टिपण्णी बॉक्स के ऊपर भाषा बदलो यन्त्र

अपने ब्लॉग में कमेन्ट बॉक्स के ऊपर भाषा बदलो यन्त्र लगायें । मैंने ये अपने ब्लॉग पर लगाया तो सोचा आप लोगों से भी शेयर किया जाए ,वैसे इसे लगाने का मूल आईडिया मुझे टेकटब से मिला .कुछ गूगल बाबा की मदद और थोड़ा सा दिमाग और नमूना हाज़िर है । गूगल कोड की वेबसाइट जिसपर ऐसी ही चीजों का ज़खीरा हाज़िर है ,वहां Google AJAX Language API पर इंग्लिश से हिन्दी में मिला । इसका सबसे बड़ा फायदा ये है की आपके पाठक को हिन्दी में कमेन्ट देने से पहले किसी और वेबसाइट खोल के लिखना और फ़िर पेस्ट नही करना होगा

अब भाई करेंगे कैसे -

1. ब्लॉगर.कॉम खोलें ,
2.
अपने ब्लॉग में लेआउट पर क्लिक करें
3.पहले
बेक उप ले लें Download Full Template .edit HTMLपर क्लिक करें.
4. Expand Widget Templates पर क्लिक करें. काम आसान हो जाएगा


























Ctrl+F क्लिक करें और टाइप करें

]]></b:skin> पहले बीच में से स्पेस हटा लें और इसे ढूंढे

इसके ठीक नीचे ये कॉपी पेस्ट करें



फ़िर ctrl+F करके <b:if cond='data:post.embedCommentForm'> को ढूंढे और उसके ठीक ऊपर इसे पेस्ट कर दें । पहले बीच से सारे स्पेस हटा लें



फ़िर क्या है प्रिविऊ preview देखें और अगर आपने सब सही किया है और ब्लॉगर एर्रोर मेसेज नही दे रहा है तो सेव SAVE TEMPLATE कर लें .

आपका काम हो चुका है । यदि कोई समस्या हो तो हमें बताएं और यदि सब ठीक है तो भी बता दें कोई ज़रूरत हो तो पूछें


लोकमंगल का महायज्ञ : आम चुनाव 2009

योगेश पाण्डे

Smile

आम चुनावों की घोषणा के साथ ही लोकतंत्र के महायज्ञ की तैयारियॉं शुरु हो गई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि 60 सालों के इस लोकतंत्र को दिशा देने में इस बार के चुनाव बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। गठबंधन की राजनीति का भविष्य तय होगा। ये भी तय होगा कि राजनीति में सिद्धांतों की पैठ किस स्तर तक है। मतदाताओं को राजनीतिक दलों के सिद्धांत किस हद तक प्रभावित करते हैं। दरअसल इस उम्मीद की किरण झारखंड में सिबु सोरेन की हार से उपजी है। सजायाफ़्ता को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने का भी असर इस बार के चुनाव परिणामों को थोड़ा उजला करेगा। ये एक अलग बात है कि ऐसे बाहुबली अपने किसी निकटस्थ को चुनावी मैदान में उतारकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को उड़ान दें। quote-wallpaper89

विश्व राजनीति में ओबामा के उदय का असर भी भारतीय राजनीति में अपना असर दिखा सकता है। खासतौर पर तब, जब इस दफा तीन चौथाई युवा मतदाता आमचुनाव में पहली बार मतदान करेगा। इनका दृष्टिकोण चुनाव परिणामों को बहुत हद तक प्रभावित करेगा।
उदारीकरण की चोट से घायल मतदाता भी महत्वपूर्ण भूमिका में होगा। ये भी पता चलेगा कि भारत का मतदाता एक पूंजीवादी लोकतंत्र का समर्थक है या उसे समाजवादी लोकतंत्र की महक ज्यादा सुहाएगी। लेकिन इन सबके लिए जरुरी है कि मतदाता राजनीतिक दलों के आडंबरों को समय रहते समझे। राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों की देश और समाज के प्रति प्रतिब°ता को समझे। अपने तुच्छ स्वार्थों से ऊपर देशहित की भावना को दृष्टिगत रखना होगा। तभी इस महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद लोकमंगल की कामना सिद्ध हो सकेगी। आम चुनाव की इस श्रृंखला में कुछ ऐसे ही पक्षों पर विमर्श की ये प्रक्रिया सतत जारी रहेगी।

पंजाब का होला मोहल्ला और हरियाणा की धुलन्डी

उत्सवों का अड्डा और रंगों की पनाहगाह पंजाब,हर मायने में भारत की विविधता का प्रतिक है उत्सव हो और शोर शराबा न हो भला ऐसा हो सकता है !

आज हम आप को लिए चलते हैं पंजाब के एक मोहल्ले में और हरियाणा की धुलन्डी में बशर्ते आप झूमेंगे।
हाँ और जाने से पहले गीत जरूर सुनियेगा


पंजाब का होला मोहल्ला


पंजाब मे भी इस त्योहार की बहुत धूम रहती है। सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री अनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है।

सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है।कहते है गुरु गोबिन्द सिंह(सिक्खों के दसवें गुरु) ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी।तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में सिख शौर्यता के हथियारों का प्रदर्शन और वीरत के करतब दिखाए जाते हैं। इस दिन यहाँ पर अनन्दपुर साहिब की सजावट की जाती है और विशाल लंगर का आयोजन किया जाता है।

कभी आपको मौका मिले तो देखियेगा जरुर।

हरियाणा की धुलन्डी

हरियाणा मे होली के त्योहार मे भाभियों को इस दिन पूरी छूट रहती है कि वे अपने देवरों को साल भर सताने का दण्ड दें।इस दिन भाभियां देवरों को तरह तरह से सताती है और देवर बेचारे चुपचाप झेलते है, क्योंकि इस दिन तो भाभियों का दिन होता है।

शाम को देवर अपनी प्यारी भाभी के लिये उपहार लाता है इस तरह इस त्योहार को मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति मे यही तो अच्छी बात है, हम प्रकृति को हर रुप मे पूजते है और हमारे यहाँ हर रिश्ते नाते के लिये अलग अलग त्योहार हैं।

ऐसा और कहाँ मिलता है।

और फिर सुनिए ये हरयान्वी होली गीत ,नया ही है, आनंद लीजिये
Get this widget | Track details | eSnips Social DNA


`सोशल ट्रीटमेंट´का संकल्प लेना होगा

प्रस्तुति-योगेश पांडे





अंतराष्ट्रीय
महिला दिवस पर जगह- जगह संगोष्ठियॉं हो रही है। अखबारों में अग्रलेख छप रहे हैं, पुलआऊट महिला केंद्रित दिख रहे हैं। इन सबमें महिलाओं को समाज के एक उपेक्षित हिस्से के रुप में रेखांकित किया गया है। लेकिन ऐसा करके क्या वाकई हम महिला दिवस की प्रासंगिकता को साकार कर रहे हैं या सिर्फ ....
जो खास सवाल है वो हमें खुद से पूछना होगा। क्या महिला का अस्तित्व एक समाज और व्यक्ति से परे है? ठीक है समाज के कुछ हिस्सों में उसे अन्य हिस्सों की तरह स्वतंत्रता और स्वच्छंदता नहीं है।
मुझे लगता है कि पूरे देश और समाज की यही एक मात्र समस्या है कि हम चीजों और समस्याओं को वर्गीकृत कर देना चाहते हैं। हम ये नहीं देखना चाहते कि यदि कहीं समाज का कोई तबका उपेक्षित या अपने अधिकारों से वंचित है तो ये उस समाज और उस पूरे परिवेश की समस्या है। हमें उस परिवेश पर ध्यान केंद्रीत करना होगा। उस मनोविज्ञान को परखने की कोशिश करनी होगी। दरअसल ऐसा करके हम समस्याओं को टुकड़ों में बॉट देते हैं और फिर हो-हल्ला मचाते हैं कि ये नहीं हो रहा है वो नहीं हो रहा है। समस्याओं को टूकड़ों में बॉंटने की इसी आदत के कारण तो आए दिन हमें अखबारों में ये पढ़ने मिल जाता है कि `दलित महिला का उत्पीडन और आदिवासी महिला का उत्पीडन´ आदि आदि। ये शब्दों का वह भ्रम है जो हमें मूल समस्या के समाधान से और ज्यादा दूर करता जाता है। हमारी दृष्टि को भ्रमजाल में उलझा जाता है। हम ये नहीं तय कर पाते कि इस समस्या की जड़ क्या है? उसका समाधान कैसे हो सकता है? जहॉं तक मुझे लगता है कि बात महिला के अधिकारों की नहीं व्यक्ति के अधिकारों और उसके प्रति संजीदगी की है। हमें महिलाओं की समस्या का समाधान भी उसी स्तर पर खोजना होगा। महिला आरक्षण के मामले में भी वैसा ही है। क्या ये सही नहीं है कि महिला आरक्षण विधेयक पारित न होने के बावजूद भी महिलाएं आज शीर्ष पदों से लेकर पंचायत स्तर में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रही है। जो लोग महिलाओं के पृथक अधिकारों की पैरवी कर रहे हैं वे उस प्रक्रिया से लाभ कमाना चाहते हैं। चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक या आर्थिक , आखिरी में ये कहना ज्यादा बेहतर है कि पहले भी अतीत में मातृसत्तात्मक समाज रहे हैं और मुझे लगता है कि अभी भी 50 फीसदी से ज्यादा घरों में घर के प्रबंधन की जिम्मेदारी महिलाएं ही संभालती है। हमें अपना ध्यान उस परिवेश पर केन्द्रीत करना होगा जहॉं ऐसा नहीं है। गॉंव में तो आज भी महिलाएं जंगल से सिर पर ढोकर लकड़ी लाती है और उसे पास के ही शहर में बेचने जाती है। ऐसा नहीं है कि ग्रामीण और आर्थिक रुप से पिछड़े वर्ग में महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं है। दरअसल जो लोग महिलाओं को आगे नहीं आने देना चाहते वे वह हैं जिन्हें उनके आगे आने से स्वयं का अस्तित्व खतरे में दिखाई पड़ता है। हमें ऐसे लोगों को पहचान कर उनका `सोशल ट्रीटमेंट´ करना होगा। इस प्रक्रिया को किसी एक दिन और दिवस में बॉंधना इस प्रक्रिया की गति को और धीमा करेगा। इस दिन को हमें एक संकल्प दिवस के रुप में स्थापित कर ये संकल्प लेना होगा कि हम पूरे समय सोशल ट्रीटमेंट की अपनी प्रक्रिया को रफ़्तार देते रहेंगे । आत्मुल्यॉंकन करेंगे और पर उपचार करेंगे कि महिलाएं दोयम नहीं, आपके और हमारे अस्तित्व का अनिवार्य और अटूट अंग है। .....


कृष्ण-राधा से लेकर अकबर-जोधाबाई तक(रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ९)

होली तब भी ,होली अब भी ,होली का कोई सानी नही,होली का त्यौहार अगर साल मैं दो बार आता तो भी शायद लोग उतने ही मजे से मानते पर भाई अब दिक्कत पानी की है ,जब आप कार धोते समय, दाडी बनते समय,अपने हरे बगीचे को तेज़ धुप मैं सींचते समय ,और बे फिजूल मैं अपने नलकूप से पानी निकलते समय उसका ध्यान नही रखते तो वो भला आपको होली क्यों खेलने दे, और जनाब अब तो बात सूखी होली से तिलक होली तक गई है ,एक अखबार ने सही विषय उठाया है इस साल ? छोटे शहरों मैं अब भी होली मैं विशेष बाज़ार लगते हैं ,जहाँ गुलाल,रंग और पिचकारी की जम की बिक्री होती है ,कुछ बेरोजगार कुछ दिन तो चैन से रोटी खा ही लेते हैं , पर अब जब पिचकारी नही होगा तो पिचकारी कैसे चलाओगे,कभी फुर्सत मिले तो सोचें और पानी थोड़ा बचैएँ ,अब बात ही कर रहे हैं तो कहूँगा की हिन्दी फ़िल्म जगत के एक प्रसिद्ध वाक्य का शायद अस्तित्व ही नही होता 'होली कब है,होली कब है '--- "श्रीमान गब्बर "-फ़िल्म शोले
होली की इस श्रृंखला का आज नौंवां दिन है ,कुछ एतिहासिक द्रश्य दिखाना चाहते हैं .
कृष्ण-राधा से लेकर अकबर-जोधाबाई

<span title=कृष्ण राधा की होली">
मिथक से लेकर इतिहास तक होली का ज़िक्र रंग और मस्ती के त्यौहार के रुप में होता है
होली कृष्ण की राधा और गोपियों के साथ हो या अकबर की जोधाबाई के साथ या फिर सिनेमा के रुपहले पर्दे पर खेली जाने वाली होली हो.

हर समय काल में होली का रंग और उसकी मस्ती एक जैसी होती आई है.

बाजों और नगाड़ों के बीच रंग और गुलाल की छटा के बीच हुड़दंग और चुहलबाज़ियाँ.

प्रहलाद और होलिका के प्रसंग को छोड़ दें तो मिथक में भी होली के फागुन की मस्ती में सराबोर उदाहरण ही मिलते हैं.

कृष्ण की राधा के साथ आय की जो तस्वीरें चित्रकारों ने कल्पना से बनाई हैं वो देखते ही बनती हैं.

फिर वो चाहे रंग शताब्दी ही ओंगे की पेंटिंग हो या फिर मेवाड़ तक चित्रकला या फिर बूंदी, कांगड़ा और मधुबनी शैली का चित्र हो कृष्ण और गोपियों की होली के चित्र कलाकारों की पसंद रहे हैं.

मुगलों की होली

सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के क़िस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं.

अकबर का जोधाबाई के साथ रंग खेलना अपने आपमें उस समाज की कई कहानियाँ कहता है.

अकबर के बाद जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का ज़िक्र मिलता है.

शाहजहाँ के ज़माने तक तो होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था.

इतिहास में दर्ज है टी शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था या आब-ए-पाशी यानी रंगों की बौछार कहा जाता था.

आख़िरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र तो होली के दीवाने ही थे.

उनके लिखे होली के फाग आज भी गाए जाते हैं.

''क्यों मो पे मारी रंग की पिचकारी, देखो कुँअर जी दूंगी गारी'' लिखने वाले बहादुर शाह जफ़र के बारे में मशहूर है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे.

मेवाड़ की चित्रकारी में दर्ज़ है कि महाराणा प्रताप अपने दरबारियों के साथ मगन होकर होली खेला करते थे.

राजस्थान के किलों और महलों में खेले जाने वाली होली के रंग तो पूरी दुनिया में मशहूर रहे हैं. वरना बिल क्लिंटन की बिटिया अमरीकी राष्ट्रपति का आवास छोड़कर होली ?

प्रस्तुति सहयोग बीबीसी हिन्दी.कॉम

आज झूमने के लिए ये मधुर गीत छोडे जा रहे हैं .और नजीर अकबरावादी की एक नज़्म भी 'जब फागुन रंग चमकते हों "

'जब फागुन रंग चमकते हों "

ये मस्ती भरा गीत