कृष्ण-राधा से लेकर अकबर-जोधाबाई तक(रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ९)

होली तब भी ,होली अब भी ,होली का कोई सानी नही,होली का त्यौहार अगर साल मैं दो बार आता तो भी शायद लोग उतने ही मजे से मानते पर भाई अब दिक्कत पानी की है ,जब आप कार धोते समय, दाडी बनते समय,अपने हरे बगीचे को तेज़ धुप मैं सींचते समय ,और बे फिजूल मैं अपने नलकूप से पानी निकलते समय उसका ध्यान नही रखते तो वो भला आपको होली क्यों खेलने दे, और जनाब अब तो बात सूखी होली से तिलक होली तक गई है ,एक अखबार ने सही विषय उठाया है इस साल ? छोटे शहरों मैं अब भी होली मैं विशेष बाज़ार लगते हैं ,जहाँ गुलाल,रंग और पिचकारी की जम की बिक्री होती है ,कुछ बेरोजगार कुछ दिन तो चैन से रोटी खा ही लेते हैं , पर अब जब पिचकारी नही होगा तो पिचकारी कैसे चलाओगे,कभी फुर्सत मिले तो सोचें और पानी थोड़ा बचैएँ ,अब बात ही कर रहे हैं तो कहूँगा की हिन्दी फ़िल्म जगत के एक प्रसिद्ध वाक्य का शायद अस्तित्व ही नही होता 'होली कब है,होली कब है '--- "श्रीमान गब्बर "-फ़िल्म शोले
होली की इस श्रृंखला का आज नौंवां दिन है ,कुछ एतिहासिक द्रश्य दिखाना चाहते हैं .
कृष्ण-राधा से लेकर अकबर-जोधाबाई

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मिथक से लेकर इतिहास तक होली का ज़िक्र रंग और मस्ती के त्यौहार के रुप में होता है
होली कृष्ण की राधा और गोपियों के साथ हो या अकबर की जोधाबाई के साथ या फिर सिनेमा के रुपहले पर्दे पर खेली जाने वाली होली हो.

हर समय काल में होली का रंग और उसकी मस्ती एक जैसी होती आई है.

बाजों और नगाड़ों के बीच रंग और गुलाल की छटा के बीच हुड़दंग और चुहलबाज़ियाँ.

प्रहलाद और होलिका के प्रसंग को छोड़ दें तो मिथक में भी होली के फागुन की मस्ती में सराबोर उदाहरण ही मिलते हैं.

कृष्ण की राधा के साथ आय की जो तस्वीरें चित्रकारों ने कल्पना से बनाई हैं वो देखते ही बनती हैं.

फिर वो चाहे रंग शताब्दी ही ओंगे की पेंटिंग हो या फिर मेवाड़ तक चित्रकला या फिर बूंदी, कांगड़ा और मधुबनी शैली का चित्र हो कृष्ण और गोपियों की होली के चित्र कलाकारों की पसंद रहे हैं.

मुगलों की होली

सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के क़िस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं.

अकबर का जोधाबाई के साथ रंग खेलना अपने आपमें उस समाज की कई कहानियाँ कहता है.

अकबर के बाद जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का ज़िक्र मिलता है.

शाहजहाँ के ज़माने तक तो होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था.

इतिहास में दर्ज है टी शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था या आब-ए-पाशी यानी रंगों की बौछार कहा जाता था.

आख़िरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र तो होली के दीवाने ही थे.

उनके लिखे होली के फाग आज भी गाए जाते हैं.

''क्यों मो पे मारी रंग की पिचकारी, देखो कुँअर जी दूंगी गारी'' लिखने वाले बहादुर शाह जफ़र के बारे में मशहूर है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे.

मेवाड़ की चित्रकारी में दर्ज़ है कि महाराणा प्रताप अपने दरबारियों के साथ मगन होकर होली खेला करते थे.

राजस्थान के किलों और महलों में खेले जाने वाली होली के रंग तो पूरी दुनिया में मशहूर रहे हैं. वरना बिल क्लिंटन की बिटिया अमरीकी राष्ट्रपति का आवास छोड़कर होली ?

प्रस्तुति सहयोग बीबीसी हिन्दी.कॉम

आज झूमने के लिए ये मधुर गीत छोडे जा रहे हैं .और नजीर अकबरावादी की एक नज़्म भी 'जब फागुन रंग चमकते हों "

'जब फागुन रंग चमकते हों "

ये मस्ती भरा गीत

कुमाऊँ की बैठक होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ८)

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होली में गाना-बजाना न हो तो फिर बचा ही क्या...
रंगों के मचलते अरमान आज फ़िर कागज़ पे आ गए हैं और हम आपके लिए कुमाऊं की होली लेकर एक बार फिर हाज़िर हैं । जय हो महाकाल की।
उत्तरांचल के कुमाऊं मंडल की सरोवर नगरी नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में तो नियत तिथि से काफी पहले ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं.

इस रंग में सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है.

बरसाने की होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है.

यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है. राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी साथ लाईं. ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं
गिरीश गिर्दा

फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है.

शाम ढलते ही कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है. बैठक होली घर की बैठक में राग रागनियों के इर्द गिर्द हारमोनियम तबले पर गाई जाती है.

“.....रंग डारी दियो हो अलबेलिन में...
......गए रामाचंद्रन रंग लेने को गए....
......गए लछमन रंग लेने को गए......
......रंग डारी दियो हो सीतादेहिमें....
......रंग डारी दियो हो बहुरानिन में....”

यहां की बैठ होली में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायरों का कलाम भी प्रमुखता से देखने को मिलता है.
“....जब फागुन रंग झमकते हों....
.....तब देख बहारें होली की.....
.....घुंघरू के तार खनकते हों....
.....तब देख बहारें होली की......”

बैठकी होली में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है.

होली की ये रिवायत महज़ महफिल नहीं है बल्कि एक संस्कार भी है.

ये भी कम दिलचस्प नहीं कि जब होली की ये बैठकें खत्म होती हैं-आर्शीवाद के साथ. और आखिर में गायी जाती है ये ठुमरी…..
“मुबारक हो मंजरी फूलों भरी......ऐसी होली खेले जनाब अली..... ”

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महिलाओं की टोलियाँ भी रंग जमा देती हैं

बैठ होली की पुरूष महफिलों में जहां ठुमरी और खमाज गाये जाते हैं वहीं अलग से महिलाओं की महफिलें भी जमती हैं.

इनमें उनका नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं.

इनके ज्यादातर गीत देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े रहते हैं जैसे... फागुन में बुढवा देवर लागे.......

होली गाने की ये परंपरा सिर्फ कुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है.

इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हुई इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है. कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठ होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहराई से अध्ययन किया है.

वो कहते हैं कि “यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है. राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी साथ लाईं. ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं. यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ भरे पड़े हैं ।” हमारी कोशीश कैसी लगी टिपण्णी कर ज़रूरबताएंकुमोनी होली पर हमें एक काकेश.कॉम का पोडकास्ट भी मिलाहै ,सादा है पर सुंदरहै. इश्वर आपकी होली सुखद और मंगलमय बनाये

राजस्थान में तमाशे के ज़रिए होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ७)



सचमुच कितना अच्छा होता जो हर किसी के जीवन मैं रंग ही रंग होते,सब को सुख और शान्ति हासिल होती ,आज रंग तो सिर्फ़ ड्राइंग रूम की सीनरी तक ही सीमित होकर रह गए हैं,आप समझ सकते हैं कि ड्राइंग रूम किनके घरों में होते हैं ,खैर जिनके सरों पे छत नहीं उन्हें भी रंगों भी रंगों कि समझ है तो फिर ये खाइयाँ क्यों हैं । इश्वर हम सब को ऐसे रंग में रंग दे कि सारा जहाँ एक रंग में दीखे
आज हम इस श्रंखला के सातवें रंग कि बात करेंगे ,जयपुर कि तमाशा होली का रंग । तो लीजिये आनंद गुलाबी नगरी जयपुर कि होली का .

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तमाशे के ज़रिए होली
जयपुर में होली के अवसर पर पारंपरिक तमाशा अब भी होता है लेकिन ढाई सौ साल पुरानी इस विधा को देखने के लिए अब उतने दर्शक नहीं आते जितने पहले आते थे.

पर कलाकारों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है.

तमाशे में किसी नुक्कड़ नाटक की शैली में मंच सज्जा के साथ कलाकार आते हैं और अपने पारंपरिक हुनर का प्रदर्शन करते हैं.

तमाशा की विषय वस्तु पौराणिक कहानियों और चरित्रों के इर्दगिर्द तो घूमती ही है लेकिन इन चरित्रों के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर भी चुटकी ली जाती है.

कभी राजा-महाराजा और सेठ साहूकार ख़ुद इस तमाशे को देखने आया करते थे.

लेकिन अब राजनीति में रमे देश के नीति निर्माताओं को समय नहीं है ऐसे आयोजनों को देखने का.

तमाशा शैली के वयोवृद्ध कलाकार गोपी जी मल तो इस बात से ही ख़ुश हैं कि उनकी यह विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी अभी चली आ रही है.

वे याद करते हुए बताते हैं कि रियासत काल में जयपुर के राजा मान सिंह ख़ुद कलाकारों का मनोबल बढ़ाने के लिए तमाशा देखने आते थे . मल परिवार की छठी पीढ़ी अपने पुरखों की इस परंपरा को जारी रखे हुए है.

परंपरा

तमाशा एक ऐसी विधा है जिसमें शास्त्रीय संगीत, अभिनय और नृत्य सभी कुछ होता है.

तमाशा सम-सामयिक राजनीति पर टिप्पणी करता है .

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होली के मौक़े पर तमाशा

तमाशा कलाकार जगदीश मल कहते हैं, "राजनीति और तमाशे में ज़्यादा अंतर नहीं है. आज के दौर में भला कौन तमाशा नहीं करता."

तमाशा के गीतों में छाए 'फील गुड' फैक्टर के बारे में कलाकार विशाल मल कहते हैं कि चुनावों से पहले यकायक हर बार ऐसा ही 'फील गुड' पैक्टर आता है.

"हम बतौर कलाकार लोगों को सच्चाई से अवगत कराने की कोशिश करते हैं."

तमाशा के गीतों और संवादों में इस साल भारत उदय से लेकर भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच जैसे विषयों पर भी कटाक्ष किया जा रहा है.

आमतौर पर तमाशा हीर-राँझा और पौराणिक पात्रों के ज़रिए अपना बात कहता है.

इसमें राग जौनपुरी और दरबारी जैसे शास्त्रीय गायन शैलियों को भी शामिल किया जाता है.

इसके आयोजन का ख़र्च मल परिवार के सदस्य ख़ुद वहन करते हैं.

जयपुर के इस पारंपरिक तमाशे पर अब पहले जैसी भीड़ नहीं उमड़ती. अब तो रथ यात्रा, रोड शो, रैली और चुनावी राजनीति के मंच पर नित नए नाटक हो रहे हैं.

ऐसे में कौन देखेगा इन कलाकारों के तमाशे को क्योंकि राजनीति तो ख़ुद ही एक 'तमाशा' बन गई है।

आज सुनिए ये मधुर गीत शोभा मुद्गल कि आवाज़ में ,राज्यस्थान कि माटी कि सुगंध यहाँ से साफ़ पता चलेगी ।

प्रस्तुति सहयोग-बीबीसीहिन्दी.कॉम




बंगाल की होली यानि दोल उत्सव(रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ६)


होली का उत्सव हो और बंगाल को भूल जायें ऐसा कैसे सम्भव है अंग्रेजी मैं जो रोयलनेस कहा जाता है उसका आभास वहीं से ज्यादा बेहतर होता है बंगाल मैं होली को दोल उत्सव कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, वो बाक़ी देश कल सोचता है. कम से कम एक त्यौहार होली के मामले में भी यही कहावत चरितार्थ होती है.
यहाँ देश के बाक़ी हिस्सों के मुक़ाबले, एक दिन पहले ही होली मना ली जाती है .
राज्य में इस त्यौहार कोदोल उत्सवके नाम से जाना जाता है

इस दिन महिलाएँ लाल किनारी वाली सफ़ेद साड़ी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात-फेरी (सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं.

इसमें गाजे-बाजे के साथ, कीर्तन और गीत गाए जाते हैं.

दोल शब्द का मतलब झूला होता है. झूले पर राधा-कृष्ण की मूर्ति रख कर महिलाएँ भक्ति गीत गाती हैं और उनकी पूजा करती हैं.

इस दिन अबीर और रंगों से होली खेली जाती है, हालांकि समय के साथ यहाँ होली मनाने का तरीक़ा भी बदला है.

बंगाल की होली मैं अब पहले जैसी बात नहीं रही. पहले यह दोल उत्सव एक सप्ताह तक चलता था.






पहले जैसी बात नहीं रही. इस मौक़े पर ज़मीदारों की हवेलियों के सिंहद्वार आम लोगों के लिए खोल दिये जाते थे. उन हवेलियों में राधा-कृष्ण का मंदिर होता था. वहाँ पूजा-अर्चना और भोज चलता रहता था.





इस मौक़े पर ज़मीदारों की हवेलियों के सिंहद्वार आम लोगों के लिए खोल दिये जाते थे. उन हवेलियों में राधा-कृष्ण का मंदिर होता था. वहाँ पूजा-अर्चना और भोज चलता रहता था.


देश के बाक़ी हिस्सों की तरह, कोलकाता में भी दोल उत्सव के दिन नाना प्रकार के पकवान बनते हैं.

इनमें पारंपरिक मिठाई संदेश और रसगुल्ला के अलावा, नारियल से बनी चीज़ों की प्रधानता होती है.

अब एकल परिवारों की तादाद बढ़ने से होली का स्वरूप कुछ बदला ज़रूर है, लेकिन इस दोल उत्सव में अब भी वही मिठास है, जिससे मन (झूले में) डोलने लगता है.

कोलकाता की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यहाँ मिली-जुली आबादी वाले इलाक़ों में मुसलमान और ईसाई तबके के लोग भी हिंदुओं के साथ होली खेलते हैं.

वे राधा-कृष्ण की पूजा से भले दूर रहते हों, रंग और अबीर लगवाने में उनको कोई दिक्क़त नहीं होती.

कोलकाता का यही चरित्र यहाँ की होली को सही मायने में सांप्रदायिक सदभाव का उत्सव बनाता है.

शांतिनिकेतन की होली का ज़िक्र किये बिना दोल उत्सव अधूरा ही रह जाएगा.

काव्यगुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वर्षों पहले वहाँ बसंत उत्सव की जो परंपरा शुरू की थी, वो आज भी जैसी की तैसी है.

विश्वभारती विश्वविद्यालय परिसर में छात्र और छात्राएँ आज भी पारंपरिक तरीक़े से होली मनाती हैं.

लड़कियाँ लाल किनारी वाली पीली साड़ी में होती हैं. और लड़के धोती और अंगवस्त्र जैसा कुर्ता पहनते हैं.

वहाँ इस आयोजन को देखने के लिए बंगाल ही नहीं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों और विदेशों तक से भी भारी भीड़ उमड़ती है.

इस मौक़े पर एक जुलूस निकाल कर अबीर और रंग खेलते हुए विश्वविद्यालय परिसर की परिक्रमा की जाती है. इसमें अध्यापक भी शामिल होते हैं.

आख़िर में, रवीन्द्रनाथ की प्रतिमा के पास इस उत्सव का समापन होता है.

इस मौक़े पर सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं.

शांतिनिकेतन और कोलकाता-स्थित रवीन्द्रनाथ के पैतृक आवास, जादासांको में आयोजित होने वाला बसंत उत्सव बंगाल की सांस्कृतिक पहचान बन चुका है।
तो सुनी से मधुर-मधुर बंगाली होली का गीत। हमें यकीं है आप को ये पसंद आएगी ।



इस
प्रस्तुति मैं हमने बीबीसी.कॉम की सहायता ली है

इस श्रृंख्ला की पुराणी कडियाँ
राजनेताओं की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ५)
भोपाल की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ४)

होली आई रे कन्हाई (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ३)

बनारस की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग २ )

रंग बरसे ...आप झूमें श्रंखला भाग १

रंग रौशनी का (विशेष प्रस्तुति) (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला)

प्रस्तुति -मयंक चतुर्वेदी

दिन का चमकीला, उल्लास भरा उजाला बस छा जाने की ही तैयारी में है। रंग बिरंगे फूलों की डालियां लचकते हुए होली के गीत गुनगुना रही है। दिन की शुरूआत रंगीन बयार जैसी आज कुछ खास है। ये प्रकृति के हर रंग, उसकी हर छटा हमें नाचते गाते हुए बता रही है। लोगों की हलचल शुरू हो चुकी है। देवर-भाभी के नजरों की ठिठोली आंगन में, सुबह के बर्तन की आवाज के साथ खनक रही है। गीले हाथों से अपने माथे पर से बाल हटाते हुए देख रहे देवर में पिस रही भांग जैसा नशा महसूस होता है।
टोलियों की तैयारी पूरी हो चुकी है। कहीं-कहीं माइक और नगाड़े की आवाज भी आनी शुरू हो चुकी है। सुबह में उत्साह का रंग घुला हुआ है, जिसमें मस्ती, मजा और अबीर-गुलाल का रंग चढ़ता जा रहा है। बच्चे, बूढ़े चौराहे पर जुटे हुए, रंगीन टोपियां पहने हुए आज दोस्त बने हुए हैं। रंग लगाने के तरीकों और अपने स्विर्णम इतिहास के मजेदार किस्सों को चटकारे लेकर सुना रहे हैं।
अपने मोहल्ले के लड़कों की टोली के साथ मैं भी नाचता-गाता मस्ती करता हुआ, घूम रहा था। किसी के घर गुझिये तो कहीं ठंडाई तो कहीं खुरमे और सेवड़े हमें खाने को मिलते। रंगो की बौछार बिखेरते हुए हम अपने जीवन के सारे अवसाद, दुश्चिंताएं और भारी पन को भिगोते, धोते और निचोड़ते हुए बढ़ते जा रहे थे। टहलते-घूमते जब हम थोड़े थक गए और धूप भी थोड़ी तेज हो गई तो हम गांव के किनारे खेल के मैदान तक पहुंच चुके थे। गांव के कुछ लोग वहां पहले से ही मौजूद थे। किनारे लगी कुर्सियों पर भी लोग बैठे हुए होली का लुत्फ उठा रहे थे। कुछ बच्चे कैमरे लेकर दौड़ रहे थे। लोग चीखते-चिल्लाते हुए और उछलकर फोटो खिंचवाते। जैसे सारे लोग आज बादल की सवारी कर रहे हों, बिल्कुल निर्भार निश्चिंत जीवन बस आनंद के लिए है, तरह-तरह के रंगों से खुद को रंग लेने में है। `होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा` अचानक बज उठे इस गाने की आवाज ने हम में फिर एक नई जान फूंक दी और हम सभी नाचने लगे।
नाचते गाते मेरी नजर किनारे लगी बेंच पर बैठी एक मासूम बच्ची पर पड़ी, इसे तो मैं पहली बार देख रहा हूं, हो सकता है मोहल्ले में पहली बार आई हो। सफेद फ्रॉक जाने कितने रंगों में डूब चुका था। उसके चेहरे पर लगा हुआ लाल गुलाल किसी खिले हुए फूल जैसा लग रहा था। मैं उसके बगल में आकर बैठ गया और मुझे बड़ा अजीब लगा क्योंकि उसकी कोई प्रतिक्रिया मुझे देखने को नहीं मिली। मैं बैठा रहा फिर धीरे से उसके पास जाकर कहा-`हैप्पी होली` वो अचानक चौंकी और अपनी गोद में पड़ी हुई गुलाल से भरी तश्तरी लेकर हवा में उड़ाने लगी और हंसते हुए कह रही थी-`मैं भी तुम्हें रंग लगाउंगी` पर उसका चेहरा और गुलाल मेरी तरफ नहीं था। वो किसी और दिशा में फेंक रही थी। उसके चेहरे को मैंने गौर से देखा वो हंसती जा रही थी `लाल पीले हरे नीले हर रंग लगाउंगी मैं तुम्हें` जब मेरी निगाह उसकी आंखों पर टिकी तो मैं सिहर उठा। लाल पीले हरे सभी रंग उसकी खुद की जिंदगी में सिर्फ काले स्याह रंगों में ही मौजूद थे। वो देख नहीं सकती। मुझे अपने चारों तरफ फैले हुए रंग जैसे चिढ़ाने लगे, सब कुछ धुंधला होता जा रहा था। मैं छटपटाता हुआ जाने किधर भागा जा रहा हूं जहां सिर्फ उसकी हंसी ही है। मुझे होली के सारे रंग झूठे और बेमानी लगने लगे। क्या मैं उसकी जिंदगी में रौशनी का रंग बिखेर सकता हूं, जो लाल पीले हरे नीले बाकी सारे रंगों को उसके जीवन में बिखेर सके ?
इस श्रृंखला की पुरानी पोस्ट-

राजनेताओं की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ५)

भोपाल की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ४)

होली आई रे कन्हाई (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ३)

बनारस की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग २ )

रंग बरसे ...आप झूमें श्रंखला भाग १