लोकसभा चुनाव के नए जनादेश पर मैंने देश के कुछ नए पुराने साहित्यकारों की राय ली एक ख़बर के लिए.......पेश है आप के लिए जैसी की तैसी
लोकसभा चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) को जीत हासिल हुई है और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) तथा वाम दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा है। इन चुनाव नतीजों को लेकर देश के कुछ वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों का मानना है कि देश की जनता ने सांप्रदायिकता, जाति और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाली ताकतों व आपराधिक छवि वालों को साफ तौर पर खारिज कर दिया है।
वरिष्ठ साहित्यकारों के मुताबिक राजग जहां वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय भावनात्मक उभार पैदा करने की कोशिशों और भविष्य के लिए स्पष्ट नीतियों के अभाव के चलते पराजित हुआ, वहीं संप्रग की जीत उसकी नीतियों और मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि का नतीजा है।
राजेंद्र यादव
क्या इस जनादेश को देश के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में किसी परिवर्तन का द्योतक माना जा सकता है, यह पूछे जाने पर वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कहा कि ये चुनाव इस मायने में खास हैं कि इस बार जनता ने सांप्रदायिक ताकतों को पूरी तरह नकार दिया साथ ही उसने यह भी स्पष्ट किया कि छोटे और क्षेत्रीय दलों से उसका मोहभंग हो रहा है।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पुनरोदय के बारे में उन्होंने कहा कि जनता ने मायावती के भ्रष्ट और आपराधिक शासन के खिलाफ जनादेश दिया है, जबकि देश के अन्य हिस्सों की ही भांति कांग्रेस की युवाओं को आगे लाने की रणनीति भी उत्तर प्रदेश में कारगर साबित हुई।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार पर उन्होंने कहा कि भविष्य के लिए कोई स्पष्ट योजना न होना उसकी हार का प्रमुख कारण रहा। वाम दलों की खराब स्थिति के बारे में उन्होंने कहा कि वास्तविकता को न समझ पाने और आपसी बिखराव की वजह से उनकी यह दुर्दशा हुई।
प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव और वरिष्ठ समालोचक डॉ. कमला प्रसाद कहना है कि इन चुनावों में जनता ने छिपे हुए एजेंडे लेकर चलने वाले दलों को किनारे लगा दिया। इसके अलावा यह जनादेश बाहुबलियों, धनबलियों और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और समाजवादी पार्टी (सपा) जैसे व्यक्ति केंद्रित दलों के भी खिलाफ रहा।
कांग्रेस की स्थिति में सुधार पर उनका स्पष्ट मानना है कि इसमें कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं रही बल्कि उसे अन्य दलों के खिलाफ लोगों की नाराजगी का फायदा मिला। उनके मुताबिक उत्तर प्रदेश में मायावती से नाराज सवर्णो, दलितों और मुस्लिम समुदाय के वोट इस बार कांग्रेस को मिले।
वाम दलों की पराजय पर कमला प्रसाद ने कहा कि संप्रग सरकार द्वारा किए गए सभी अच्छे कामों में वाम दल शरीक रहे, लेकिन ऐन चुनाव के पहले सरकार से समर्थन वापस लेने से वह इन कामों का लाभ नहीं उठा सके। इसके अतिरिक्त उन्हें परमाणु करार के मुद्दे पर भाजपा के साथ खड़े होते दिखने का भी नुकसान हुआ।
कृष्णमोहन
युवा आलोचक कृष्णमोहन ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के उभार पर कहा कि मुलायम शासन से त्रस्त जनता ने मायावती को जनादेश दिया था लेकिन उसका बहुत जल्दी उनसे भी मोहभंग हो गया और राज्य में तीसरे विकल्प के रूप मे कांग्रेस को उभने का मौका मिल गया।
वामदलों की करारी पराजय पर उन्होंने कहा कि नंदीग्राम और सिंगुर जैसे प्रकरणों ने वाम दलों की छवि को भारी क्षति पहुंचाई। इसके अलावा सैद्धांतिक विचलन भी उनकी हार का कारण बना। उन्हें दोहरेपन का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। दरअसल वह खुद उन कमियों का शिकार हो गए जिनके लिए वह अन्य दलों की आलोचना किया करते थे।
भाजपा और राजग की हार पर उन्होंने कहा कि उसने वास्तविक मौजूदा मुद्दों की बजाय लोगों का भावनात्मक दोहन करने की नीति अपनाई जो अंतत: उनके लिए नुकसानदेह साबित हुई। उन्होंने कहा कि आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है जिस पर राष्ट्रीय बहस छेड़ी जा सकती थी लेकिन भाजपा अफजल की फांसी और वरुण गांधी के बयानों पर ही उलझी रह गई।
ज्ञानपीठ युवा लेखन पुरस्कार से सम्मानित युवा किस्सागो चंदन पांडेय का कहना है कि इन चुनावों से राष्ट्रीय स्तर पर तो कोई सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव परिलक्षित नहीं होते लेकिन फिर भी इस बार लोगों ने जातिवाद, बाहुबल और ब्लैकमेलिंग की राजनीति को खारिज किया है जो अपने आप में एक बड़ा परिवर्तन है ।
वाम दलों की स्थिति को चंदन उनकी हार न मानते हुए कहते हैं कि आम तौर पर उनके वोटों का प्रतिशत इसके आसपास ही रहता है लेकिन उनकी सीटों में जो कमी आई वह स्थानीय मुद्दों पर विफलता के कारण आई।
राजग की हार पर उन्होंने कहा कि उनके पास वास्तव में मुद्दों का अभाव था क्योंकि उन्हें अच्छी तरह पता था कि बेरोजगारी के वैश्विक कारण है और यह स्थानीय मुद्दा नहीं बन सकता। इसके अलावा ठोस आर्थिक नीतियों के अभाव में उन्हें पता था कि वह महंगाई और मंदी को मुद्दा नहीं बना सकते क्योंकि उनके पास खुद इससे निपटने की कोई योजना नहीं थी।
चंदन ने देश के मीडिया जगत को दक्षिणपंथी रुझान वाला करार देते हुए कहा कि यह मीडिया ही था जो राजग को लगातार मुकाबले में बता रहा था।
युवा कथा लेखिका वंदना राग का मानना है कि इन चुनावों में भाषाई विद्रूपता को अपनाने वाले लोगों की पराजय हुई है और जनता ऐसी छोटी बातों से ऊपर उठी है। उन्होंने कहा कि बुढ़िया और गुड़िया जैसे निचले स्तर के संबोधनों के प्रयोग ने लोगों को यह जता दिया कि देश के बड़े नेता बुजुर्गो और महिलाओं को कितना सम्मान देते हैं।
वाम दलों की हार पर उन्होंने कहा कि नंदीग्राम व सिंगुर जैसे मुद्दों ने उसे नुकसान तो पहुंचाया ही साथ ही जनता ने भी सरकार का साथ छोड़ने के बाद उसे विकास विरोधी मान लिया।
And here is the rest of it.
सफ़र स्वात से सुवास्तु तक
हिंसा अलगाव तथा पलायन की त्रासदी के दौर सी गुज़र रही स्वात घाटी को वर्तमान पीढी एक हिंसक और वीभत्स दर्रे के रूप मे देख रही है . आने वाली पीढ़ी इतिहास में दर्ज कुछ काले पन्नों के रूप मे इसे याद करेगी , मगर इससे पहले की ये त्रासदी स्वाट घाटी की पहचान बने हम आपको वक्त के चिलमन से झाँकते हुई स्वाट घाटी की एक बेहद खूबसूरत तस्वीर दिखना चाहते हैं जो अपने आकार को लेने के लिए तड़प रही है .
यहाँ प्रस्तुत है राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखित पुस्तक अकबर के चौथे अध्याय बीरबल का अंश , सन्दर्भ बीरबल की मृत्यु का है
कश्मीर से पश्चिम में कश्मीर जैसा ही सुंदर स्वात-बुनेर का इलाका हिमालय की सबसे सुंदर उपत्यकाओं में है । इस भूमि पर ऋग्वेदिक आर्य भी इतने मुग्ध थे की उन्होंने इसका नाम सुवास्तु (अच्छे घरों वाला ) रखा, जिसका बिगडा नाम स्वात है । भूमि बड़ी ही उर्वर है । गर्मियों में यह अधिक सुहावना और शीतल हो जाता है । इसके उत्तर में सदा हिम से आच्छादित रहने वाली हिमालय श्रेणी है, दक्षिण में खैबर से आने वाली पहाडियां, पश्चिम में सुलेमान पहाडियों की श्रेणियां चली गई हैं और पूर्व में कश्मीर है । इसमे तीस-तीस चालीस-चालीस लम्बी उपत्यकाएं हैं ।
इधर-उधर जाने के लिए पहाडों को पार करने वाले दर्रे हैं । सारा इलाका हरा भरा है । शम्स उल-उलमा मौलाना मुहम्मद हुसैन "आज़ाद" स्वात की भूमि के बारे में लिखते हैं -"मेरे दोस्तों, यह पर्वतस्थली ऐसी बेढंगी है, की जिन लोगों ने इधर के सफर किए हैं, वही वहां की मुश्किलों को जानते हैं । अंजानो की समझ में वे नही आती । जब पहाडों के भीतर घुसते हैं, तो पहले पहाड़, मनो ज़मीन थोडी थोडी ऊपर चलती हुई मालूम होती है । फ़िर दूर बादलों सा मालूम होता है, जो सामने दाहिने से बाएँ तक बराबर छाए हुए हैं । वह उठता चला आता है । ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते चले जाओ, छोटे छोटे टीलों की पंक्तियाँ प्रकट होती हैं । इनके बीच से घुसकर आगे बढ़ो, तो उनसे ऊँची-ऊँची पहाडियां शुरू होती हैं । एक पांती को लाँघ थोडी दूर चढ़ता हुआ मैदान है, फ़िर वाही पांती आ गई ।
यहाँ दो पहाड़ बीच से फटे हुए ( दर्रा ) है, जिनके बीच में से निकलना पड़ता है, अथवा किसे पहाड़ की पीठ पर से चदते हुए ऊपर होकर पार निकलना पड़ता है । चढाई और उतराई में, पहाड़ की धारों पर दोनों और गहरे गहरे गड्डे दिखलाई पड़ते हैं, जिन्हें देखने दिल नही चाहता । जरा पाँव बहका और गए, पातळ से पहले ठिकाना नही मिल सकता । कहीं मैदान आता, कहीं कोस दो कोस जिस तरह छाडे थे उसी तरह उतरना पड़ता, कहीं बराबर चढ़ते गए । रास्ते में जगह जगह दायें-बाएँ दर्रे (घाटे, डांडे) आते हैं, कहीं दूसरी तरफ़ रास्ता जाता है । इन दर्रों के भीतर कोसों तक लगातार आदमियों की बस्ती है, जिनका हाल किसी को मालूम नही । कहीं दो पहाडों के बीच मैं कोसों तक गली गली चले जाते हैं । चढाई ( सराबाला) , उतरे (सरोशेब), डांडा (कमरेकोह), द्वार (गरिबानेकोह), गलियारा (तंगियेकोह), धार (तेजियेकोह) तराई(दामनेकोह) इन शब्दों का अर्थ वहां जाने पर मालूम होता है ।... यह सारे पहाड़ बड़े-बड़े, छोटे छोटे वृक्षों से ढंके हुए हैं । दाहिने-बाएँ पानी के चश्मे ऊपर से उतारते हैं, ज़मीन पर कहीं नालों और कहीं नहर होकर बहते हैं । कहीं दो पहाडियों के बीच मैं हो कर बेह्त्ते हैं, जहाँ पुल या नाव के बिना पार होना मुश्किल है । पानी ऊँचाइयों से गिर कर आता पत्थरों से टकराता हुआ बहता है, इसीलिए जोर से जाता है, पैर से चल कर पार होना सम्भव नही । थोड़ा हिम्मत करे, तो पत्थरों पर से पैर फिसले बिना न रहे ।" इसी पर्वत्स्थाली ( स्वात ) में अफगान आबाद हैं ।
अफगानों को पख्तून भी कहते हैं, जिन्ही को ऋग्वेदिक आर्य पख्त कहते थे ।
एक पाठक की टिपण्णी : पोस्ट खंडन : नवाबों की होली सोने की पिचकारी से
10 मार्च 2009 को हमने हमारे मित्र फैज़ान सिद्दीकी का एक लेख भोपाल की नवाबी होली पर प्रकाशित कियाशीर्षक था नवाबों की होली सोने की पिचकारी से । इस पोस्ट में नवाबी दौर में किस तरह होली मनाई जाती थी , मुख्यतः नवाब हमीदुल्लाह खान से जुड़ी जानकारी दी गई थी । इस पोस्ट के एक हिस्से में लिखा था -
आपकी गलत व भ्रामक जानकारी में सुधार कर लीजिये, नवाब के कारण तो होली संकट में है
नवाब हमीदुल्ला को होली का शोक था इसमें हमें इंकार नहीं है, वह सोने की पिचकारियों से होली खेलते थे इससे भी हमें कोई सरोकार नहीं ।
लेकिन नवाब साहब की सरपरस्ती कसीदे घड़ने वालों ने जो यह लिख दिया है कि नवाब साहब दूसरे दिन होली खेलने सीहोर जाते थे और आज भी इस कारण सीहोर में दूसरे दिन होली खेलने की परम्परा कायम है, वह लोग अपनी इस नाजायज भूल में सुधार कर लें ।
अव्वल तो इतिहास लिखने वाले को संस्कृति व परम्पराओं का भी ज्ञान होना चाहिये लेकिन जो सिर्फ साहब जी हजूरी करने के लिये ही लिख रहा हो उससे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
तथैव – यह समझ लें की होली कोई एक दिन का त्यौहार नहीं है बल्कि पूरे 5 दिन का त्यौहार तो तिथियों के मान से ही है। यह भी बता देना उचित है कि सीहोर में होली भोपाल से कई गुना ज्यादा उत्साह, उमंग व अपनी अनेक परम्पराओं के साथ मनाई जाती है, इसमें किसी राजा या नवाब की कोई देन नहीं है ।
होली की यह अतिसामान्य जानकारी भी वह कथित इतिहासकार जान लें कि होली की पड़वा एकम को ‘‘गमी’’ की होली रहती है, पूरे देश में ही गमी की होली मनाई जाती है, सीहोर में आज भी पहले दिन गमी की होली पर विभिन्न जाति समाज के लोग अपनी-अपनी ‘’गैर’’ निकालते हैं, और उन घरों में जाते हैं जहां बीते वर्ष गमी अर्थात किसी की मृत्यु हुई हो ।
हिन्दु धर्म में यह परम्परा बता देना उचित होगा कि गमी वाले घरों के लिये सारे त्यौहार सामान्य रहते हैं लेकिन यदि वर्ष के बीच में होली आ जाये तो होली की एकम को जब समाज की गैर गमी वाले घर के लोगों को बाहर निकालकर गम भूल जाने की समझाईश देती तो इस दिन बाद आगामी सारे त्यौहार वह परिवार मना सकता है ।
मूल बात यह है कि सीहोर में ही नहीं बल्कि आसपास क्षेत्रों में पहले दिन गमी की होली मनती है और दूसरे ऐसी शानदार होली मनती है कि वह लोग जिन्हे होली खेलने का शोक हो, वह स्वयं ही सीहोर खींचे चले आते है। सीहोर में पूर्व वर्षों में 5 दिन की होली मनती थी, कथित इतिहासकार सोचे की क्या बाकी के 3 दिन क्या नवाब की याद में होली मनती होगी।
इसे नोट कर लें – कि अभी 9-10 वर्ष वर्ष 2000 के पूर्व तक सीहोर से लगी हुई आष्टा तहसील में तो होली की धूम इतनी जबर्दस्त रहती थी कि पूरे 5 दिन तक बाजार बंद रहता था प्रतिदिन होली होती थी, लेकिन अभी 10 वर्ष पूर्व बैठक करके निर्णय लिया गया कि 5 दिन होली शहर के अलग-अलग हिस्सों में बांटकर होगी, अब वहां भी जिसे होली पसंद होती है वह पूराने आष्टा नगर को छोड़ जहां होली हो रही होती है उस मोहल्ले क्षेत्र में चला जाता है, ठीक वैसे ही है जैसे नवाब सीहोर आ जाते थे ।
यदि नवाब सीहोर में आकर होली खेलता था तो यही कहा जाना चाहिये कि नवाब होली खेलने के शोक में सीहोर में होली खेलने चले जाया करते थे, उनके कारण सीहोर में होली होती यह कहना ना सिर्फ गलत, भ्रामक, असत्य है बल्कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ भी है ।
इन्ही कथित इतिहासकारों के कारण आज सीहोर में दूसरे दिन की होली संकट के दौर से गुजर रही है, क्योंकि यहां पहले दिन गमी की होली का इतना महत्व है कि इस दिन सामान्य कम लोग होली खेलते हैं लेकिन दूसरे दिन हर हुरियारा सड़क पर होता है, ऐसे में प्रशासन, पुलिस बल हर कोई यह चाहता है कि होली की मस्ती कम हो, प्रशासन व पुलिस बल लगातार होली के सप्ताह भर पहले से यह कहना शुरु कर देता है कि सीहोर के लोग आज भी नवाब की याद में होली खेल रहे हैं, एक नया सिपाही भी यहां आता है जिसे सीहोर का इतिहास नहीं मालूम हो, वह तक नई उम्र के हुरियारों से कहता है कि नवाब खेलते आते थे इसलिये यहां होली हो रही है, कुछ नये लोग जिन्हे होली से घबराहट होती है वह भी खुद को बचाने के लिये कह देते हैं कि हम नवाब की होली क्यों खेलें
मूर्ख इतिहासकारों के कारण आज आम स्वाभिमानी सीहोर का नागरिक पारम्परिक होली खेलते हुए परेशानी महसूस करता है, उसे चारों और होली के विरोधियों द्वारा यह स्वर सुनाई देता है कि नवाब की होली खेल रहे हो।
क्षमा प्रार्थना सहित – निवेदन है कि आपके चिट्ठे पर सरपरस्ती में लिखा गया उक्त लेख व विषय उचित है लेकिन उसमें यह उल्लेख किया जाना गलत है कि सीहोर के कई हिस्सो मे आज भी वह परम्परा निभाई जाती है........ ।
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इस पर हमारे एक पाठक फुर्सत ने आपत्ति दर्ज कराई है और अपना पक्ष एक टिपण्णी के मध्यम से रखा है । कुछ पुराने लोगों से और सीहोर जिले से जुड़े वरिष्ठ पत्रकारों से बात करने के बाद हमने पाया उनकी दी हुई जानकारी काफी हद तक सही है , इसीलिए उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं । हम अपने पाठकों का धन्यवाद करते हैं जो संवाद में विश्वास करते हैं , और अपने विचार इस तरह अग्रेषित करते हैं ।नवाब हमीदुल्ला खान इनके साथ होली मनाने के बाद सीहोर होली मनाने जाया करते थे। जो उस वक्त रियासत का एक हिस्सा हुआ करता था,सीहोर के कई हिस्सों में यहाँ से शुरू हुई परम्परा को आज भी पूरा किया जाता है और दूसरे दिन भी होली मनाई जाती है।
यह समझ लें की होली कोई एक दिन का त्यौहार नहीं है बल्कि पूरे 5 दिन का त्यौहार तो तिथियों के मान तिथियों के मान से ही है...........
आपकी गलत व भ्रामक जानकारी में सुधार कर लीजिये, नवाब के कारण तो होली संकट में है
नवाब हमीदुल्ला को होली का शोक था इसमें हमें इंकार नहीं है, वह सोने की पिचकारियों से होली खेलते थे इससे भी हमें कोई सरोकार नहीं ।
लेकिन नवाब साहब की सरपरस्ती कसीदे घड़ने वालों ने जो यह लिख दिया है कि नवाब साहब दूसरे दिन होली खेलने सीहोर जाते थे और आज भी इस कारण सीहोर में दूसरे दिन होली खेलने की परम्परा कायम है, वह लोग अपनी इस नाजायज भूल में सुधार कर लें ।
अव्वल तो इतिहास लिखने वाले को संस्कृति व परम्पराओं का भी ज्ञान होना चाहिये लेकिन जो सिर्फ साहब जी हजूरी करने के लिये ही लिख रहा हो उससे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
तथैव – यह समझ लें की होली कोई एक दिन का त्यौहार नहीं है बल्कि पूरे 5 दिन का त्यौहार तो तिथियों के मान से ही है। यह भी बता देना उचित है कि सीहोर में होली भोपाल से कई गुना ज्यादा उत्साह, उमंग व अपनी अनेक परम्पराओं के साथ मनाई जाती है, इसमें किसी राजा या नवाब की कोई देन नहीं है ।
मूल बात यह है कि सीहोर में ही नहीं बल्कि आसपास क्षेत्रों में पहले दिन गमी की होली मनती है और दूसरे ऐसी शानदार होली मनती है कि वह लोग जिन्हे होली खेलने का शोक हो, वह स्वयं ही सीहोर खींचे चले आते है.........
होली की यह अतिसामान्य जानकारी भी वह कथित इतिहासकार जान लें कि होली की पड़वा एकम को ‘‘गमी’’ की होली रहती है, पूरे देश में ही गमी की होली मनाई जाती है, सीहोर में आज भी पहले दिन गमी की होली पर विभिन्न जाति समाज के लोग अपनी-अपनी ‘’गैर’’ निकालते हैं, और उन घरों में जाते हैं जहां बीते वर्ष गमी अर्थात किसी की मृत्यु हुई हो ।
हिन्दु धर्म में यह परम्परा बता देना उचित होगा कि गमी वाले घरों के लिये सारे त्यौहार सामान्य रहते हैं लेकिन यदि वर्ष के बीच में होली आ जाये तो होली की एकम को जब समाज की गैर गमी वाले घर के लोगों को बाहर निकालकर गम भूल जाने की समझाईश देती तो इस दिन बाद आगामी सारे त्यौहार वह परिवार मना सकता है ।
मूल बात यह है कि सीहोर में ही नहीं बल्कि आसपास क्षेत्रों में पहले दिन गमी की होली मनती है और दूसरे ऐसी शानदार होली मनती है कि वह लोग जिन्हे होली खेलने का शोक हो, वह स्वयं ही सीहोर खींचे चले आते है। सीहोर में पूर्व वर्षों में 5 दिन की होली मनती थी, कथित इतिहासकार सोचे की क्या बाकी के 3 दिन क्या नवाब की याद में होली मनती होगी।
इसे नोट कर लें – कि अभी 9-10 वर्ष वर्ष 2000 के पूर्व तक सीहोर से लगी हुई आष्टा तहसील में तो होली की धूम इतनी जबर्दस्त रहती थी कि पूरे 5 दिन तक बाजार बंद रहता था प्रतिदिन होली होती थी, लेकिन अभी 10 वर्ष पूर्व बैठक करके निर्णय लिया गया कि 5 दिन होली शहर के अलग-अलग हिस्सों में बांटकर होगी, अब वहां भी जिसे होली पसंद होती है वह पूराने आष्टा नगर को छोड़ जहां होली हो रही होती है उस मोहल्ले क्षेत्र में चला जाता है, ठीक वैसे ही है जैसे नवाब सीहोर आ जाते थे ।
...मूर्ख इतिहासकारों के कारण आज आम स्वाभिमानी सीहोर का नागरिक पारम्परिक होली खेलते हुए परेशानी महसूस करता है, उसे चारों और होली के विरोधियों द्वारा यह स्वर सुनाई देता है कि नवाब की होली खेल रहे हो.........
यदि नवाब सीहोर में आकर होली खेलता था तो यही कहा जाना चाहिये कि नवाब होली खेलने के शोक में सीहोर में होली खेलने चले जाया करते थे, उनके कारण सीहोर में होली होती यह कहना ना सिर्फ गलत, भ्रामक, असत्य है बल्कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ भी है ।
इन्ही कथित इतिहासकारों के कारण आज सीहोर में दूसरे दिन की होली संकट के दौर से गुजर रही है, क्योंकि यहां पहले दिन गमी की होली का इतना महत्व है कि इस दिन सामान्य कम लोग होली खेलते हैं लेकिन दूसरे दिन हर हुरियारा सड़क पर होता है, ऐसे में प्रशासन, पुलिस बल हर कोई यह चाहता है कि होली की मस्ती कम हो, प्रशासन व पुलिस बल लगातार होली के सप्ताह भर पहले से यह कहना शुरु कर देता है कि सीहोर के लोग आज भी नवाब की याद में होली खेल रहे हैं, एक नया सिपाही भी यहां आता है जिसे सीहोर का इतिहास नहीं मालूम हो, वह तक नई उम्र के हुरियारों से कहता है कि नवाब खेलते आते थे इसलिये यहां होली हो रही है, कुछ नये लोग जिन्हे होली से घबराहट होती है वह भी खुद को बचाने के लिये कह देते हैं कि हम नवाब की होली क्यों खेलें
मूर्ख इतिहासकारों के कारण आज आम स्वाभिमानी सीहोर का नागरिक पारम्परिक होली खेलते हुए परेशानी महसूस करता है, उसे चारों और होली के विरोधियों द्वारा यह स्वर सुनाई देता है कि नवाब की होली खेल रहे हो।
क्षमा प्रार्थना सहित – निवेदन है कि आपके चिट्ठे पर सरपरस्ती में लिखा गया उक्त लेख व विषय उचित है लेकिन उसमें यह उल्लेख किया जाना गलत है कि सीहोर के कई हिस्सो मे आज भी वह परम्परा निभाई जाती है........ ।
हर घर में होली होती है, और इतनी होती है कि एक बार हिम्मत करके आप आकर तो देखिये........ रंगपंचमी पर भी चाहे तो आ सकते हैं । सोने की पिचकारियां भूल जायेंगे.........
अरे आपको मालूम भी नहीं है कि दूसरे दिन सीहोर के हर एक हिस्से में, हर घर में होली होती है, और इतनी होती है कि एक बार हिम्मत करके आप आकर तो देखिये........रंगपंचमी पर भी चाहे तो आ सकते हैं । सोने की पिचकारियां भूल जायेंगे।हमारे ब्लॉग का नया रूप कैसा लगा ज़रूर बताएं
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चाँदी के वरक में लपटा भारत
हलवाइयों ने हमें एकाधिक स्वादों से तो परिचित कराया है, वे मिठाई बनने के बाद उसे सुंदर बनने के लिए उसपर चांदी का एक वरक चढा देते हैं और ये ही वरक मिठाई को कृत्रिम रूप से ताज़ा दिखाने में भी इस्तेमालहोता है . बहुत दीनो बाद कल डाक घर जाने का मौका मिला, डाक घर अब नया हो चुका है, नई कुर्सियाँ , दीवारों पर नया पैंट और बाबुओं के काउंटर का रंग भी बदल गया है . कुर्सियाँ चाँदी के रंग मैं हैं और काउंटरों का रंगलाल है . दरअसल सिर्फ़ इतना ही बदला है , कार्य करने की गति और तरीके में कोई ख़ासा फ़र्क नहीआया है । खैरमैं ये कहना चाहता हूँ की आज हमारा भारत जितना विकसित है उससे ज़्यादा उसपर चाँदी की वरक चड़ा कर दिखाजा रहा है . पुरानी इमारतों में उपर से सनबोर्ड लगाकर नया रूप तो दे दिया जाता है पर असल में बदलता कुछ नहीहै .हमारी सरकार ही नही हम खुद ही अपने आप को इस धोके से बाहर नही निकालने चाहते . हम भारतीयों कोचमक ने हमेशा से अपनी और आकर्षित किया है , हम आज भी हर चमकती हुई चीज़ को सोना मानने से नहीचूकते ।
चु नाव हमे बदलाव का सबसे बड़ा रास्ता नज़र आते हैं जिसे लोकतंत्र का उत्सव भी कहा जाता था . पर हमबदलना क्या चाहते हैं सरकार,क्या करेगी नई सरकार भी आ कर , लोग तो घुमा फिरा कर वो ही हैं ना . मुझे सागर निज़ामी की एक नज़्म के मध्यम से अपनी बात आगे बढ़ना अच्छा लगेगा . धन्यवाद
उठो और उठ के निज़ामे जहाँ बदल डालो ,
ये आसमान ये ज़मीन ये मकां बदल डालो ।
ये बिजलियाँ हैं पुरानी ये बिजलियाँ फूंको ,
ये आशियाँ है कदिम आशियाँ बदल डालो ।
गुलों के रंग मैं आग पंखुड़ी में शराब ,
कुछ इस तरह रविशे गुलसिताँ बदल डालो ।
मिज़ाज़-ए-काफिला बदला तो क्या कमाल किया ,
मिज़ाज़-ए-रहबारे कारवाँ बदल डालो ।
'हयात' कोई कहानी नही हक़ीकत है,
इस एक लफ्ज़ से कुल दास्ताँ बदल डालो ।
चिप्पियाँ
दिल कि बात,
दिल की बात,
भारत,
रणभेरी - 2009,
लोकसभा चुनाव 2009,
विविध
बिना स्पेस दिए रोमन टेक्स्ट हिन्दी मैं बदलें
एक कमेन्ट के माध्यम से दिनेशराय जी ने ये जानने में उत्सुकता ज़ाहिर की थी के यदि सामग्री रोमन में लिखीहो तो उसे यूनिकोड में कनवर्ट करने के लिए बिना बार बार स्पेस दिए कोई तरीका है , मुझे एक तरीका मिल गयाहै , सब से साझा कर रहा हूँ , कभी भी ज़रूरत पड़ने पर इस्तेमाल कर सकते है ।
वि धी - अपनी पहले से ही टाइप किया हुई सामग्री को अपने ब्लोगर के पोस्ट एडिटर बॉक्स में पेस्ट करें जोकुछ ऐसी दिखेगी
है ना आसान.. न बार बार स्पेस दबाना न और कुछ ...
प्रयोग कर के बताएं कैसा रहा
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vidhi - apni pehle se hi tipe ki hui samagri ko apne post editor box main paste karein jo kuch aisi dikhegi
इसके बाद उस पूरे टाइप किए हुए मैटर को सेलेक्ट कर लें और Ctrl+G दबाएँ , आपका टेक्स्ट तुंरत परिवर्तित होजाएगा और नया हिन्दी मैं लिखा हुआ मैटर आ जाएगा ,
है ना आसान.. न बार बार स्पेस दबाना न और कुछ ...
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