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रंग बरसे ...आप झूमें श्रंखला भाग १

होली रंगो का त्यौहार है। रंग जीवन के विविध रुपों का प्रतीक माने जाते हैं। खुशी और उल्लास के प्रतीक इस पर्व पर हम भी आपके साथ शरीक होना चाहते हैं। रंगों के इस उत्सव को बहुरंगी बनाने के लिए हम एक नई श्रृंखला शुरु कर रहे हैं। इसमें हम कलम के साथ संगीत की भी तान छेड़ेंगे। उम्मीद है हमारी इस महफिल में आप बोर नहीं होंगे।
आज पहला दिन है और शुरुआत अगर राधे के नाम से हो तो आगे आते आते श्री कृष्ण का आना तय माना जा सकता है , अपनी नित्य निकुंज बिहारणी राधा मैया बरसाने वाली है और फिर बरसाने की होली तो वैसे ही प्रसिद्ध है ,आपने कभी बरसाने की होली देखी हो तो आप जानते ही होंगे , जब नंदग्राम के गोपी राधे के गाँव बरसाने जाते हैं और वहां की गोपियाँ उनका स्वागत लट्ठ से करती हैं ,आहा!! फिर क्या है आप बजने दीजिये सुर और ताल और झूमिए श्रीराधे जी का नाम लेकर ,अगले दिन फिर बारी पुरुषों की होती है और होती है रंग और गुलालों की होली . इसी बीच सुंदर संगीत मन को बार बार छू जाता है हमारी कोशिश है ब्रज से दूर बैठे उन लाखों लोगों को श्री राधे रानी से और उनकी होली से जोड़ने की ,आगे हम और भी प्रस्तुतियां देंगे जिसमे कोशिश होगी देशभर की होली के रंग में रंगने की और कुछ मधुर मधुर संगीत प्रेषित करने की तो फिर क्या है श्री राधे का नाम लीजिये
नीचे श्री राधे का एक मधुर गीत है सुनी और कही श्री राधा राधा .....
होली पर यदि आप भी कुछ लिख कर देना चाहें और कुछ गाने सुझाने चाहें तो ज़रूर बताएं .
श्री राधा राधा .....


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यदि फायर फॉक्स पर गाना सुनाई नही दे रहा हो तो इन्टरनेट एक्स्प्लोरर पर देखें

प्यासा न बनाते गुरुदत्त ब्लॉगर बन जाते



यदि गुरुदत्त आज होते तो शायद प्यासा न बनाते, क्योंकि तब उस फ़िल्म मैं उनकी नज्में कोई नही छापता था पर अब तो ब्लॉगर है और फिर कुछ इन्टरनेट विज्ञापन दाता भी हैं अब अगर गुरु दत्त को कोई नही छाप रहा होता और वे गरीब भी होते तो भी वे किसी अब्दुल जब्बार के पुराने होते कंप्यूटर पर अपनी कविता टाइप कर पोस्ट ज़रूर कर देते -,वाह, वाह, फिर क्या था टिप्पणियां आती -लगातार, लाइन से दन्न -दन्न "हिन्दी ब्लॉग जगत मैं आपका स्वागत है , लगातार लेखन के लिए धन्यवाद,आप जब हिन्दी मैं लिखते हैं तो अच्छा लगता है । बहुत सुंदर…॥आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। ‍‍ ‍‍‍ ….. फिर कोई पहले सेव और अब अंगूरों के शहर वाले भइया उन्हें बताते की ब्लॉग से पैसा कैसे कमाया जाए,कुछ गली मोहल्लों मैं उनकी चर्चा होती ,फिर क्या था उनके पास होते इनविटेशन ब्लॉगों पर लिखने के। पता चल रहा है कि भइया पिछले तीन महीने से गुरु दत्त (फ़िल्म किरदार) को उनकी माँ ने देखा ही नही है ,सब जगह उनके भाई भी ढूँढ रहे है की पता नही छोटा भाई कहाँ है,अब तो वो ब्लॉगर हो गया है,और भाभी जी परेशां है कि अभी अगर भइया आ गए और बोलने लगे की मेरी नज्मों वाली फाइल कहां है तो मैं क्या कहूँगी कि वो तो मैंने किसी कबाडी को बेच दी ,वो भी ब्लॉग पोस्टिंग के लिए । फिर कहीं किसी दिन गुरु भइया अपने भतीजे की पकड़ में आ जाते हैं । भतीजा चिल्लाता है दादी वो देखो चाचा जा रहे हैं ,दादी तो देर मैं सुन पाती है पर पहले आस-पास खड़े लोग उनके पीछे हो लेते हैं सब पकड़ लेते हैं कि भइया जरा हमारे ब्लॉग पर कोई कमेन्ट तो दे दो ,अरे ये ही लिख दो की -अच्छा लगा,या ये लिख दो की आपके द्वारा दी गई जानकारी उत्तम लगी,या ये ही लिख दो की एक नया शब्द सीखने को मिला । खैर गुरु साहब ज़रा जल्दी में हैं उन्हें एक ब्लॉगर मीट जो अटेंड करनी है ,मेरठ की ट्रेन पकड़नी है ,शायद अबकी बार कोई भिखारी रस्ते में ठण्ड से ठिठुर भी रहा होगा फिर भी गुरुदत्त साहब अपना कोट निकाल कर उसे नही देंगे क्योंकि सारे ब्लॉगर जो बैठे हैं उधर मेरठ में और फिर बिना कोट के काम कहाँ चलता है ।
खैर इस छोटे से लेख से में सिर्फ़ अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता हूँ ,अपने ब्लॉग पर क्योंकि ब्लॉग पर पोस्ट न करने की दशा में चिटठा जगत में सक्रियता कम हो जाती है और फिर कोई पढ़े न पढ़े लगना चाहिए कि हम लिख रहे हैं । मैं क्षमा चाहता हूँ जो किसी को बुरा लगा हो मेरा गुरु दत्त जी के जी के बारे में लिखना ,अगर आपत्ति हो बताएं .

वो कहते हैं न कि सब कुछ बच्चा माँ के पेट से सीख कर नही आता अभी हिन्दी ब्लागिंग भी कुछ ऐसी ही स्थिति मैं नज़र आती है, ब्लॉग की मूल अवधारणा अब बदल चुकी है ,ये उन प्रकाशकों और संपादकों के मुँह पर तमाचा मरने की कोशिश करती है जो कई बार नए कवियों की कविता नही छापते और कई बार उन्हें नज़रंदाज़ करते हैं । खैर बहुत कुछ होना अभी बाकी है ,सचमुच बहुत कुछ ,लीजिये आपके लिए एक मधुर सा गाना पेश कर रहा हूँ,गुरुदत्त साहब का ............ ।

श्रमदान के बहाने हम आए हैं फोटू खिचाने


हमारे भोपाल मैं पिछले कई दिनों से फोटो खिंचाओ महोत्स चल रहा है ,जिसमे लोग बड़े तालाब पर सज-धज के आते हैं फावडा तागादी उठाते हैं,थोडी सी मिटटी उठाते निकलते हैं ,फिर मुस्कुराते हुए फोटू खिचाते हैं और निकल जाते हैं ,ऐसा सिलसिला चल रहा है फोटू खिचाने का रोजाना कई वीभागों के ,स्कूल-कॉलेजों के और स्वयं सेवी संस्थाओं के मॉडल आते हैं ,थोड़ा कैट वाक किया और खड़े हो गए पोस देने अब इन तथाकथित मजदूरों को कैसे समझाएँ की भइया यहाँ फोटो खिंचाओ महोत्सव नही श्रमदान उत्सव चल रहा है हमारे शहर के अखबारों को और तथाकथित न्यूज़ चैनलों को भी चैन नही ,लगे हैं फोटो खीचने और शूटिंग करने मैं ,अरे साहब जितना समय इस काम मैं दे रहे हैं उतना अगर श्रमदान मैं देते तो ज़्यादा सार्थक पत्रकारिता होती रोजाना अख़बारों मैं एक फुल पेज श्रमदान के नाम रहता है अलग अलग नामों के सरोकारों से तालाब सोच रहा होगा की अच्छे लोग हैं एक तो मैं बीमार अवस्था मैं हूँ ऊपर से ये मेरी छाती पर मूंग दल रहे हैं क्या ये सब अनुपम मिश्रा देख रहे हैं , शायद नही वरना उनके कदम यहाँ आने के लिए रुकते नही, कोई उन तक पुकार पहुँचा दे तो कुछ बात बने अभी लिखा ही था की पड़ोस से आवाज़ आई ऐ जी सुनती हो तैयार हो जाओ सन्डे है श्रमदान करने चलना है नै सदी पहन लेना वरना फोटो ठीक नही आएगी
एक सुंदर फोटो

संसद की दीवारों से

कहाँ हो सर एडविन लुटियन्स तुम ही थे जिसने हमें ये आकर दिया था क्या तुम जानते थे की तुम्हारी इस आकृति को इतना सम्नानीय स्थान और नाम मिलेगा तुम देख रहे हो की तुम्हारा सृजन आज फिर से सृजित होने का लालायित है पहले तो हम दीवारें कुछ बातों पर ठहाके भी लगा लेती थी ,एक दूसरे की चुटकी भी ले लेती थीं ,मगर जब से लोकतंत्र की पाठशाला मैं प्रवेश लिया हम भी मर्यादित आचरण करने लगी ,इसका ये मतलब नही की हम ठहाके नही लगा सकते थे ,या चुटकी नही ले सकते थे अब जनता के प्रतिनिधि हमारी गोद मैं बैठ कर भारत निर्माण की इबारत लिखने लगे
शुरूआती दौर मैं हमने आज़ादी के उत्साह और सृजन की इक्षा शक्ति से प्रफुल्लित स्वरों को सुना और मनो ऐसा महसूस हो रहा था की हम द्वापर की उस पत्थर रूपी अहिल्या से ज्यादा भाग्यशाली तो नही ,जो की राम की चरण राज लगने पर पुनः नारी बनी ,पर हम कठोर दीवारें उन महान स्वरों की अनुगूंज की टकराहट से अपने आप को भाग्यशाली महसूस करने लगीं थी

समय बढता गया और और स्वरों मैं भी बदलाव आता गया कभी किसानो की दुर्दशा पर स्वर उठे तो कभी कभी उद्योगों के विकास के लिए थपथपाती मेजों ने गला फाड़कर आवाज़ को तीखा किया बरस गुज़रे की स्वरों मैं बदलाव आया ,भाषा के नाम पर ,छेत्र के नाम पर तो हम दीवारों को लगा की देर रात तक दोने की वजह से हम पूरे होश मैं नही है मगर उन स्वरों की निरंतरता ने हमें स्तब्ध कर दिया पर उन दिनों कुछ जन प्रतिनिधियों की आवाज़ हमारे कलेजे को ठंडक देती थीं जिन्हें पक्ष और विपक्ष ध्यान से सुनते थे ,ऐसे प्रतिनिधि 90 के दशक तक आते आते काफी कम हुए उसके बाद साफ़ स्वर सुने आना बंद हो गए ,सिर्फ़ चीखें सुने देती थीं और उन चीखों मैं जनता का दर्द नही आपरी स्वार्थ ज्यादा प्रबल थे बहस शुरू नही होती की अचानक सदस्य सदन से वाकआउट कर के चले जाते ,खैर हम दीवारों को तो इससे राहत होती है,पर क्या ये बात देश को राहत दे सकती है नही चीखों के साथ कभी लत घूँसे चले ,दस्तावेज़ छींटे हुए प्रतिनिधि ,और सुना था एक दिन तो उन स्वरों और चीखों के लिए जनता से पैसे लिए गए हद तो तब हो गई जब हमारे आँगन मैं कुछ सदस्य पैसों से भरे बैग लेकर गए क्या यहाँ संविधान की आत्मा नीलम हो रही थी ,क्या वे गाँधी को दोबारा मार रहे थे या फिर उन लोगों को तमाचा मर रहे थे जिन्होंने उन्हें चुना है

आजकल मैं लोकसभा अधयाखा ने इन्ही के बारे मैं कहा है की "भगवन करे आप लोग हार जायें " अध्यक्ष महोदय की इस बात पर हम दीवारों ने भी मर्यद्दा तोडी और ठहाके लगते हुए कहा की नक्कारों के बीच टूटी का कोई असर नही होता है और यही हुआ अध्यक्ष जी के इस अमृत वचन को मीडियाई लोगों ने शाप बता दिया और कुछ लोगों ने पान ठेलों ,चाय की दुकानों पर 10 मिनट की चर्चा मैं इस विषय को क्लोस कर दिया मगर हम दीवारों को पता चला है की अध्यक्ष जी की इस बात के बाद हमारे चरों स्तम्भ की मौलिक आत्मा गहरे सदमे मैं है और बाहर आने से इनकार कर रही है

कलकत्ता के प्रसिद्ध छोले भटूरे

कभी भोपाल आयें तो छोले भटूरे ज़रूर खाइएगा , वो भी न्यू मार्केट मैं . अरे ख़ास कुछ नही है,वैसे ही है . भाई आप हर चीज़ मैं खास क्यों ढूँढने लगते हैं . खासियत कई हैं पर वो जगह की हैं ,ये न्यू मार्केट की इकलौती जगह है जहाँ भटूरे खाने के लिए लाइन लगती है ,लोग इस कदर दीवाने है की न्यू मार्केट आकर यहाँ के भटूरे और मिश्रा की जलेबी ज़रूर खाते हैं .हनुमान मन्दिर के पीछे भटूरे की लाइन से तीन दुकाने हैं .पंजाब के छोले भटूरे,दिल्ली के छोले भटूरे,और कलकत्ता के छोले भटूरे .

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क्या कहा भटूरे मैं कुछ काला है ,कलकत्ता मैं भटूरे प्रसिद्ध नही ,हाँ भाई लोचा तो ये ही है .दरअसल पहले दिल्ली फिर पंजाब तो तीसरी दूकान वाले ने सोचा मैं क्यों पीछे रहूँ पुरानी ही सही राजधानी का नाम ही रखूँगा और फिर हम कलकत्ता के हैं तो कलकत्ता क्यों नही . तो भाई ऐसे ही aसहा साहब ने अपनी दुकान का नाम कलकत्ता के छोले रखा . DSC02966

बीते दिनों महंगाई के बड़ते ही हमारे भटूरों के रेट भी बढ़ गए ,दिवाली तक 10 रुपए प्लेट आने वाले भटूरे अब 15 रुपए प्लेट हो गए हैं .हाय री मंहगाई मेरे भटूरों को तो छोड़ देती ! कभी मूड बने तो आएये यारों के साथ शाम को 6 के बाद आप खुश किस्मत होंगे की जाते ही बैठने की जगह मिल जाए .

आप देखिये की किस तरह से भटूरे बनते ,कैसे खाते हैं खाने का तरीका सीखिए फिर ही खाने को मिलेगा .बीते कई सालों से तीन दुकाने जम के धूम मच रही है . और फिर हमारा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसे ही नही है इसलिए कुछ फोटो भी दे रहे हैं लगाइए ..... चटकारे .

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तुम्हारा होना

तुम नहीं हो
तुम्हारी सीट खाली है
दराज में रखा तुम्हारा कप
सोच रहा है कि तुम आओगी
वह तुम्हारा इंतजार कर रहा है
तुम्हारी सीट पर कोई और बैठेगा
तो कप को बहुत खराब लगेगा
शायद वो मना भी करे
या फिर गिरकर टूट ही जाए
अगर कप टूट गया
तो यहां और भी बहुत कुछ टूटेगा...