प्रस्तुति -मयंक चतुर्वेदी
दिन का चमकीला, उल्लास भरा उजाला बस छा जाने की ही तैयारी में है। रंग बिरंगे फूलों की डालियां लचकते हुए होली के गीत गुनगुना रही है। दिन की शुरूआत रंगीन बयार जैसी । आज कुछ खास है। ये प्रकृति के हर रंग, उसकी हर छटा हमें नाचते गाते हुए बता रही है। लोगों की हलचल शुरू हो चुकी है। देवर-भाभी के नजरों की ठिठोली आंगन में, सुबह के बर्तन की आवाज के साथ खनक रही है। गीले हाथों से अपने माथे पर से बाल हटाते हुए देख रहे देवर में पिस रही भांग जैसा नशा महसूस होता है।
टोलियों की तैयारी पूरी हो चुकी है। कहीं-कहीं माइक और नगाड़े की आवाज भी आनी शुरू हो चुकी है। सुबह में उत्साह का रंग घुला हुआ है, जिसमें मस्ती, मजा और अबीर-गुलाल का रंग चढ़ता जा रहा है। बच्चे, बूढ़े चौराहे पर जुटे हुए, रंगीन टोपियां पहने हुए आज दोस्त बने हुए हैं। रंग लगाने के तरीकों और अपने स्विर्णम इतिहास के मजेदार किस्सों को चटकारे लेकर सुना रहे हैं।
अपने मोहल्ले के लड़कों की टोली के साथ मैं भी नाचता-गाता मस्ती करता हुआ, घूम रहा था। किसी के घर गुझिये तो कहीं ठंडाई तो कहीं खुरमे और सेवड़े हमें खाने को मिलते। रंगो की बौछार बिखेरते हुए हम अपने जीवन के सारे अवसाद, दुश्चिंताएं और भारी पन को भिगोते, धोते और निचोड़ते हुए बढ़ते जा रहे थे। टहलते-घूमते जब हम थोड़े थक गए और धूप भी थोड़ी तेज हो गई तो हम गांव के किनारे खेल के मैदान तक पहुंच चुके थे। गांव के कुछ लोग वहां पहले से ही मौजूद थे। किनारे लगी कुर्सियों पर भी लोग बैठे हुए होली का लुत्फ उठा रहे थे। कुछ बच्चे कैमरे लेकर दौड़ रहे थे। लोग चीखते-चिल्लाते हुए और उछलकर फोटो खिंचवाते। जैसे सारे लोग आज बादल की सवारी कर रहे हों, बिल्कुल निर्भार निश्चिंत जीवन बस आनंद के लिए है, तरह-तरह के रंगों से खुद को रंग लेने में है। `होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा` अचानक बज उठे इस गाने की आवाज ने हम में फिर एक नई जान फूंक दी और हम सभी नाचने लगे।
नाचते गाते मेरी नजर किनारे लगी बेंच पर बैठी एक मासूम बच्ची पर पड़ी, इसे तो मैं पहली बार देख रहा हूं, हो सकता है मोहल्ले में पहली बार आई हो। सफेद फ्रॉक न जाने कितने रंगों में डूब चुका था। उसके चेहरे पर लगा हुआ लाल गुलाल किसी खिले हुए फूल जैसा लग रहा था। मैं उसके बगल में आकर बैठ गया और मुझे बड़ा अजीब लगा क्योंकि उसकी कोई प्रतिक्रिया मुझे देखने को नहीं मिली। मैं बैठा रहा फिर धीरे से उसके पास जाकर कहा-`हैप्पी होली`। वो अचानक चौंकी और अपनी गोद में पड़ी हुई गुलाल से भरी तश्तरी लेकर हवा में उड़ाने लगी और हंसते हुए कह रही थी-`मैं भी तुम्हें रंग लगाउंगी`। पर उसका चेहरा और गुलाल मेरी तरफ नहीं था। वो किसी और दिशा में फेंक रही थी। उसके चेहरे को मैंने गौर से देखा वो हंसती जा रही थी `लाल पीले हरे नीले हर रंग लगाउंगी मैं तुम्हें`। जब मेरी निगाह उसकी आंखों पर टिकी तो मैं सिहर उठा। लाल पीले हरे सभी रंग उसकी खुद की जिंदगी में सिर्फ काले स्याह रंगों में ही मौजूद थे। वो देख नहीं सकती। मुझे अपने चारों तरफ फैले हुए रंग जैसे चिढ़ाने लगे, सब कुछ धुंधला होता जा रहा था। मैं छटपटाता हुआ न जाने किधर भागा जा रहा हूं जहां सिर्फ उसकी हंसी ही है। मुझे होली के सारे रंग झूठे और बेमानी लगने लगे। क्या मैं उसकी जिंदगी में रौशनी का रंग बिखेर सकता हूं, जो लाल पीले हरे नीले बाकी सारे रंगों को उसके जीवन में बिखेर सके ?
इस श्रृंखला की पुरानी पोस्ट-
राजनेताओं की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ५)
भोपाल की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ४)
होली आई रे कन्हाई (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग ३)
बनारस की होली (रंग बरसे आप झूमे श्रृंखला भाग २ )
रंग बरसे ...आप झूमें श्रंखला भाग १
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