समकालीन समाज में मीडिया की भूमिका

समाजिक चेतना जागृत करने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है मीडिया, जो अपनी प्रभावी प्रस्तुतियों के माध्यम से समाज को सिर्फ दिशा देता है बल्कि उसके दिशा निर्देशों को ध्यान में रखते हुए उसे संचालित भी करता है। समकालीन समाज में मीडिया समाज की अग्रगामिता को आगे बढ़ाने का प्रयास भी कर रहा है। लेकिन सवाल यह है वैश्वीकरण तकनीकी के इस युग में समाज में हो रहे परिवर्तनों को भांपने की उसकी क्षमता कुंद होती जा रही है। आखिर क्यों ? यह सवाल बाजारवादी प्रवृत्ति के मीडिया के लिए कोई मायने भले ही रखता हो लेकिन इससे मीडिया की साख खतरे में पड़नी शुरू हो चुकी है। आज मीडिया उन मूल्यों आदर्शों को तिलांजली देने पर तुला है जिसे आजादी के पहले और उसके बाद के वर्षों में पत्रकारिता की बुनियाद समझा जाता था।
समकालीन समाज में मीडिया क्रिकेट, क्राइम, फैशन शो, बॉलीवुड और रियलिटी शो के भंवर में फंसा हुआ है। कुछ स्टिंग आपरेशन से छुपी हुई सच्चाईयां जरूर निकाल रहा है लेकिन उससे ज्यादा वह स्टिंग के नाम पर मनमानी कर रहा है। उपभोक्तावादी संस्कृति के संरक्षण में पल रहा मीडिया केवल उन्हीं खबरों और मुद्दों पर खुद को केंद्रित कर रहा है जिससे उसे अपने बाजार चलाते रहने की प्रक्रिया बाधित हो।

श्रमिक वंचित तबके के विकास में मीडिया की भूमिका
अगर सरकारी तंत्र के मीडिया को छोड़ दें तो हम पाते हैं कि आज का मीडिया गरीब श्रमिकों की जमीनी परेशानियों पर चंद शब्द लिखने बोलने में भी परहेज करता है। क्योंकि वह जानता है कि इस तरह की ख़बरों का कोई लेनदार नहीं है। पर दर्शक, श्रोता, पाठक और लिए ही वे विज्ञापनदाता जिनके भरोसे मीडिया का बाजार टिका है। इसके वंचित तबकों तक नहीं पहुंचने के कारण भी साफ है कि इनमें सामूहिक शक्ति राजनीतिक शक्ति का अभाव होता है।

हिंसाग्रस्त इलाकों में मीडिया की भूमिका
26 नवंबर 2008 की मुंबई की घटना में आतंकवादी घटना के कवरेज को लेकर पूरी दुनिया में भारत का मीडिया कटघरे में खड़ा हो गया था। खासतौर पर टीवी चैनलों की भूमिका की सर्वत्र निंदा की गई। इस एक घटना के 60 घंटे के लाइव कवरेज ने सेना तथा पुलिस की कठिनाइयां बहुत हद तक बढ़ा दी थी। इससे आम जनता में भी दहशत का माहौल कायम हो गया था।
इसी घटना के प्रकरण में टीवी चैनलों की भूमिका से पता लगने लगा कि अग मीडिया से सरोकार के शब्द लुप्त होते जा रहे हैं। इस घटना में टीवी ने ताज को जितना कवरेज दिया उतना शिवाजी टर्मिनस को नहीं दिया। इसका कारण साफ था कि ताज में बड़े लोग मारे गए थे जो मीडिया के बाजार में उपभोक्ता थे, जबकि शिवाजी टर्मिनस के लोग उसके दायरे में नहीं आते थे।
हालांकि उग्रवाद तथा आतंकवाद प्रभावित इलाके से मीडिया ख़बर जरूर निकाल रहा है लेकिन अपने हिसाब से।
लेकिन सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि मीडिया ने हिंसाग्रस्त इलाकों में आतंकियों की धमकी के बावजूद पत्रकारीय धर्म को निभाया है। उदाहरण के लिए वर्ष 2005 तक कश्मीर में 28 पत्रकारों को शहादत देनी पड़ी है। वर्ष 2006 में असम में उल्फा की धमकी के बाद भी मीडिया ने अपना धर्म निभाया था लेकिन इसमें उनको परेशानियां भी झेलनी पड़ी थीं।
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मोमोस अ़ब चायनीज हो गए हैं

मोमोस हमारी दिल्ली के हर मार्केट मिलते हैं । लोग बड़े शोक से खाते हैं । हर इस्टाल(कभी खोप्चों में भी ) पे ये चायनीज डिश के रूप में परोसे जाता है । और हम लोग उसे चायनीज ही समझ कर खाते हैं । कोई ये नही जनता की ये चायनीज नही तिब्बत की डिश है और तिब्बत चीन का हिस्सा नही है । ये अलग बात है चीन उसे अपना हिस्सा मानता है लेकिन दोस्तों आप को हम ये बता दें की अगर आप किसी व्यंजन का स्वाद सिर्फ़ पैसों में लेने चाहते हैं तो ये सही नही है । क्योंकि हर व्यंजन की एक संस्कृति और परिवेश होता है और आप को उसे जानना चाहिए, और एसे अवसर पर जब की कोई देश किसी का इतिहास बदल रहा हो और उसकी संस्कृति को ख़तम कर रहा हो । आप लोगों को पता होगा की तिब्बत अपने अस्तित्व की लडाई लड़ रहा है । और चायना उसे और उसके कल्चर को भी ख़तम कर रहा है । जेसे की मोमोस अब चायनीज होने लगे । मेरा आप लोगों से अनुरोध है की मोमोस तिब्बत की डिश है न की चायना की । खाने साथ थोड़ा साजिदा होने की जरुरत है और हाँ यदि आप भी तिब्बत के चौके ( रसोई ) के बारे में जानना चाहते हैं तो इस लिंक पर देखें http://recipes.wikia.com/wiki/Tibetan_Cuisine चटकारे लगायें
औ आपको मोमो कैसे लगते हैं बताइयेगा

ऑनलाइन मिली माँ दुर्गा

दिल्ली जेसे शहर में रहना कई मायनों में बहुत अलग हो जाता है । रोज की उथल पुथल में पुरा दिन कब बीत जाता है पता ही नही चलता । अभी कुछ दिन पहले गणेश उत्सव इसे ही चला ही गया कहीं कोई गणपति जी की प्रतिमा नही , न ही कोई भजन , न कोई उत्सव । फ़िर पुरखों के दिन भी यूँ ही निकल गए । १ दिन भी नही मिला की याद कर लें उन लोगों को जिनकी वजह से आज हम हैं लेकिन ये दुनिया इसी ही है यारों । अब जब की नवरात्र के ५ दिन निकल गए हैं कहीं कोई हलचल नही सुनाई दी । इन्टरनेट पर बेठे बेठे लगा की अचानक यौतुबे पे माँ दुर्गा के भजन सुनने लगे और पुराने दिन की याद तजा हो गई । दोस्तों से चेट करते करते लगा की माँ दुर्गा ऑनलाइन आ गई हैं और कह रही हैं की बेटे मै तो तुम्हारे पास ही हूँ बस तुम आपने से दूर चले गए हो । लेकिन तुम परेशां मत हो ये तकनीक भी मैंने ही बनाई इसलिए आज मुझे ऑनलाइन आना पड़ा क्योंकि तुम ऑफ़ लाइन थे । जय माता की ।

ऑनलाइन मिली माँ दुर्गा


original artical on http://sarparast.blogspot.com/2009/09/blog-post_1475.html

लोकतंत्र में संचार माध्यमों की भूमिका

रवि शंकर सिंह
आजादी से लेकर आज तक लोकतंत्र के इस सुहाने सफर में संचार माध्यमों की भूमिका तलाशने पर हम पाते हैं कि समय के साथ-साथ इनकी भूमिका भी बदलती रही है। जैसे 1970 तक पत्रकारीय मूल्य मर्यादाएं प्रभावी थी पर उसके बाद व्यावसायिकता का दौर शुरू हुआ और आज तो संचार माध्यमों पर बाजारवादी प्रवृत्तियों का खासा प्रभाव देखा जा सकता है। संचार माध्यमों अर्थात मीडिया की भूमिका को स्पष्ट करने के लिए हमें इसकी कार्यप्रणाली, वर्तमान स्थिति, लोगों तक पहुंच, विषय वस्तु इत्यादि पर भी नजर डालना होगा।
मीडिया की भूमिका का अध्ययन एक दिलचस्प मामला भी इस कारण हो जाता है क्योंकि यह एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें निरंतर परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। हम इसकी भूमिका को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों संदर्भों में दिखा सकते हैं, लेकिन बेहतर होगा कि इसकी सपाट व्याख्या की जाए, ताकि सच का सामना मीडिया स्वमेव कर सके।
विकास योजनाएं : मीडिया की भूमिका
चूंकि भारत एक कल्याणकारी राज्य है और इस नाते वह आम जनता के विकास के लिए तमाम विकास योजनाओं को क्रियान्वित करता है। ये सभी योजनाएं लोगों के प्रगति को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। आजादी से लेकर वर्तमान तक सरकारी एवं गैर सरकारी विकास योजनाओं को जनता तक पहुंचाने तथा उसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित कराने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सवाल शिक्षा का हो अथवा चिकित्सा या अन्य बुनियादी विकास का मीडिया के कारण ही ये जनता तक पहुंच पा रहा है। उदाहरण के लिए आज अगर भारत पोलियो मुक्त देश बनने के कगार पर है तो इसमें मीडिया की जबर्दस्त भूमिका है क्योंकि पोलियो उन्मूलन के लिए लोगों में लोक चेतना जागृत करने का काम मीडिया ने ही किया।

दलितों के उत्थान के संदर्भ में मीडिया की भूमिका
दलितों का प्रश्न देश से तो जुड़ा ही हुआ है, मीडिया से भी जुड़ा है। आजादी के 62 वर्ष बीत जाने पर भी हम देश में आर्थिक-सामाजिक खाई को पाटने में अक्षम रहे। दलितों का प्रश्न हमारे विकास के दावों की पोल खोलने वाला है। मीडिया ने आजादी के बाद लगभग तीन दशक तक इनके प्रश्न व इनकी आवाज को उठाने की मुहिम जरूर शुरू की थी लेकिन कालांतर में मीडिया पर बाजार की पकड़ बनने के बाद दलित समेत सभी कमजोर समूहों को जगह देने में मीडिया को मुश्किल होने लगी। हालांकि दलित तबके में जो भी चेतना जागृत हुई है उसमें मीडिया की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी सही है मीडिया ने जब से ख़बर का उत्पादन करना शुरू किया वैसे-वैसे उत्पादन से दलित प्रश्न व उनसे जुड़े मुद्दे दरकिनार होने लगे। यह दिगर बात है कि मीडिया इस बात को नहीं समझ रहा है कि भारत में सबसे तेजी से दलितों में चेतना जागृत होनी शुरू हुई है।
इसी कारण आज यह बात समझ लेना चाहिए कि भूमंडलीकरण की व्यवस्था में दलित खुद एक सशक्त स्तंभ बनकर उभर रहे हैं।
इसी कारण सिच्चदानंद सिन्हा जैसे चिंतक दलित एवं आदिवासियों के विकास पर बल दे रहे हैं क्योंकि इससे ही भारत की स्थिति मजबूत हो सकेगी।

ग्रामीण विकास में मीडिया की भूमिका
आज के संदर्भ में हम ग्रामीण विकास की बात करें तो स्थिति गंभीर मालूम पड़ती है। हालांकि अब तक ग्रामीण विकास को वर्तमान स्तर तक लाने में मीडिया ने दखल जरूर दी है। लेकिन 1991 के उदारीकरण और फरवरी 2009 में मीडिया में विदेशी निवेश भी छूट के बाद अब स्थिति बदलने की संभावना है और बदली भी है। हालांकि मीडिया में विदेश निवेश 25 जून 2001 को ही अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा मंजूरी दे दी गई थी। इसके बाद से ग्रामीण विकास के मुद्दों को दरकिनार करने की खतरनाक कोशिश की गई जो अब तक बदस्तूर जारी है।
भोपाल में राजबहादुर पाठक स्मृति व्याख्यानमाला में `मीडिया की विफलताएं` विषय पर बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार श्री राम बहादुर राय ने कहा कि आज मीडिया से ग्रामीण मुद्दे और हाशिए के लोग दूर होते जा रहे हैं, जिसके पीछे मुख्य वजह है मीडिया में विदेशी पूंजी की छूट। श्री राय ने ग्रामीण मुद्दों, हाशिए के लोगों और वंचितों की आवाज का विकल्प खोजने के लिए हमें समानांतर मीडिया को विकसित करना होगा।
अगर संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि चाहे अखबार हो अथवा न्यूज चैनल या सिनेमा इनसे ग्रामीण विकास के मुद्दे और गांव गायब होते जा रहे हैं। फिर इनके गायब होते जाने का सिलसिला नया नहीं है। इसका संबंध तत्कालीन भारत में अपनायी गयी विकास की खास पद्धति से भी रहा है, जिसने नगरीकरण को बढ़ावा दिया है और गांव को राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से बाहर फेंक दिया है।

भाषा के विकास में मीडिया की भूमिका
लेकतंत्र को उद्देश्यपूर्ण तथा अनवरत प्रवाहमान बनाए रखने में भाषा की भूमिका खासा महत्व भी होती है। इस लिहाज से हम देखते हैं तो पता चलता है कि मीडिया ने आजादी के बाद नब्बे के दशक तक भाषा की मर्यादा को बनाए रखा। लेकिन इसके बाद मीडिया के सभी घटकों ने प्रतिस्पर्धा के कारण सनसनीखेज और चटकारेदार जिस भाषा को प्रश्रय देना शुरू किया, वह आज चिंता का विषय बनी हुइ्रZ है।
भोपाल में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में `भाषा, संस्कृति व मीडिया` विषय पर श्री रमेश नैयर, प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज, सूर्यप्रकाश दीक्षित, केसी पंत, पुष्पेंद्रपाल सिंह, रमेशचंद्र शाह और प्रभु झिंगरन ने मीडिया में प्रयोंग की जा रही भाषा को लेकर चिंता जाहिर की। यह चिंता वाजिब भी है क्योंकि आज मीडिया से भाषा की तहजीब व तमीज गायब होते जा रहे हैं।
भाषा राष्ट्र के विकास का प्रमुख हथियार होती है लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि भारत का मीडिया आज टीआरपी की होड़ में लोकतांत्रिक मूल्यों को तरजीह नहीं दे रहा है। चूंकि भाषा स्वयं की संस्कृति लेकर चलती है जिससे लोकतंत्र समृद्ध होता है। यह बात मीडिया के जेहन में रखने की होनी चाहिए।

कल हम पढेंगे समकालीन समाज में मीडिया की भूमिका


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