परदे के पीछे से झांकती आंखें
ऐसा नही के पुरूष प्रधान का एक कोना हमेश से ही महिलाओं को आगे आते देखना चाहता था , और उस ने अपना पूरा काम भी किया, पर समस्या हमेशा ज्यादा लोगों को जोड़ने की रही । स्वामी दयानंद और राजा राम मोहन राय ने 19 वी सदी में जो अलख जगाई थी उसको उनके अनुगामियों या कहें के आने वाली पीडियों ने सिर्फ़ किताबों में दर्ज करने और उपन्यास लिखने के आलावा बहुत कुछ नही किया ।
बीती आधी सदी में जहाँ महिलाओं के उत्थान में कथित रूप से सबसे ज्यादा कार्य हुआ है वहीं उनकी व्यावहारिक स्थिति सबसे कमजोर जो गई है ।
नतीजतन आम महिलाओं को ऐसा लगने लगा है के उनसे सम्बंधित फैसलों में पुरूष प्रधान समाज हमेशा दुराभाव से पीड़ित ही रहा है और रहेगा । साथ ही हमारे धार्मिक ठेकेदारों ने भी महिलाओं के अस्तित्व को ईमानदारी से देखने के लिए कभी प्रेरित नही किया ।
फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबन्ध लगाने की बात उठी है , सरकोजी ने 32 सांसदों का एक आयोग गठित कर इस पर अपना पक्ष देने की बात कही है , सरकोजी ने कहा है की बुर्का गुलामी की निशानी है और इसे हम अपने देश में बर्दाश्त नही करेंगे , उनका इतना कहना हुआ के विश्व भर के मुस्लिम अमाज ने अपना विरोध जाताना शुरू कर दिया है । कुरान और हदीसों के जानकारों के अनुसार किसी भी इस्लामिक धर्म ग्रन्थ में बुर्का शब्द का भी प्रयोग नही है , अलबत्ता हिजाब शब्द ज़रूर उपयोग में लाया गया है । हिजाब , शब्द हेड स्कार्फ के लिए है जिसपर मार्च 2009 में जर्मनी में प्रतिबन्ध लगाया गया , उसका भी इस्लामिक धर्म्ग्रंथियों ने विरोधकिया था ।
इसमे एक दुःख की बात ये भी है की कुछ महिला संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं , विरोध का कारण महिला कपड़े पहनने की आज़ादी से छेड़ छड़ करने का बताया जा रहा है ।
मेरा मानना है की यहाँ कमी महिलाओं के प्रति वैज्ञानिक सोच की कमी है , इस समाज में कहीं भी कोई भी नियम कानून बने सबसे पहले और सबसे आखिरी में उससे पीड़ित होने वाली महिलाएं ही होती हैं , कोई भी ( महिलाएं भी ) ये जानने का प्रयास नही करती के ये प्रथा , ये नियम, ये कानून आखिर बने क्यों और कब तक इनको ढोया जाए । बुर्का प्रथा या हिंदू परिवारों में घूंघट प्रथा क्यों शुरू हुई ये कोई जानने की कोशिश नही करेगा, न ही समझायेगा पर सिर्फ़ उनके फायदे और नुकसानों पर बात होगी ।
भारत और विश्व की महिलाओं को चाहिए के एक हों और एक होकर अपने अधिकारों की बात करें ।
हम यहाँ आने वाली कड़ियों में कुछ बातों को वैज्ञानिक रूप से समझने की कोशिश करेंगे , और विमर्श करेंगे की कैसे समाज के बदलावों में वैज्ञानिक नज़रिया ज़रूरी है और कैसे विज्ञान को बदलावों के साथ जोड़ा जा सकता है.
शेष अगली कड़ी में .....
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थम गए नेता जी ब्लॉग
अरे हालत तो ये हैं के नेता जी , अरे नाम तो बोला है नही, अरे अपने अडवाणी जी के ब्लॉग पर आखिरी पोस्ट 1 मई को छपी थी और उस पर पहली टिप्पणी 11 मई को देखने को मिली । खैर ये तो अच्छा है के देश में दूसरे लोगों को भी सूचना प्रोद्योगिकी के बारे में जानते हैं नही तो ये भइया तो कुछ भी बोलकर वोट ले जाते ।
बात सूचना प्रोद्योगिकी की है तो मध्यप्रदेश कैसे पीछे रह सकता है , तो बन गया ब्लॉग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का लिखते हैं या लिखवाते हैं समझ नही आता पर इनको पढ़कर ये नही लगता के कोई मुख्यमंती लिख रहा है , मुझे तो इस बात प् भी संशय है की ये हैं भी या नही , पर जो भी कहो पाँव पाँव वाले भइया की चलती खूब है , गाँव गाँव में इनकी पहुँच तो है ही साथ ही पहली ही पोस्ट पर टिप्पणिओं का आंकडा 110 पार जाने से इनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है , और ये भी नही के कोई भी लिख गया , हिन्दी ब्लॉग्गिंग के जाने मने नाम उनके ब्लॉग पर टिप्पणी करते हुए पाए गए हैं, पर अब वे भी लिखने पर कम ही विश्वास करते हैं , ऐसे में मेरी तो उनको ये ही राय है की साहब ब्लोगिंग व्लोगिंग छोड़ कर ट्विट्टर पर चेह्चाहना शुरू कर दें कम लिखें और लोगों को अपनी गतिविधिओं के बारे में बताते रहे । ज्यादा टेंशन भी नही है , कुछ नही किया तो लिख दें , "आज कोई काम नही है, तालाब जायेंगे मिटटी खोदने "शायद कोई आ जाए ।
ऐसा नही है की ब्लॉग सिर्फ़ इनने ही बनाये हैं , ब्लॉग तो हमारे नरेन्द्र सिंह तोमर जी ने भी बनाया है , उस ब्लॉग से सुंदर उस पर उनकी तस्वीर लग रही है । पर ये तो बस ये ही कहते हैं ,
की ये न थी हमारी किस्मत के विसाले पाठक,
अगर और लिखते रहते तो भी ये ही हाल होता ।
इन के ब्लॉग पर जो आते भी थे वो भी BJP वाले , तो कब तक लिखते रहते , छोड़ दिया लिखना पढ़ना । 24 अप्रैल से शुरू किया और 2 मई तक अपनी पूरी उर्जा से लिखा बस फ़िर छोड़ दिया । और क्या है अब तो MP हैं !
अभी तक तो हम ऐसे नेताओं की बात कर रहे थे जो राजनीति करते हैं ,पर एक ऐसे नेता जी हैं जो राजनीति बना रहे हैं , बात बस इतनी सी है की वो जीत नही पाए , आदमी अच्छे हैं पर पता नही क्यों राम विलास पासवान से जा मिले , वो कहते हैं न विनाश काले विपरीत बुद्धे । देखने सुनने मैं साधारण आदमी लगते हैं , काम बहुत बड़े बड़े किए हैं पर अपनी एक फ़िल्म में लालू यादव के साले साधू यादव का नाम इस्तेमाल करके बुरा किया , उस ने भी ठान लिया के जितने नही दूंगा । वो ख़ुद हार गया पर प्रकाश झा को भी जितने नही दिया ,
इनका ब्लॉग भी बडिया है , हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में ही आलेख मिलते हैं , लगता है के इनका ब्लॉग तो चलेगा , ये लिखते बडिया हैं , नतीजों के बाद भी इन्होने लिखा है "मैं पराजित पर हारा नही हूँ " पर लोग यहाँ भी नही आते ।
और भी न जाने कितने नेता ब्लागर आए कितने गए पर लगातार पाठक नही साध पाए , आप ही बताएं ऐसा क्यों
एक बात और ट्विटर पर एक संसद महोदय इन दिनों जामे हुए हैं सही मायने में हाई-टेक तो ये ही लगते हैं , शशि थरूर लगातार अपने बारे में लिखते रहते हैं , दिन भर , और हाँ इनकी एक वेबसाइट भी है जहाँ से ये लोगों ये जुड़ते हैं । ये वेबसाइट भी चुनावी है ।
उम्मीद है की ये ब्लॉग मरेंगे नही और हमें कभी न कभी दोबारा इन्हे पढ़ने को मिलेगा
चाँदी के वरक में लपटा भारत
उठो और उठ के निज़ामे जहाँ बदल डालो ,
ये आसमान ये ज़मीन ये मकां बदल डालो ।
ये बिजलियाँ हैं पुरानी ये बिजलियाँ फूंको ,
ये आशियाँ है कदिम आशियाँ बदल डालो ।
गुलों के रंग मैं आग पंखुड़ी में शराब ,
कुछ इस तरह रविशे गुलसिताँ बदल डालो ।
मिज़ाज़-ए-काफिला बदला तो क्या कमाल किया ,
मिज़ाज़-ए-रहबारे कारवाँ बदल डालो ।
'हयात' कोई कहानी नही हक़ीकत है,
इस एक लफ्ज़ से कुल दास्ताँ बदल डालो ।
शर्म आने लगी है ऐसे भेड़ियों को चुनने में
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लोकलज्जा भंग होने का प्रतीक है जरनैल का जूता
थोड़ा सा और गहरे में जाएं तो क्या ये भी सही नहीं है कि 60 साल के लोकतंत्र की हालत अब भी इस कदर कमजोर है कि एक पत्रकार का जूता इसमें हिलोरें पैदा कर सकता है। सवाल जरनैल के जूते से सज्जन और टाइटलर के टिकट काटकर जन भावनाओं के सम्मान का नहीं है (जैसा कांग्रेस कह रही है) यदि हिंदुस्तान के राजनीतिक दलों को जनभावनाओं की इतनी ही कदर है तो फिर दोषी ठहराए जाने के बावजूद सज्जन और टाइटलर आज इस मुकाम पर कैसे पहुंचे । यहाँ तो राजनीतिक पार्टियों का ये एक सूत्रीय ऐजेंडा है सत्ता सुख का भोग। चाहे उसके लिए उन्हें कुछ करना पड़े। इस आम चुनाव में कौनसा ऐसा मुद्दा है जो आम आदमी से सीधा जुड़ा है। यदि सिक्ख दंगों के लिए दोषी ठहराए जाने के बावजूद सज्जन और टाइटलर को टिकट मिल रही थी तो शर्म आना चाहिए हमारे लोकतंत्र के पुराधाओं को , हम बहस इस विषय पर कर रहे हैं कि जरनैल का चिंदबरम पर जूता उछालना कितना जायज है। हम ये नहीं जानना चाहते कि भारतीय राजनीति में ऐसे न जाने कितने टाइटलर और सज्जन हैं जिन्होंने अपनी पार्टी के फायदे के लिए क्या-क्या नहीं किया। इसीलिए तो अब लोकतंत्र में लोकलज्जा भंग हो रही है।
जरनैल का एक पत्रकार होते हुए चिदंबरम पर जूता उछालना इसी बात का प्रमाण है। चाहे कोई किसी पेशे में हो लेकिन सबसे पहले वह एक इंसान है। इंसान के भीतर उसके अपनी संवेदनाएं है। यदि जरनैल का मामला प्लांटेड नहीं हुआ तब तो ये पूरी राजनीतिक बिरादरी पर फेंका गया एक जुता है। यदि इस जूते ने कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के निर्णय को प्रभावित किया है तब तो निश्चित रुप से जरनैल का कृत्य काबिले तारीफ है। इराक में जार्ज़बुश पर फेंके गए जैदी के जूते की इसीलिए वहॉं जय-जयकार हुई थी। दरअसल ये जूता नहीं जनभावनाओं का प्रतीक है।
अब आपके लिए भी ये एक जूता छोडे जा रहे हैं , मन चाहे पत्रकारों पर मारें, मन चाहे हमारी राजनीती पर मारें , या चाहें तो उस पर क्लिक करें और हमें गरिया दें या कमेन्ट दे दें
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कारसेवा
इस वीडियो मैं किसी भी और बात के आलावा धयान देने योग्य अटल जी का यौवन है ।
आज से 17 वर्ष पहले इस घटना को आप सभी जानते हैं आइये एक-एक कर इन वीडियो पर नज़र डालें ।
प्रथम भाग
द्वितीय भाग
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वरूण की मजबूरी है जहर उगलना
वरुण गाँधी का बचपन का फोटो-ये बचपन अभी तक गया नही
लगभग दस दिन पहले वरूण गांधी पर पीलीभीत में अपने चुनाव प्रचार के दौरान सांप्रदायिक द्वेष फैलाने का आरोप है। वरूण द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ दिया गया भाषण उनकी मौलिक सोच नहीं लगती। मुझे लगता है कि यह कई दिनों से उनके मन में पल रही कुंठा का नतीजा है।
दरअसल, भाजपा ने वरूण गांधी को राहुल गांधी के विकल्प के रूप में पेश किया था लेकिन वरूण भाजपा के लिए अपेक्षानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाए। वे राहुल गांधी की तरह अपने कार्य को अंजाम नहीं दे पाए तो भाजपा ने भी उन्हें तरजीह देना बंद कर दिया। 2004 के आम चुनाव में सुरक्षित संसदीय सीट विदिशा से उनका नाम उछला लेकिन बात नहीं बनी फिर विदिशा उपचुनाव के लिए भी रामपाल सिंह को उनसे बेहतर उम्मीदवार माना गया। वरूण गांधी इस मामले में पार्टी से रूठे तो थे ही लेकिन अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने में भी वो नाकाम हो रहे थे। बेटे की हालत पतली देख मां का दिल पिघल गया और मेनका गांधी ने इस बार उनके लिए पीलीभीत सीट छोड़ दी। इस लंबे समय के दौरान वरूण भारतीय राजनीतिक पटल से लगभग गायब ही रहे। खबरों में आने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। पार्टी ने भी कोई महती जिम्मेदारी उन्हें नहीं दी थी। वरूण ठहरे गांधी परिवार के जो लगातार खबरों में रहता है। लगातार अपने को उपेक्षित महसूस करने के बाद जब अपने चुनाव क्षेत्र में वे प्रचार के लिए पहुंचे तो उनके पास अपनी निजी उपलब्धि कुछ भी नहीं थी। वे केवल भाजपा के एजेण्डे को लोगों तक पहुंचा सकते थे।
उन्हें कुछ तो ऐसा करना था कि वे लाइम लाइट में आ जाएं और ज्यादा से ज्यादा वोट अपनी तरफ मोड़ सकें। इस लिहाज से उनके पास हिंदुत्व से अच्छा कोई मुद्दा नहीं था लेकिन इसी से काम नहीं चलने वाला था। लोगों को बरगलाने के लिए थोड़ा जहर भी उगलना पड़ा। जब तक कोई नेता हिंदुत्व और आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं करेगा तब तक राजनीतिक क्षितिज पर कैसे छाएगा।
अब तो बिल्ली के भाग से छींका भी टूट गया है, संघ और धुर दक्षिण पंथी पार्टी शिवसेना ने भी वरूण के वक्तव्य का समर्थन कर उन्हें अच्छा खासा महत्व प्रदान कर दिया है और चुनाव में भाजपा को मुसीबत में डाल दिया। रही बात एफआईआर और चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन की तो वह किसी राजनेता के लिए अब नई बात नहीं रह गई है। और अब तो उन्हें अग्रिम जमानत भी मिल गई है .....
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हिंदुत्व और मैं
फिर निहत्थे की हत्या, भिक्षुणी से बलात्कार, गर्भवती स्त्रियों के पेट चीरना, बच्चों व बूढ़ों को काटा जाना शायद मेरी समझ से किसी धर्मग्रंथों में या धर्मों में उल्लेखित नहीं है। गुजरात के दंगे व उड़ीसा में कुछ समय पहले की घटनाएं शायद कलंक हैं। गोधरा व लक्ष्मणानंद के हत्यारे खुले तौर पर घूम रहे हैं पर दलित ईसाइयों को पकड़ कर मारना क्या बयां करता है?
तथाकथित हिंदुत्व के समर्थक क्यों जंगलों में जाकर लक्ष्मणानंद के हत्यारों से लड़ते? क्यों नहीं वे हथियारों का मुकाबला हथियारों से करते? यदि वे ऐसा कर पाते तो हिंदुत्व के कलंक धो डालते पर वे गुजरात दोहरा रहे थे। उड़ीसा और कर्नाटक की घटना ने हिंदुत्व के माथे पर और कालिख पोतने का काम किया है।
सबसे बड़ी बात मेरे समझ से परे है कि अगर लक्ष्मणानंद की हत्या हुई तो उनके अनुयायियों को फैसले का अधिकार किसने दिया? बात यहीं नहीं रूकेगी- जो अपने को हिंदू बताते हैं वे अपने को इससे अलग क्यों रखे रहे हैं? क्या उनका धर्म कहता है कि गलत हो रहा है तो चुप रहना चाहिए। मुझे एक बात समझ नहीं आती कि देश के विद्वानों व बुद्धिजीवियों ने व्यापक तौर पर इसका विरोध क्यों नहीं किया? अगर हम मान भी लें कि देश के नेताओं को सिर्फ वोटों से मतलब है फिर भी देश के बुद्धिजीवी तबके से देश को जो उम्मीदें थी वे भी इस प्रकरण में धुंधली हुई है।
गुजरात की घटना के बाद अटलबिहारी ने मोदी को राजधर्म की याद दिलाई थी पर अफसोस कि आज कोई नहीं है उड़ीसा व कर्नाटक या कश्मीर की घटना के बारे में विरोध जताने वाला। असम, मणिपुर व महाराष्ट्र में जो हो रहा है, उसे क्या माना जाए? मुझे यह कहने से कोई गुरेज नहीं भारत में राष्ट्र की अवधारणा मंद पड़ चुकी है। फिर शायद इस देश के राज्यों को जबर्दस्ती एकसाथ रखा जा रहा है। आखिर जब हम अपने देश में ही सुरक्षित नहीं है तो परमाणु महाशक्ति बनकर हम क्या कर लेंगे? जब निर्दोष व मासूम जिंदगियां तबाह हो रही हैं व कहीं से कोई आवाज नहीं उठ रही तो तय मानों भारतवंशियों तुम खतरे में हो। मैं एक घटना का उल्लेख जरूर करूंगा कि भोपाल में अपने क्लास में मैंने कहा था कि हिंदू मैं हूं या नहीं तथा हिंदू शब्द ने मुझे क्या दिया है, पता नहीं। इस पर पूरी क्लास में मेरा मखौल उड़ा पर मुझे लगता है कि शायद मैं सही था। अगर हम दूसरों के दुख से दुखी न हो पायें , राष्ट्र की अस्मिता पर संकट के वक्त न बोल पायें , भिक्षुणी से बलात्कार हो, मासूमों से जिंदगियां छीनी जा रही हों और मैं(भारतीय) चुप रहूं तो शायद मैं अपने अस्तित्व से खिलवाड़ कर रहा हूँ। अगर देश की धरती को रौंदते हुए हम जी रहे हैं तो उसकी अहमियत हमें शायद हर साल में समझनी होगी। वरन् मैं तो इस धरती से दूर हूँ. इसे कहने से हमें कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।
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