने के लिए अब उतने दर्शक नहीं आते जितने पहले आते थे.

पर कलाकारों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है.

तमाशे में किसी नुक्कड़ नाटक की शैली में मंच सज्जा के साथ कलाकार आते हैं और अपने पारंपरिक हुनर का प्रदर्शन करते हैं.

तमाशा की विषय वस्तु पौराणिक कहानियों और चरित्रों के इर्दगिर्द तो घूमती ही है लेकिन इन चरित्रों के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर भी चुटकी ली जाती है.

कभी राजा-महाराजा और सेठ साहूकार ख़ुद इस तमाशे को देखने आया करते थे.

लेकिन अब राजनीति में रमे देश के नीति निर्माताओं को समय नहीं है ऐसे आयोजनों को देखने का.

तमाशा शैली के वयोवृद्ध कलाकार गोपी जी मल तो इस बात से ही ख़ुश हैं कि उनकी यह विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी अभी चली आ रही है.

वे याद करते हुए बताते हैं कि रियासत काल में जयपुर के राजा मान सिंह ख़ुद कलाकारों का मनोबल बढ़ाने के लिए तमाशा देखने आते थे . मल परिवार की छठी पीढ़ी अपने पुरखों की इस परंपरा को जारी रखे हुए है.

परंपरा

तमाशा एक ऐसी विधा है जिसमें शास्त्रीय संगीत, अभिनय और नृत्य सभी कुछ होता है.

तमाशा सम-सामयिक राजनीति पर टिप्पणी करता है .

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होली के मौक़े पर तमाशा

तमाशा कलाकार जगदीश मल कहते हैं, "राजनीति और तमाशे में ज़्यादा अंतर नहीं है. आज के दौर में भला कौन तमाशा नहीं करता."

तमाशा के गीतों में छाए 'फील गुड' फैक्टर के बारे में कलाकार विशाल मल कहते हैं कि चुनावों से पहले यकायक हर बार ऐसा ही 'फील गुड' पैक्टर आता है.

"हम बतौर कलाकार लोगों को सच्चाई से अवगत कराने की कोशिश करते हैं."

तमाशा के गीतों और संवादों में इस साल भारत उदय से लेकर भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच जैसे विषयों पर भी कटाक्ष किया जा रहा है.

आमतौर पर तमाशा हीर-राँझा और पौराणिक पात्रों के ज़रिए अपना बात कहता है.

इसमें राग जौनपुरी और दरबारी जैसे शास्त्रीय गायन शैलियों को भी शामिल किया जाता है.

इसके आयोजन का ख़र्च मल परिवार के सदस्य ख़ुद वहन करते हैं.

जयपुर के इस पारंपरिक तमाशे पर अब पहले जैसी भीड़ नहीं उमड़ती. अब तो रथ यात्रा, रोड शो, रैली और चुनावी राजनीति के मंच पर नित नए नाटक हो रहे हैं.

ऐसे में कौन देखेगा इन कलाकारों के तमाशे को क्योंकि राजनीति तो ख़ुद ही एक 'तमाशा' बन गई है।

आज सुनिए ये मधुर गीत शोभा मुद्गल कि आवाज़ में ,राज्यस्थान कि माटी कि सुगंध यहाँ से साफ़ पता चलेगी ।

प्रस्तुति सहयोग-बीबीसीहिन्दी.कॉम




बंगाल की होली यानि दोल उत्सव(रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ६)


होली का उत्सव हो और बंगाल को भूल जायें ऐसा कैसे सम्भव है अंग्रेजी मैं जो रोयलनेस कहा जाता है उसका आभास वहीं से ज्यादा बेहतर होता है बंगाल मैं होली को दोल उत्सव कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, वो बाक़ी देश कल सोचता है. कम से कम एक त्यौहार होली के मामले में भी यही कहावत चरितार्थ होती है.
यहाँ देश के बाक़ी हिस्सों के मुक़ाबले, एक दिन पहले ही होली मना ली जाती है .
राज्य में इस त्यौहार कोदोल उत्सवके नाम से जाना जाता है

इस दिन महिलाएँ लाल किनारी वाली सफ़ेद साड़ी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात-फेरी (सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं.

इसमें गाजे-बाजे के साथ, कीर्तन और गीत गाए जाते हैं.

दोल शब्द का मतलब झूला होता है. झूले पर राधा-कृष्ण की मूर्ति रख कर महिलाएँ भक्ति गीत गाती हैं और उनकी पूजा करती हैं.

इस दिन अबीर और रंगों से होली खेली जाती है, हालांकि समय के साथ यहाँ होली मनाने का तरीक़ा भी बदला है.

बंगाल की होली मैं अब पहले जैसी बात नहीं रही. पहले यह दोल उत्सव एक सप्ताह तक चलता था.






पहले जैसी बात नहीं रही. इस मौक़े पर ज़मीदारों की हवेलियों के सिंहद्वार आम लोगों के लिए खोल दिये जाते थे. उन हवेलियों में राधा-कृष्ण का मंदिर होता था. वहाँ पूजा-अर्चना और भोज चलता रहता था.





इस मौक़े पर ज़मीदारों की हवेलियों के सिंहद्वार आम लोगों के लिए खोल दिये जाते थे. उन हवेलियों में राधा-कृष्ण का मंदिर होता था. वहाँ पूजा-अर्चना और भोज चलता रहता था.


देश के बाक़ी हिस्सों की तरह, कोलकाता में भी दोल उत्सव के दिन नाना प्रकार के पकवान बनते हैं.

इनमें पारंपरिक मिठाई संदेश और रसगुल्ला के अलावा, नारियल से बनी चीज़ों की प्रधानता होती है.

अब एकल परिवारों की तादाद बढ़ने से होली का स्वरूप कुछ बदला ज़रूर है, लेकिन इस दोल उत्सव में अब भी वही मिठास है, जिससे मन (झूले में) डोलने लगता है.

कोलकाता की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यहाँ मिली-जुली आबादी वाले इलाक़ों में मुसलमान और ईसाई तबके के लोग भी हिंदुओं के साथ होली खेलते हैं.

वे राधा-कृष्ण की पूजा से भले दूर रहते हों, रंग और अबीर लगवाने में उनको कोई दिक्क़त नहीं होती.

कोलकाता का यही चरित्र यहाँ की होली को सही मायने में सांप्रदायिक सदभाव का उत्सव बनाता है.

शांतिनिकेतन की होली का ज़िक्र किये बिना दोल उत्सव अधूरा ही रह जाएगा.

काव्यगुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वर्षों पहले वहाँ बसंत उत्सव की जो परंपरा शुरू की थी, वो आज भी जैसी की तैसी है.

विश्वभारती विश्वविद्यालय परिसर में छात्र और छात्राएँ आज भी पारंपरिक तरीक़े से होली मनाती हैं.

लड़कियाँ लाल किनारी वाली पीली साड़ी में होती हैं. और लड़के धोती और अंगवस्त्र जैसा कुर्ता पहनते हैं.

वहाँ इस आयोजन को देखने के लिए बंगाल ही नहीं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों और विदेशों तक से भी भारी भीड़ उमड़ती है.

इस मौक़े पर एक जुलूस निकाल कर अबीर और रंग खेलते हुए विश्वविद्यालय परिसर की परिक्रमा की जाती है. इसमें अध्यापक भी शामिल होते हैं.

आख़िर में, रवीन्द्रनाथ की प्रतिमा के पास इस उत्सव का समापन होता है.

इस मौक़े पर सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं.

शांतिनिकेतन और कोलकाता-स्थित रवीन्द्रनाथ के पैतृक आवास, जादासांको में आयोजित होने वाला बसंत उत्सव बंगाल की सांस्कृतिक पहचान बन चुका है।
तो सुनी से मधुर-मधुर बंगाली होली का गीत। हमें यकीं है आप को ये पसंद आएगी ।



इस
प्रस्तुति मैं हमने बीबीसी.कॉम की सहायता ली है

इस श्रृंख्ला की पुराणी कडियाँ
राजनेताओं की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ५)
भोपाल की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ४)

होली आई रे कन्हाई (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ३)

बनारस की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग २ )

रंग बरसे ...आप झूमें श्रंखला भाग १

रंग रौशनी का (विशेष प्रस्तुति) (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला)

प्रस्तुति -मयंक चतुर्वेदी

दिन का चमकीला, उल्लास भरा उजाला बस छा जाने की ही तैयारी में है। रंग बिरंगे फूलों की डालियां लचकते हुए होली के गीत गुनगुना रही है। दिन की शुरूआत रंगीन बयार जैसी आज कुछ खास है। ये प्रकृति के हर रंग, उसकी हर छटा हमें नाचते गाते हुए बता रही है। लोगों की हलचल शुरू हो चुकी है। देवर-भाभी के नजरों की ठिठोली आंगन में, सुबह के बर्तन की आवाज के साथ खनक रही है। गीले हाथों से अपने माथे पर से बाल हटाते हुए देख रहे देवर में पिस रही भांग जैसा नशा महसूस होता है।
टोलियों की तैयारी पूरी हो चुकी है। कहीं-कहीं माइक और नगाड़े की आवाज भी आनी शुरू हो चुकी है। सुबह में उत्साह का रंग घुला हुआ है, जिसमें मस्ती, मजा और अबीर-गुलाल का रंग चढ़ता जा रहा है। बच्चे, बूढ़े चौराहे पर जुटे हुए, रंगीन टोपियां पहने हुए आज दोस्त बने हुए हैं। रंग लगाने के तरीकों और अपने स्विर्णम इतिहास के मजेदार किस्सों को चटकारे लेकर सुना रहे हैं।
अपने मोहल्ले के लड़कों की टोली के साथ मैं भी नाचता-गाता मस्ती करता हुआ, घूम रहा था। किसी के घर गुझिये तो कहीं ठंडाई तो कहीं खुरमे और सेवड़े हमें खाने को मिलते। रंगो की बौछार बिखेरते हुए हम अपने जीवन के सारे अवसाद, दुश्चिंताएं और भारी पन को भिगोते, धोते और निचोड़ते हुए बढ़ते जा रहे थे। टहलते-घूमते जब हम थोड़े थक गए और धूप भी थोड़ी तेज हो गई तो हम गांव के किनारे खेल के मैदान तक पहुंच चुके थे। गांव के कुछ लोग वहां पहले से ही मौजूद थे। किनारे लगी कुर्सियों पर भी लोग बैठे हुए होली का लुत्फ उठा रहे थे। कुछ बच्चे कैमरे लेकर दौड़ रहे थे। लोग चीखते-चिल्लाते हुए और उछलकर फोटो खिंचवाते। जैसे सारे लोग आज बादल की सवारी कर रहे हों, बिल्कुल निर्भार निश्चिंत जीवन बस आनंद के लिए है, तरह-तरह के रंगों से खुद को रंग लेने में है। `होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा` अचानक बज उठे इस गाने की आवाज ने हम में फिर एक नई जान फूंक दी और हम सभी नाचने लगे।
नाचते गाते मेरी नजर किनारे लगी बेंच पर बैठी एक मासूम बच्ची पर पड़ी, इसे तो मैं पहली बार देख रहा हूं, हो सकता है मोहल्ले में पहली बार आई हो। सफेद फ्रॉक जाने कितने रंगों में डूब चुका था। उसके चेहरे पर लगा हुआ लाल गुलाल किसी खिले हुए फूल जैसा लग रहा था। मैं उसके बगल में आकर बैठ गया और मुझे बड़ा अजीब लगा क्योंकि उसकी कोई प्रतिक्रिया मुझे देखने को नहीं मिली। मैं बैठा रहा फिर धीरे से उसके पास जाकर कहा-`हैप्पी होली` वो अचानक चौंकी और अपनी गोद में पड़ी हुई गुलाल से भरी तश्तरी लेकर हवा में उड़ाने लगी और हंसते हुए कह रही थी-`मैं भी तुम्हें रंग लगाउंगी` पर उसका चेहरा और गुलाल मेरी तरफ नहीं था। वो किसी और दिशा में फेंक रही थी। उसके चेहरे को मैंने गौर से देखा वो हंसती जा रही थी `लाल पीले हरे नीले हर रंग लगाउंगी मैं तुम्हें` जब मेरी निगाह उसकी आंखों पर टिकी तो मैं सिहर उठा। लाल पीले हरे सभी रंग उसकी खुद की जिंदगी में सिर्फ काले स्याह रंगों में ही मौजूद थे। वो देख नहीं सकती। मुझे अपने चारों तरफ फैले हुए रंग जैसे चिढ़ाने लगे, सब कुछ धुंधला होता जा रहा था। मैं छटपटाता हुआ जाने किधर भागा जा रहा हूं जहां सिर्फ उसकी हंसी ही है। मुझे होली के सारे रंग झूठे और बेमानी लगने लगे। क्या मैं उसकी जिंदगी में रौशनी का रंग बिखेर सकता हूं, जो लाल पीले हरे नीले बाकी सारे रंगों को उसके जीवन में बिखेर सके ?
इस श्रृंखला की पुरानी पोस्ट-

राजनेताओं की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ५)

भोपाल की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ४)

होली आई रे कन्हाई (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ३)

बनारस की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग २ )

रंग बरसे ...आप झूमें श्रंखला भाग १