संचार माध्यम : एक संक्षिप्त परिचय

संचार माध्यमों से पहले संचार को जानना जरूरी है। संचार शब्द अंग्रेजी के कम्युनिकेशन का हिंदी रूपांतर है जो लैटिन शब्द कम्युनिस से बना है, जिसका अर्थ है सामान्य भागीदारी युक्त सूचना।
चूंकि संचार समाज में ही घटित होता है, अत: हम समाज के परिप्रेक्ष्य से देखें तो पाते हैं कि सामाजिक संबंधों को दिशा देने अथवा निरंतर प्रवाहमान बनाए रखने की प्रक्रिया ही संचार है। संचार समाज के आरंभ से लेकर अब तक के विकास से जुड़ा हुआ है।
परिभाषाएं-
प्रसिद्ध संचारवेत्ता डेनिस मैक्वेल के अनुसार, " एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक अर्थपूर्ण संदेशों का आदान प्रदान है।
डॉ. मरी के मत में, "संचार सामाजिक उपकरण का सामंजस्य है।"
लीगैन्स की शब्दों में, " निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया निरंतर अंतक्रिZया से चलती रहती है और इसमें अनुभवों की साझेदारी होती है।"

राजनीति शास्त्र विचारक लुकिव पाई के विचार में, " सामाजिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण ही संचार है।"
इस प्रकार संचार के संबंध में कह सकते हैं कि इसमें समाज मुख्य केंद्र होता है जहां संचार की प्रक्रिया घटित होती है। संचार की प्रक्रिया को किसी दायरे में बांधा नहीं जा सकता। फिर संचार का लक्ष्य ही होता है- सूचनात्मक, प्रेरणात्मक, शिक्षात्मक मनोरंजनात्मक।

संचार माध्यम से आशय :- संचार माध्यम से आशय है संदेश के प्रवाह में प्रयुक्त किए जाने वाले माध्यम। संचार माध्यमों के विकास के पीछे मुख्य कारण मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना है। वर्तमान समय में संचार माध्यम और समाज में गहरा संबंध एवं निकटता है। इसके द्वारा जन सामान्य की रूचि एवं हितों को स्पष्ट किया जाता है। संचार माध्यमों ने ही सूचना को सर्वसुलभ कराया है। तकनीकी विकास से संचार माध्यम भी विकसित हुए हैं तथा इससे संचार अब ग्लोबल फेनोमेनो बन गया है।
संचार माध्यम अंग्रेजी के "मीडिया"से बना है, जिसका अभिप्राय होता है दो बिंदुओं को जोड़ने वाला। संचार माध्यम ही संप्रेषक और श्रोता को परस्पर जोड़ते हैं। हेराल्ड लॉसवेल के अनुसार, संचार माध्यम के मुख्य कार्य सूचना संग्रह एवं प्रसार, सूचना विश्लेषण, सामाजिक मूल्य एवं ज्ञान का संप्रेषण तथा लोगों का मनोरंजन करना है।
संचार माध्यम का प्रभाव समाज में अनादिकाल से ही रहा है। परंपरागत एवं आधुनिक संचार माध्यम समाज की विकास प्रक्रिया से ही जुड़े हुए हैं। संचार माध्यम का श्रोता अथवा लक्ष्य समूह बिखरा होता है। इसके संदेश भी अस्थिर स्वभाव वाले होते हैं।
फिर संचार माध्यम ही संचार प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाते हैं।


संचार माध्यमों की प्रकृति :- भारत में प्राचीन काल से ही संचार माध्यमों का अस्तित्व रहा है। यह अलग बात है कि उनका रूप अलग-अलग होता था। भारत में संचार सिद्धांत काव्य परपंरा से जुड़ा हुआ है। साधारीकरण और स्थायीभाव संचार सिद्धांत से ही जुड़े हुए हैं। संचार मुख्य रूप से संदेश की प्रकृति पर निर्भर करता है। फिर जहां तक संचार माध्यमों की प्रकृति का सवाल है तो वह संचार के उपयोगकर्ता के साथ-साथ समाज से भी जुड़ा होता है। चूंकि हम यह भी पाते हैं कि संचार माध्यम समाज की भीतर की प्रक्रियाओं को ही उभारते हैं। निवर्तमान शताब्दी में भारत के संचार माध्यमों की प्रकृति चरित्र में बदलाव भी हुए हैं लेकिन प्रेस के चरित्र में मुख्यत: तीन चार गुणात्मक परिवर्तन दिखाई देते हैं।
पहला : शताब्दी के पूर्वाद्ध में इसका चरित्र मूलत: मिशनवादी रहा, वजह थी स्वतंत्रता आंदोलन औपनिवेशिक शासन से मुक्ति। इसके चरित्र के निर्माण में तिलक, गांधी, माखनलाल चतुर्वेदी, विष्णु पराडकर, माधवराव सप्रे जैसे व्यक्तित्व ने योगदान किया था।
दूसरा : 15 अगस्त 1947 के बाद राष्ट्र के एजेंडे पर नई प्राथमिकताओं का उभरना। यहां से राष्ट्र निर्माण काल आरंभ हुआ, और प्रेस भी इसके संस्कारों से प्रभावित हुआ। यह दौर दो दशक तक चला।
तीसरा : सातवें दशक से विशुद्ध व्यावसायिकता की संस्कृति आरंभ हुई। वजह थी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का विस्फोट।
चौथा : अंतिम दो दशकों में प्रेस का आधुनिकीकरण हुआ, क्षेत्रीय प्रेस का एक `शक्ति` के रूप में उभरना और पत्र-पत्रिकाओं से संवेदनशीलता एवं दृष्टि का विलुप्त होना।
इसके इतर आज तो संचार माध्यमों की प्रकृति अस्थायी है। इसके अपने वाजिब कारण भी हैं हालांकि इसके अलावा अन्य मकसद से भी संचार माध्यम बेतुकी ख़बरें सूचनाएं सनसनीखेज तरीके से परोसने लगे हैं।


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लोकतंत्र में संचार माध्यमों की भूमिका- शोध पत्र


'लोकतंत्र में संचार माध्यमों की भूमिका' विषय पर एक नया शोधपत्र प्रस्तुत है। इस विषय पर हम लगातार - लेखों की एक श्रृंखला पढेंगे जिसकी शुरुआत एक भूमिका के साथ कर रहे हैं, जिस पर चर्चा आगे जारी रहेगी ।- रवि शंकर सिंह
"लोकतंत्र में संचार माध्यमों की भूमिका" एक ऐसा विषय है जो काफी सामयिक है। इस भूमिका में विश्लेषण अथवा अध्ययन करने से पहले हमें लोकतंत्र एवं संचार माध्यमों की प्रकृति पर एक नजर डालना अतिआवश्यक है। चूंकि आज के दौर में जबकि संचार माध्यमों पर तमाम सवाल खड़े किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ लोकतंत्र के बुनियादी सवाल भी खुद--खुद खड़े हो रहे हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि दोनों पहलुओं की सूक्ष्मता से पड़ताल की जाए।
दरअसल यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि आज मीडिया को लोकतंत्र के एक हिस्से के रूप में देखा जाता है। `फिर इंग्लैंड के महान वक्ता दार्शनिक एडमण्ड बर्म ने ही प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा था। हालांकि बर्म महोदय का आशय था कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के तीन स्तंभ हाउस ऑफ कामंस, हाउस ऑफ लॉर्डस और स्प्रितुअल लार्डस के बाद चौथा स्थान प्रेस का ही है` फिर भारतीय परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि सरकार के तीन स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका न्यायपालिका के बाद चौथा स्थान प्रेस अर्थात संचार माध्यमों का है।
स्पष्ट है कि लोकतंत्र में संचार माध्यमों की भूमिका तलाशने के लिए हमें लोकतंत्र में इन स्थितियों को समझने के लिए हमें लोकतंत्र और संचार माध्यम को अलग-अलग देखते हुए दोनों में समन्वय का संबंध खोजना जरूरी है।

लोकतंत्र: एक संक्षिप्त परिचय
लोकतंत्र का अंग्रेजी शब्द 'डेमोक्रेसी' यूनानी भाषा से निकला है। यह दो ग्रीक शब्दों डेमोस तथा क्रैटोस से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है जनता का शासन। इसे अलग-अलग विद्वानों ने निम्न ढंग से परिभाषित किया है :-


प्राचीन इतिहासकार हेरोडोटस के अनुसार, "लोकतंत्र उस शासन का नाम है जिसमें राज्य की सर्वोच्च सत्ता संपूर्ण जनता में निवास करती है।"


अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहन लिंकन के अनुसार, "लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है।"


सीले के शब्दों में, "लोकतंत्र वह शासन है जिसमें प्रत्येक मनुष्य भाग लेता है।"


स्ट्रॉंग के अनुसार, "लोकतंत्र का अभिप्राय ऐसे शासन से है, जो शासितों की सक्रिय स्वीकृति पर आधृत है।"

इस प्रकार हम पाते हैं कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। बीते 59 सालों में हमने लोकतंत्र की मजबूत नींव रखी है। लोकतंत्र की बुनियादी मान्यता है कि ``समाज में शांतिपूर्ण और वैधानिक उपायों से बदलाव लाया जा सकता है। सहभागिता लोकतंत्र की बुनियाद है और इसके लिए भारत में पंचायती राज कानून काफी सशक्त भूमिका निभा रहा है।

गौरतलब यह है कि भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाने के लिए मीडिया की प्रमुख भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। एक स्वस्थ्य लोकतंत्र में सबसे जरूरी बात यह होनी चाहिए कि जनता के नाम पर चलने वाले जनतंत्र में आम जनता की शिरकत कितनी है। खासतौर पर लोकतंत्र में लोकचेतना जागृत करना भी जरूरी है। इससे इस व्यवस्था में सबको बराबर न्याय मिलने की उम्मीद की जा सकती है।

लोकतंत्र की प्रमुख विशेषताओं में स्वतंत्रता, समानता, स्वतंत्र और निष्पक्ष नयायपालिका, निष्पक्ष चुनाव इत्यादि है। सुखद तथ्य है कि बहुत विशेषताएं भारत में दिखती है। लोकतंत्र की सफलता को सुनिश्चित कराने वाला मीडिया काफी गुरूतर भूमिका निभाता है।

लोकततंत्र की प्रकृति :- भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और यहां लोकतांत्रिक मूल्य आजादी से लेकर वर्तमान तक जीवंत बने हुए हैं। दरअसल लोकतंत्र राजनीतिक परिस्थिति ही नहीं है या सामाजिक परिस्थिति मात्र नहीं बल्कि वह शासन और जीवन की लोकजयी नैतिक धारणा भी है। लोकतंत्र केवल शासन चलाने की पद्धति मात्र नहीं है, वह एक विकासशील दर्शन है और साथ ही वह जीवनयापन की एक गतिशील पद्धति भी है। लोकतंत्र में त्रुटियां हो सकती हैं किंतु शासन का यह सर्वोत्तम साधन अभी भी है और आगे भी रहेगा, क्योंकि उसमें विकास की क्षमता है।

देश की आजादी के साथ ही `प्रजा` का रूपांतरण `जनता` में हो गया। संविधान के अनुसार ही देश का कामकाज चलने लगा और इसके तहत ही विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का गठन हुआ।

"चूंकि लोकतंत्र का मकसद भी यही होता है कि तमाम सामंती चिन्ह, भाषा, व्यवहार तिरोहित हों और लोकतांत्रिक संस्कृति विकसित हो।" यहां गौरतलब बात यह है कि लोकतांत्रिक संस्कृति विकसित करने में संचार माध्यम महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। खासतौर पर अगर भारत की स्थिति पर गौर फरमाया जाए तो समूचे दक्षिण एशिया में भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां लोकतंत्र की जड़ें निरंतर मजबूत और स्थायी बनती जा रही है। भारत से सटे श्रीलंका, बर्मा, पाकिस्तान, बांग्लादेश सहित अन्य देशों में जो हालात हैं उनसे भारत काफी बेहतर स्थिति में है। लोकतंत्र के द्वारा नैतिकता, ईमानदारी, आत्मनिर्भरता, दृढ़ता एवं कर्म शक्ति की पूर्ति लोकमानस में होती है तथा वोटों की शक्ति के आधार पर जनता लोकतंत्र को संचालित करती है जिसमें प्रत्येक स्तर पर मीडिया का दायित्व दिखता है।

चुनौतियां :- हालांकि लोकतंत्र को वर्तमान में लहूलुहान करने में आतंकवाद प्रमुख रहा है। इसके अलावा लोकतंत्र पर बाजारवाद का कसता शिंकजा भी प्रश्न खड़े करता है। फिर कुछ मामलों ने इस तंत्र की साख पर बट्टा भी लगाया है लेकिन बीते 59 वषोZ में हमने लोकतंत्र की जो मजबूत नींव रखी है, वह आज भी संपूर्ण विश्व के लिए अनुकरणीय है। यह परिपक्व लोकतंत्र का संकेत है जिसमें संचार माध्यमों को दरकिनार नहीं कर सकते।



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भारतीय लोकतंत्र में चुनाव सुधार - निष्कर्ष एवं सुझाव

आज इस शोध कार्य का निष्कर्ष अंक है , ब्लॉग पर शोध कार्य प्रस्तुत करने का विचार बहुत ही नाज़ुक था और कारण बहुत ही व्यापक, हिन्दी में अन्तर जाल खोजने पर बेहतर परिणाम आएं और उसमें हम भी भागीदार होना चाहते थे ।
इस शोध कार्य के पिछले लेखों की लिंक यहाँ मौजूद है ।
  1. चुनाव प्रक्रिया एवं चुनाव सुधार - शोध कार्य
  2. भारतीय लोकतंत्र की चुनाव प्रक्रिया
  3. भारतीय चुनाव सुधार
आज का ये अंक निष्कर्षों पर आधारित है .
भारत इतना विशाल और विभिन्नताओं से भरा देश है कि यहां एक साथ इतने बड़े पैमाने पर चुनाव कराना एक आश्चर्य है। पहाड़, नदी, रेगिस्तान, जंगल, मौसम आदि कई समस्याएं चुनाव आयोग के सामने आती हैं।
किसी भी व्यवस्था में सुधार या संसोधन उस व्यवस्था को संपूर्णता प्रदान करती है। इस लिहाज से लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव सुधार काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। चुनाव सुधार भी एक सतत चलने वाली लंबी प्रक्रिया है और परिस्थितियों के हिसाब से इसमें लगातार परिवर्तन आते रहेंगे।

भोपाल में " लोकतंत्र की उभरती चुनौतियां और हमारा संविधान " विषय पर अक्षरा बसंत व्याख्यान माला में बोलते हुए वरिष्ठ संविधानविद् श्री सुभाष कश्यप ने कहा कि पिछले 15 लोकसभा चुनाव और सैकड़ों विधानसभा चुनाव की सफलता को भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ी उपलब्धि है। हालांकि वे मानते हैं कि निर्वाचन प्रक्रिया और राजनैतिक दल व्यवस्था में अब भी काफी सुधार की गुंजाइश है।
आज भी जमीनी स्तर पर चुनाव प्रक्रिया को दुरूस्त करना बेहद जरूरी है। लोकसभा के पूर्व महासचिव श्री सीके जैन इसे मिशन के रूप में आगे बढ़ाने की अपेक्षा कर रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या है कि अपराधियों को चुनाव लड़ने और संसद एवं विधानसभाओं तक पहुंचने से कैसे रोका जाएर्षोर्षो इसका हल ढूंढने में वक्त लग सकता है लेकिन यह हमारे लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है। इसके अलावा एक बड़ी चुनौती है लगातार महंगे हो रहे चुनावों से निपटने की। एक अनुमान के अनुसार 2009 के आम चुनाव में 2,100 करोड़ रूपये फूंके गये जबकि 2004 के आम चुनाव में 1,300 करोड़ रूपये खर्च हुए थे। चुनाव आयोग को इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
वक्त की कमी के कारण चुनाव सुधार संबंधी कुछ सुझाव देकर अपना शोध पूरा करना चाहूंगा।
  • चुनाव के वक्त शराब बांटने की प्रवृत्ति को देखते हुए शराब बिक्री पर लगभग मतदान के 3 दिन पहले से पाबंदीलगाई जाए।
  • वोटिंग सिस्टम में और सुधार की जरूरत है, कई नौजवान अपना वोट नहीं दे पाते क्योंकि अपने काम केसिलसिले में वे किसी अन्य शहर में होते हैं। ऑनलाइन वोटिंग प्रणाली भी शुरू की जानी चाहिए।
  • मतदान को अनिवार्य किया जाना चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा मत पड़ सकें और बेहतर जनप्रतिनिधि चुनकरआ सकें।
  • विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ-साथ हों तो इससे चुनाव पर खर्च होने वाला पैसा और समय दोनों बचायाजा सकता है।
  • आचार संहिता को और ज्यादा कठोर बनाया जाए ताकि किसी भी तरीके के दुरूपयोग को रोका जा सके।
  • चुनाव आयोग को और अधिक अधिकार देने होंगे, साथ ही चुनाव आयोग को गंभीर मसलों पर कड़े कदम उठाने कीआवश्यकता है।
"हर बार सही इस बार तो सुनेगा दिलबर,काश तेरे देश का दिल मेरे देश के जैसा होता "

कैसा लगा ये प्रयास , ज़रूर बताएं । त्रुटियों को चिन्हित करें , हमें खुशी होगी


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भारतीय चुनाव सुधार

पिछले अंक में हमने भारत में चुनाव प्रक्रिया को समझा , लोकतंत्र में संविधान को प्रमुख और सर्वोच्च मान कर लोकतान्त्रिक कार्यों का संचालन होता है, चुनाव प्रक्रिया में हम एक महत्वपूर्ण बात बताना चूक गए जिस पर हमारा ध्यान राज भाटिया जी ने एक टिपण्णी के मध्यम से दिलाया के - span style="font-style: italic;">बहुमत वाले दल को ५४३ सीटो मे से कितनी सीटे चाहिये अपना बहुमत साबित करने के लिये, ओर कम से कम कितने प्रतिशत मत दान होना चाहिये - सभी भारतीय चुनावों में बहुमत वाले दल अपना बहुमत साबित करने के लिए कम से कम 50% मतों या सीटों का मिलना ज़रूरी होता है । लोकसभा के 543 सदस्यों वाले सदन में कम से कम 272 सीटें अपना बहुमत साबित करने आवश्यक हैं । पर फिलहाल तो हम भी ये ढूँढने में असमर्थ रहे के न्यूनतम मतदान प्रतिशत कितना होना चाहिए एक चुनाव को वैध कहलाने के लिए ।
आज हम चुनाव सुधारों पर बात करेंगे
चुनाव सुधार के मुद्दे पर इस मुल्क में पिछले कई दशकों से बहस जारी है। चुनाव सुधार की बातें प्राय: सभी पार्टियां कर रही हैं और करती रहीं हैं। लेकिन आवश्यक सुधार आज तक नहीं हुए।
भारत के चुनावों में 1967 के बाद वृहद रूप से गलत प्रवृत्तियां उभरीं। यह प्रवृत्तियां थीं- धन, बल, जोर-जबर्दस्ती, जाति, चुनावी हिंसा, दलबदल, संप्रदाय और सत्ता के दुरूपयोग की प्रतृत्ति। यह प्रवृत्तियां चुनाव प्रणाली को दूषित करने लगी। संसद और विधानसभाओं के लिए होने वाले चुनावों में इसकी स्पष्ट छाप दिखाई देने लगी और अब इन तंत्रों के सहारे लोकतंत्र के इन सर्वोच्च संस्थाओं में अपराधियों की भरमार होने लगी है।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने 10 फरवरी 1992 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने चुनाव सुधार पर मई 1990 में पेश पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी समीति की रिपोर्ट को लागू करने की सिफारिश की थी। ऐसा नहीं है कि यह चुनाव सुधार के लिए पहली रिपोर्ट थी, इससे पहले भी इस कार्य हेतु कई रिपोर्ट आ चुकी हैं।
चुनाव आयोग ने 1970 में विधि मंत्रालय को चुनाव सुधार से संबंधित अपना पहला विस्तृत प्रस्ताव प्रारूप सहित भेजा था। 1975 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनसंघ, अन्नाद्रमुक आदि दलों की संयुक्त समीति ने अनेक सुझाव दिये। 1975 में आठ दलों ने एक स्मार पत्र दिया, जिसमें कई सुझाव दिए गए थे। स्व. जयप्रकाश नारायण ने प्रसिद्ध न्यायविद् वीएम तारकुंडे की अध्यक्षता में चुनाव सुधार पर विचार के लिए एक कमेटी गठित की। चुनाव आयोग ने 1977 में पूर्व के सभी सुधारों से संबंधित प्रस्तावों की समीक्षा कर 22 अक्टूबर 1977 को एक समग्र प्रतिवेदन भारत सरकार को भेजा। 1982 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एसएल शकधर ने पूर्व के सभी सुझावों की समीक्षा के बाद एक नया प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा। इस तरह लगातार इस संबंध में सुझाव आयोग द्वारा भारत सरकार को भेजे जाते रहे, जिनमें कुछ पर ही अमल हो पाया।
कई संसोधन तो केवल लाभ उठाने के उद्देश्य से ही किए गए, जैसे लगभग 23 वर्ष पहले जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 77 की उपधारा (1) में स्पष्टीकरण 1 जोड़ा गया था। इसके अंतर्गत उम्मीदवार के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा जिसमें उसकी राजनीतिक पार्टी, मित्र और समर्थक शामिल हैं, खर्च किया गया धन, उम्मीदवार के चुनाव खर्च में शामिल नहीं किया जाएगा। इस स्पष्टीकरण के अंतर्गत किसी उम्मीदवार के चुनाव में उसकी पार्टी या समर्थकों द्वारा बेहिसाब धन खर्च किया जा सकता है। अनेक लोगों और उच्चतम न्यायालय ने इस स्पष्टीकरण की आलोचना की है लेकिन निहित स्वार्थ के कारण इसे अभी तक हटाया नहीं गया है।

प्रमुख चुनाव सुधार - एक नजर में

• 1995 के बाद मतदाताओं के पहचान पत्र का उपयोग होने लगा। प्रारंभ में यह केवल मतदान के उद्देश्य को लेकर बनाए गए लेकिन पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस रमा देवी ने इसे बहुद्देशीय बनाने की वकालत की और फिर ऐसा ही हुआ। इसकी अनुशंसा प्राय: सभी समीतियों ने की थी। अब तो पूरे भारत में फोटो पहचान पत्र बनाने का कार्य पूरा हो चुका है।
• अस्सी के दशक में मतदान की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई, इससे मतदाताओं की संख्या में काफी बढ़ोतरी हूई है।
• जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में संसोधन करके 15 मार्च 1989 से मतदान में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल शुरू करने की व्यवस्था की गई। हाल के आम चुनाव में पूरे भारत में ईवीएम के जरिये ही वोटिंग की गई।
• शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग ने चुनावों से पहले लोगों के हथियार नजदीकी पुलिस थाने में दर्ज कराने की परंपरा शुरू की।
• मतदान के दिन आयोग ने शराब की बिक्री पर पूर्णत: प्रतिबंध लगा दिया।
• उम्मीदवार अपने प्रचार में अंधाधुंध धन खर्च ना करें इसके लिए निर्वाचन आयोग ने चुनाव प्रचार संबंधी गतिविधियों की वीडियों रिकॉर्डिंग करवाना शुरू की है।
• चुनाव खर्च पर नजर रखने के लिए आयोग ने लेखा परीक्षकों को प्रेक्षक के रूप में नियुक्त करना शुरू किया है।
• जुलाई 1998 में निर्वाचन आयोग ने सिफारिश की थी कि जिन व्यक्तियों के खिलाफ अदालत आरोप पत्र दायर कर दे, उन्हें विधानमंडल या संसद का चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाए।
• चुनाव आयोग ने उम्मीदवार के एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर, एिक्जट पोल और ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध लगाने, राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपनी आय और खर्च का अनिवार्य रूप से हिसाब रखने और उसकी लेखा परीक्षा कराने की भी सिफारिश की।
• चुनावों को पारदशीZ बनाने के लिए निर्वाचन आयोग ने यह आदेश जारी किया है कि चुनाव लड़ने वाले हर उम्मीदवार को अपनी नामजदगी के पर्चे के साथ शपथ पत्र में अपनी पित्न और आश्रितों की कुल चल और अचल संपत्ति और देनदारियों का विवरण, अपनी शिक्षा, योग्यता का विवरण और यदि कोई आपराधिक पृष्ठभूमी हो तो उसकी जानकारी और अपने खिलाफ दायर आपराधिक मामलों का विवरण देना होगा।
• सरकार ने मतदाता को पहचान पत्र देने के साथ-साथ जाली मतदान रोकने के लिए मतदाता सूचियों में मतदाता की तस्वीर लगाने की व्यवस्था की है। निर्वाचन आयोग के प्रेक्षकों की जांच के परिणामस्वरूप मतदाता सूचियों से लाखों मृतकों के नाम हटाए गए हैं और लाखों नए नाम शामिल किए गए हैं।
• दलबदल कानून 1985 में संसोधन कर इसे और कठोर बनाया गया है।
इसके अलावा भी कई छोटे किंतु महत्वपूर्ण चुनाव सुधार को अंजाम दिया गया है, जिन्हें इस शोध पत्र में सम्मिलित करना संभव नहीं है।
उन सुधारों और प्रस्तावित सुधार प्रस्ताव जो करीब पन्द्रह विषयों में हैं ,इसके आलावा भी करीब सात विषयों में चुनाव सुधार प्रस्ताव लंबित हैं उन विषयों की सूची और वर्णन भारत के चुनाव आयोग की वेबसाइट पर या इस लिंक पर जा का देख सकते हैं ।

आपकी सुविधा के लिए इस पोस्ट के साथ भी Proposed Indian Electoral Reforms नामक फाइल संलग्न है

हमारा प्रयास कैसा लगा इसे बताते रहे और कोई त्रुटी पे जाने पर अवश्य सूचित करें
Proposed Indian Electoral Reforms


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