दुनियादारी को लेकर आपसी बातचीत को लेकर कुछ अंश
सौरभ : गृह राज्य मंत्री नारायण सिंह कुशवाह द्वारा गृह मंत्री और मुख्यमंत्री के बारे में दिए गए बयान से कुशवाह का गुस्सा साफ़ झलकता है. हम सोच सकते हैं, हमारी व्यवस्था इतनी ढीली और नकारा है कि प्रदेश के कैबिनेट और राज्य मंत्रियों के बीच काम का बंटवारा नहीं होता, ये शिकायत प्रदेश ही नहीं केंद्र सरकार के मंत्री भी कर चुके हैं. व्यवस्था के सबसे ऊपर के लेवल पर इस बदइंतजामी से हम सबसे निचले स्तर का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं.
मयूर : मुझे लगता है कि इतनी बदइंतजामी का कारण हमारा अब तक चुप रहना ही है. यदि नारायण सिंह कुशवाह जैसे अन्य लोग पहले मुखर हुए होते तो शायद आज स्थिति कुछ और होती. खास तौर पैर मध्य प्रदेश कि बात करें तो यहाँ के लोग राजनीति में सबसे ज्यादा निष्क्रिय है. जरुरत है आम लोगों कि व्यवस्था से जुड़ने की.
रवि: लेकिन अहम सवाल यह है कि लोग आखिर चुप्प क्यों हैं, या किसी चमत्कारिक दिन के इन्तेजार मैं हैं, जब व्यवस्था अपने आप ही पटरी पर आने लगे. यह मामला केवल एक राज्य के क्षेत्र विशेष तक ही नहीं जुडी है , बल्कि सही बात तो ये है कि आज देश की सम्पूर्ण व्यवस्था और संरचना में बुनियादी बदललाव आ चुके हैं .
सौरभ : चमत्कार की उम्मीद में बैठे रहना अधिकांश भारतीयों की सोच में है, और ऐसा क्यों है ये भी चिंतनीय है, लेकिन एक बात ये भी है कि हमारे शासन कर्ताओं में इच्छाशक्ति और प्रतिबधता कि बेजा कमी है . यह बात उनकी असंवेदनशीलता को भी दर्शाती है .
रवि : यह बात केवल शासन कर्ताओं से नहीं जुडी है, बल्कि सारे अंगों से जुडी हुई है, उदारहण के लिये आज परिवार कि अवधारणा पर सवाल उठ रहे हैं. यही नहीं आज विवाह जैसी पवन संस्था को पश्चिम के चश्मे से देखा जाने लगा है. इससे पता चलता है कि हम अपने मूल से दूर होते जा रहे हैं. हम शायद भूलते जा रहे हैं कि विरोध या आवाज़ उठाना भी एक जरुरी चीज़ होती है आखिर हम आज़ादी के बासठ साल बीत जाने पर भी सभी का पेट नहीं भर पाए क्यों ? हमारे देश में १९७४ के बाद खास तौर पर कोई छात्र आंदोलन नहीं होना यही बताता है कि हमारा दायरा लगातार सिमटता जा रहा है और हम सरहदों के पार नजरें उठा कर देखने का कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं .
मयूर : अभी मैं एक प्रवचन सुन रहा था, व्यास पीठ से कहा गया के वीर वो होता है जो अपने शत्रुओं को नष्ट करे और महावीर वो होता है, जो अपने अंदर उपजी बुराइयों रुपी शत्रुओं को नष्ट कर सके. आज हम अपने अंदर कि बुरायिओं से इतनी बुरी तरह से त्रस्त हैं के हमारे पास किसी अन्य विषय पर सोचने का समय ही नहीं है . हम अपनी दिन दौड से ही इतने परेशां हो जाते हैं के हमारे पास कुछ समय ही नहीं बचता , और जो बचता है सो , आराम ...
इसमें हम हमेशा व्यवस्था को दोष देते हैं , माना कि समय लगेगा पर हमें शुरुआत तो करनी ही होगी ना .
पिरामिड में निचे से ऊपर जाना मुश्किल होता है, पर शुरू तो करना ही होगा
सौरभ : बात वाही है कि शुरू कौन करेगा, कब, कहाँ, कैसे करेगा . सब भगत सिंह को पड़ोस में ही चाहते हैं . इसमें हम भी शामिल हैं
मयूर : हमें पार्ट-लेस, यानि मोहों से मुक्त होना होगा, तब जा कर हम कुछ कर सकते हैं, पर आज भौतिक विश्व में अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में ही समय बीत जाता है
रवि : हम यहाँ एक लीडर का , एक सैयोजक का आह्वाहन करते हैं
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मोहब्बत का जूनून बाकी नहीं है - अल्लामा इकबाल
आल्लामा इकबाल किसी परिचय के मोहताज नहीं , मुझे वो इसलिए भी प्रिय हैं क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का कुछ समय भोपाल में बिताया है , उनकी लिखी नज्में, गजलें, और बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य कई बार भुला ही देता है के वो एक अच्छे वकील भी थे ।
भारत भर को कम से कम उनकी एक देशभक्तिपूर्ण कविता " सारे जहाँ से अच्छा.. " तो याद होगी ही . इसे तराना-ऐ-हिंद भी कहा जाता है ।
मुझे उनका ये गीत बहुत पसंद है, एक अलग तरह की आवाज़ में पैगाम सुनाता है
उनके बारे में और जानने के लिए यहाँ क्लिक करें
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दरकती आस्था का सवाल
बीते दिनों अपनी यात्रा के दौरान कुछ धार्मिक स्थलों में मैंने बाज़ार का जो बदला स्वरुप देखा उसने मेरी आस्था को झंझो़ड दिया। ईमानदारी से और थो़डी ठेठ बात कहूँ तो अब भगवान के मंदिरों के बाहर दलालों के अड्डे पनप गए हैं और इन अड्डों के चलते आम इंसान की आस्था डगमगा रही है। मसलन शनि को क्या और कितना अर्पण करना है, यह अब बाज़ार तय करने लगा है। अब बाज़ार ही पूजा का विधान बता रहा है। विधान ऐसा जिसमें उसका ज्यादा से ज्यादा माल खप जाए। गाय और बंदरों को चने और कुछ घासफूस खिलाकर पूण्य अर्जित करने की सीख भी अब बाज़ार देने लगा है। इस मुफ्त की सलाह के पीछे बाज़ार के अपने निहितार्थ है। ये सब करके बाज़ार अपना धंधा चोखा कर रहा है। लेकिन इस चोखे धंधे की आ़ड में आस्था डगमगा रही है।
500 रुपयों के तेल से शनिदेव का अभिषेक करने के बाद भक्त बाज़ार को कोस रहा है। उसकी नज़र दुकानदार द्वारा उसके गा़डीवान को दिए कमीशन पर भी है, जो दुकानदार ने इसीलिए दिया है क्योंकि वह उस ग्राहक को उसकी दुकान पर लाया है। ग्राहक रुपी वह भक्त रास्ते में पडने वाले किसी ढाबे या होटल में अपने गा़डीवान द्वारा रुपए न दिए जाने को भी ब़डे ही संदेह के भाव से देख रहा है। वह देख रहा है कि भगवान के दर्शन की उसकी अभिलाषा के पीछे कितनों के मनोरथ सिद्ध हो रहे हैं।
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रिश्तों का पैकेज बनाता बाजार
बात यहाँ भी बाजार की है। पैकेज की है। पैकेज किसी नौकरी का नहीं न ही किसी पर्यटन स्थल के भ्रमण का। यहॉं पैकेज है रिश्ते का। पैकेज बिना प्रसव पी़डा के माँ बनने के दुस्साहस के लिए उकसाने वाली संस्कृति का। हो सकता है आप में से बहुत से लोगों के लिए यह कुछ नया न हो लेकिन मेरे लिए बिल्कुल नया है। मैं इसे रिश्तों में बाजार की दखलंदाजी मानता हूँ। वाकया यह है कि कुछ दिन पहले मेरे मित्र ने मुझे बताया कि उसने अपनी गर्भवती पत्नी के लिए भोपाल के ही एक निजी अस्पताल से 50 हजार रुपए का पैकेज ले लिया और टेंशन फ्री हो गया था। बच्चे को जन्म देने के हफ्ते भर बाद तक पत्नी ने न तो बच्चे की नैप्पी बदली न ही उसे दवा या दूध पिलाया। बच्चे के जन्म के बाद जब उसके दादा-दादी और नाना-नानी भोपाल आए तो उन्हें रेलवे स्टेशन और एयरपोर्ट तक लेने के लिए भी अस्पताल प्रबंधन के ही लोग गए, और उनके ठहरने और खाने का बंदोबस्त भी पैकेज में शामिल था। जाने के वक्त बाकायदा उन्हें नाती के जन्म का मोमेंटो भी अस्पताल प्रबंधन ने ही दिया।
मेरा दोस्त अपनी छाती चौड़ी कर पत्नी की प्रसूती के इस पैकेज की तरफदारी कर रहा था। उसने बताया कि हफ्ते भर तक मेरी पत्नी की कंघी-चोटी और सारा श्रृंगार करने के लिए स्टॉफ मौजूद था। मैं उसकी बात और पैकेज की तारीफ चाहकर भी नहीं भूल पाता हूँ। सोचता हूँ कि ये क्या हो रहा है। सुना था कि माँ और बच्चे का भावनात्मक संबंध इतना मजबूत और शाश्वत इसीलिए होता है क्योंकि असहनीय प्रसव पी़डा के बाद जब मॉं बच्चे को जन्म देती है तो बच्चे का खिलखिलता चेहरा देख और उसकी किलकारियॉ सुनकर वह पी़डा माँ पल भर में भूल जाती है। माँ के स्तन का स्पर्श भर पाकर भूख से बिलखता बच्चा शांत हो जाता है। सोचता हूँ क्या यह पैकेज प्रसूती माँ और बच्चे के मध्य का तादात्म्य बरकरार रख पाएगी? जन्म के हफ्ते भर बाद तक बच्चे से जानबूझकर दूर रही माँ अपने बच्चे को उतना ही प्यार दे पाएगी? क्या यह मॉं और बच्चे के रिश्ते की नैसर्गिकता से छे़डछा़ड नहीं है? ऐसे में उस बच्चे के मन में अपनी माँ के प्रति प्रेम पल्लवन संभव है ! पैकेज से बच्चे तो पैदा हो सकते हैं लेकिन संस्कार नहीं।
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दिल तो क्या चीज़ है जान से जाएँगे- नुसरत
ऐसा बनना सवारना मुबारक तुम्हें, कम से कम इतना कहना हमारा करो,
चाँद शरमाएगा चांदनी रात में, यूँ न जुल्फों को अपनी संवारा करो ।
यह तबस्सुम यह आरिज़ यह रोशन जबीं, यह अदा यह निगाहें यह जुल्फें हसीं ,
आइने की नज़र लग न जाए कहीं, जान-ऐ-जान अपना सदका उतरा करो ।
दिल तो क्या चीज़ है जान से जाएँगे , मौत आने से पहले ही मर जाएँगे ,
यह अदा देखने वाले लुट जाएँगे, यूँ न हंस हंस के दिलबर इशारा करो ।
फ़िक्र-ऐ-उक़बा की मस्ती उतर जायेगी तौबा टूटी तो किस्मत संवर जायेगी ,
तुम को दुन्या में जन्नत नज़र आ'आय गी शैख़ जी मई-कड़े का नज़ारा करो ।
काम आए न मुश्किल में कोई यहाँ, मतलबी दोस्त हैं मतलबी यार हैं,
इस जहाँ में नही कोई एहल-ऐ-वफ़ा, ऐ फ़ना इस जहाँ से किनारा करो ।
ऐसा बनना संवारना मुबारक तुम्हें, कम से कम इतना कहना हमारा करो...
नुसरत फ़तेह अली खान साहब की कई शानदार कव्वालियों में से एक
चाँद शरमाएगा चांदनी रात में, यूँ न जुल्फों को अपनी संवारा करो ।
यह तबस्सुम यह आरिज़ यह रोशन जबीं, यह अदा यह निगाहें यह जुल्फें हसीं ,
आइने की नज़र लग न जाए कहीं, जान-ऐ-जान अपना सदका उतरा करो ।
दिल तो क्या चीज़ है जान से जाएँगे , मौत आने से पहले ही मर जाएँगे ,
यह अदा देखने वाले लुट जाएँगे, यूँ न हंस हंस के दिलबर इशारा करो ।
फ़िक्र-ऐ-उक़बा की मस्ती उतर जायेगी तौबा टूटी तो किस्मत संवर जायेगी ,
तुम को दुन्या में जन्नत नज़र आ'आय गी शैख़ जी मई-कड़े का नज़ारा करो ।
काम आए न मुश्किल में कोई यहाँ, मतलबी दोस्त हैं मतलबी यार हैं,
इस जहाँ में नही कोई एहल-ऐ-वफ़ा, ऐ फ़ना इस जहाँ से किनारा करो ।
ऐसा बनना संवारना मुबारक तुम्हें, कम से कम इतना कहना हमारा करो...
नुसरत फ़तेह अली खान साहब की कई शानदार कव्वालियों में से एक
जीवन का सबसे बड़ा सत्य क्या है, और क्या सभी जानने की चेष्ठा करते हैं ?
जीवन का सत्य ढूँढने चले सेंकडो महा पुरूष अंत में इश्वर को पाते हैं, सचमुच क्या इश्वर जीवन है? या जीवन का सत्य है? या वे सिर्फ़ इश्वर के बहाने जीवन के किसी रस को पा जाते हैं और अपने में मस्त जीवन यापन करते हैं ।
खैर जीवन का सत्य मेरे लिए महत्त्वपूर्ण ना होकर जीवन महत्वपूर्ण है, और विचारों की एक श्रृंख्ला एक 70MM की रील के समान घूम रही है, कहीं आपको प्रश्न सुझाती है कहीं उत्तर, और कहीं आप उन प्रश्नों को भूल जाते हैं, तो कहीं जूझ जाते हैं । महत्त्व है तो सिर्फ़ परिवर्तन का तो बस बने रहें परिवर्तन के साथ .
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थम गए नेता जी ब्लॉग
बड़े नेता जी ने बनाया बड़ा ब्लॉग , उस पर पैसा भी लगाया , ब्लॉग का विज्ञापन भी चलवाया पर अब वोह बंद हो गया है । वो भी बेचारे परेशां हैं एक तो कोई पढता नही था और अगर कोई पढ़ भी लेता तो भी वोट नही देता , भाई ये भी कोई बात हुई , मुह उठाए आ गए ब्लॉग पढने , अरे भई कमेन्ट दो तो जरा हमें भई अच्छा लगे आप को ही
अरे हालत तो ये हैं के नेता जी , अरे नाम तो बोला है नही, अरे अपने अडवाणी जी के ब्लॉग पर आखिरी पोस्ट 1 मई को छपी थी और उस पर पहली टिप्पणी 11 मई को देखने को मिली । खैर ये तो अच्छा है के देश में दूसरे लोगों को भी सूचना प्रोद्योगिकी के बारे में जानते हैं नही तो ये भइया तो कुछ भी बोलकर वोट ले जाते ।
बात सूचना प्रोद्योगिकी की है तो मध्यप्रदेश कैसे पीछे रह सकता है , तो बन गया ब्लॉग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का लिखते हैं या लिखवाते हैं समझ नही आता पर इनको पढ़कर ये नही लगता के कोई मुख्यमंती लिख रहा है , मुझे तो इस बात प् भी संशय है की ये हैं भी या नही , पर जो भी कहो पाँव पाँव वाले भइया की चलती खूब है , गाँव गाँव में इनकी पहुँच तो है ही साथ ही पहली ही पोस्ट पर टिप्पणिओं का आंकडा 110 पार जाने से इनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है , और ये भी नही के कोई भी लिख गया , हिन्दी ब्लॉग्गिंग के जाने मने नाम उनके ब्लॉग पर टिप्पणी करते हुए पाए गए हैं, पर अब वे भी लिखने पर कम ही विश्वास करते हैं , ऐसे में मेरी तो उनको ये ही राय है की साहब ब्लोगिंग व्लोगिंग छोड़ कर ट्विट्टर पर चेह्चाहना शुरू कर दें कम लिखें और लोगों को अपनी गतिविधिओं के बारे में बताते रहे । ज्यादा टेंशन भी नही है , कुछ नही किया तो लिख दें , "आज कोई काम नही है, तालाब जायेंगे मिटटी खोदने "शायद कोई आ जाए ।
ऐसा नही है की ब्लॉग सिर्फ़ इनने ही बनाये हैं , ब्लॉग तो हमारे नरेन्द्र सिंह तोमर जी ने भी बनाया है , उस ब्लॉग से सुंदर उस पर उनकी तस्वीर लग रही है । पर ये तो बस ये ही कहते हैं ,
की ये न थी हमारी किस्मत के विसाले पाठक,
अगर और लिखते रहते तो भी ये ही हाल होता ।
इन के ब्लॉग पर जो आते भी थे वो भी BJP वाले , तो कब तक लिखते रहते , छोड़ दिया लिखना पढ़ना । 24 अप्रैल से शुरू किया और 2 मई तक अपनी पूरी उर्जा से लिखा बस फ़िर छोड़ दिया । और क्या है अब तो MP हैं !
अभी तक तो हम ऐसे नेताओं की बात कर रहे थे जो राजनीति करते हैं ,पर एक ऐसे नेता जी हैं जो राजनीति बना रहे हैं , बात बस इतनी सी है की वो जीत नही पाए , आदमी अच्छे हैं पर पता नही क्यों राम विलास पासवान से जा मिले , वो कहते हैं न विनाश काले विपरीत बुद्धे । देखने सुनने मैं साधारण आदमी लगते हैं , काम बहुत बड़े बड़े किए हैं पर अपनी एक फ़िल्म में लालू यादव के साले साधू यादव का नाम इस्तेमाल करके बुरा किया , उस ने भी ठान लिया के जितने नही दूंगा । वो ख़ुद हार गया पर प्रकाश झा को भी जितने नही दिया ,
इनका ब्लॉग भी बडिया है , हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में ही आलेख मिलते हैं , लगता है के इनका ब्लॉग तो चलेगा , ये लिखते बडिया हैं , नतीजों के बाद भी इन्होने लिखा है "मैं पराजित पर हारा नही हूँ " पर लोग यहाँ भी नही आते ।
और भी न जाने कितने नेता ब्लागर आए कितने गए पर लगातार पाठक नही साध पाए , आप ही बताएं ऐसा क्यों
एक बात और ट्विटर पर एक संसद महोदय इन दिनों जामे हुए हैं सही मायने में हाई-टेक तो ये ही लगते हैं , शशि थरूर लगातार अपने बारे में लिखते रहते हैं , दिन भर , और हाँ इनकी एक वेबसाइट भी है जहाँ से ये लोगों ये जुड़ते हैं । ये वेबसाइट भी चुनावी है ।
उम्मीद है की ये ब्लॉग मरेंगे नही और हमें कभी न कभी दोबारा इन्हे पढ़ने को मिलेगा
अरे हालत तो ये हैं के नेता जी , अरे नाम तो बोला है नही, अरे अपने अडवाणी जी के ब्लॉग पर आखिरी पोस्ट 1 मई को छपी थी और उस पर पहली टिप्पणी 11 मई को देखने को मिली । खैर ये तो अच्छा है के देश में दूसरे लोगों को भी सूचना प्रोद्योगिकी के बारे में जानते हैं नही तो ये भइया तो कुछ भी बोलकर वोट ले जाते ।
बात सूचना प्रोद्योगिकी की है तो मध्यप्रदेश कैसे पीछे रह सकता है , तो बन गया ब्लॉग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का लिखते हैं या लिखवाते हैं समझ नही आता पर इनको पढ़कर ये नही लगता के कोई मुख्यमंती लिख रहा है , मुझे तो इस बात प् भी संशय है की ये हैं भी या नही , पर जो भी कहो पाँव पाँव वाले भइया की चलती खूब है , गाँव गाँव में इनकी पहुँच तो है ही साथ ही पहली ही पोस्ट पर टिप्पणिओं का आंकडा 110 पार जाने से इनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है , और ये भी नही के कोई भी लिख गया , हिन्दी ब्लॉग्गिंग के जाने मने नाम उनके ब्लॉग पर टिप्पणी करते हुए पाए गए हैं, पर अब वे भी लिखने पर कम ही विश्वास करते हैं , ऐसे में मेरी तो उनको ये ही राय है की साहब ब्लोगिंग व्लोगिंग छोड़ कर ट्विट्टर पर चेह्चाहना शुरू कर दें कम लिखें और लोगों को अपनी गतिविधिओं के बारे में बताते रहे । ज्यादा टेंशन भी नही है , कुछ नही किया तो लिख दें , "आज कोई काम नही है, तालाब जायेंगे मिटटी खोदने "शायद कोई आ जाए ।
ऐसा नही है की ब्लॉग सिर्फ़ इनने ही बनाये हैं , ब्लॉग तो हमारे नरेन्द्र सिंह तोमर जी ने भी बनाया है , उस ब्लॉग से सुंदर उस पर उनकी तस्वीर लग रही है । पर ये तो बस ये ही कहते हैं ,
की ये न थी हमारी किस्मत के विसाले पाठक,
अगर और लिखते रहते तो भी ये ही हाल होता ।
इन के ब्लॉग पर जो आते भी थे वो भी BJP वाले , तो कब तक लिखते रहते , छोड़ दिया लिखना पढ़ना । 24 अप्रैल से शुरू किया और 2 मई तक अपनी पूरी उर्जा से लिखा बस फ़िर छोड़ दिया । और क्या है अब तो MP हैं !
अभी तक तो हम ऐसे नेताओं की बात कर रहे थे जो राजनीति करते हैं ,पर एक ऐसे नेता जी हैं जो राजनीति बना रहे हैं , बात बस इतनी सी है की वो जीत नही पाए , आदमी अच्छे हैं पर पता नही क्यों राम विलास पासवान से जा मिले , वो कहते हैं न विनाश काले विपरीत बुद्धे । देखने सुनने मैं साधारण आदमी लगते हैं , काम बहुत बड़े बड़े किए हैं पर अपनी एक फ़िल्म में लालू यादव के साले साधू यादव का नाम इस्तेमाल करके बुरा किया , उस ने भी ठान लिया के जितने नही दूंगा । वो ख़ुद हार गया पर प्रकाश झा को भी जितने नही दिया ,
इनका ब्लॉग भी बडिया है , हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में ही आलेख मिलते हैं , लगता है के इनका ब्लॉग तो चलेगा , ये लिखते बडिया हैं , नतीजों के बाद भी इन्होने लिखा है "मैं पराजित पर हारा नही हूँ " पर लोग यहाँ भी नही आते ।
और भी न जाने कितने नेता ब्लागर आए कितने गए पर लगातार पाठक नही साध पाए , आप ही बताएं ऐसा क्यों
एक बात और ट्विटर पर एक संसद महोदय इन दिनों जामे हुए हैं सही मायने में हाई-टेक तो ये ही लगते हैं , शशि थरूर लगातार अपने बारे में लिखते रहते हैं , दिन भर , और हाँ इनकी एक वेबसाइट भी है जहाँ से ये लोगों ये जुड़ते हैं । ये वेबसाइट भी चुनावी है ।
उम्मीद है की ये ब्लॉग मरेंगे नही और हमें कभी न कभी दोबारा इन्हे पढ़ने को मिलेगा
सफ़र स्वात से सुवास्तु तक
हिंसा अलगाव तथा पलायन की त्रासदी के दौर सी गुज़र रही स्वात घाटी को वर्तमान पीढी एक हिंसक और वीभत्स दर्रे के रूप मे देख रही है . आने वाली पीढ़ी इतिहास में दर्ज कुछ काले पन्नों के रूप मे इसे याद करेगी , मगर इससे पहले की ये त्रासदी स्वाट घाटी की पहचान बने हम आपको वक्त के चिलमन से झाँकते हुई स्वाट घाटी की एक बेहद खूबसूरत तस्वीर दिखना चाहते हैं जो अपने आकार को लेने के लिए तड़प रही है .
यहाँ प्रस्तुत है राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखित पुस्तक अकबर के चौथे अध्याय बीरबल का अंश , सन्दर्भ बीरबल की मृत्यु का है
इधर-उधर जाने के लिए पहाडों को पार करने वाले दर्रे हैं । सारा इलाका हरा भरा है । शम्स उल-उलमा मौलाना मुहम्मद हुसैन "आज़ाद" स्वात की भूमि के बारे में लिखते हैं -"मेरे दोस्तों, यह पर्वतस्थली ऐसी बेढंगी है, की जिन लोगों ने इधर के सफर किए हैं, वही वहां की मुश्किलों को जानते हैं । अंजानो की समझ में वे नही आती । जब पहाडों के भीतर घुसते हैं, तो पहले पहाड़, मनो ज़मीन थोडी थोडी ऊपर चलती हुई मालूम होती है । फ़िर दूर बादलों सा मालूम होता है, जो सामने दाहिने से बाएँ तक बराबर छाए हुए हैं । वह उठता चला आता है । ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते चले जाओ, छोटे छोटे टीलों की पंक्तियाँ प्रकट होती हैं । इनके बीच से घुसकर आगे बढ़ो, तो उनसे ऊँची-ऊँची पहाडियां शुरू होती हैं । एक पांती को लाँघ थोडी दूर चढ़ता हुआ मैदान है, फ़िर वाही पांती आ गई ।
यहाँ दो पहाड़ बीच से फटे हुए ( दर्रा ) है, जिनके बीच में से निकलना पड़ता है, अथवा किसे पहाड़ की पीठ पर से चदते हुए ऊपर होकर पार निकलना पड़ता है । चढाई और उतराई में, पहाड़ की धारों पर दोनों और गहरे गहरे गड्डे दिखलाई पड़ते हैं, जिन्हें देखने दिल नही चाहता । जरा पाँव बहका और गए, पातळ से पहले ठिकाना नही मिल सकता । कहीं मैदान आता, कहीं कोस दो कोस जिस तरह छाडे थे उसी तरह उतरना पड़ता, कहीं बराबर चढ़ते गए । रास्ते में जगह जगह दायें-बाएँ दर्रे (घाटे, डांडे) आते हैं, कहीं दूसरी तरफ़ रास्ता जाता है । इन दर्रों के भीतर कोसों तक लगातार आदमियों की बस्ती है, जिनका हाल किसी को मालूम नही । कहीं दो पहाडों के बीच मैं कोसों तक गली गली चले जाते हैं । चढाई ( सराबाला) , उतरे (सरोशेब), डांडा (कमरेकोह)
अफगानों को पख्तून भी कहते हैं, जिन्ही को ऋग्वेदिक आर्य पख्त कहते थे ।
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