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सौरभ : गृह राज्य मंत्री नारायण सिंह कुशवाह द्वारा गृह मंत्री और मुख्यमंत्री के बारे में दिए गए बयान से कुशवाह का गुस्सा साफ़ झलकता है. हम सोच सकते हैं, हमारी व्यवस्था इतनी ढीली और नकारा है कि प्रदेश के कैबिनेट और राज्य मंत्रियों के बीच काम का बंटवारा नहीं होता, ये शिकायत प्रदेश ही नहीं केंद्र सरकार के मंत्री भी कर चुके हैं. व्यवस्था के सबसे ऊपर के लेवल पर इस बदइंतजामी से हम सबसे निचले स्तर का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं.

मयूर : मुझे लगता है कि इतनी बदइंतजामी का कारण हमारा अब तक चुप रहना ही है. यदि नारायण सिंह कुशवाह जैसे अन्य लोग पहले मुखर हुए होते तो शायद आज स्थिति कुछ और होती. खास तौर पैर मध्य प्रदेश कि बात करें तो यहाँ के लोग राजनीति में सबसे ज्यादा निष्क्रिय है. जरुरत है आम लोगों कि व्यवस्था से जुड़ने की.

रवि: लेकिन अहम सवाल यह है कि लोग आखिर चुप्प क्यों हैं, या किसी चमत्कारिक दिन के इन्तेजार मैं हैं, जब व्यवस्था अपने आप ही पटरी पर आने लगे. यह मामला केवल एक राज्य के क्षेत्र विशेष तक ही नहीं जुडी है , बल्कि सही बात तो ये है कि आज देश की सम्पूर्ण व्यवस्था और संरचना में बुनियादी बदललाव आ चुके हैं .

सौरभ : चमत्कार की उम्मीद में बैठे रहना अधिकांश भारतीयों की सोच में है, और ऐसा क्यों है ये भी चिंतनीय है, लेकिन एक बात ये भी है कि हमारे शासन कर्ताओं में इच्छाशक्ति और प्रतिबधता कि बेजा कमी है . यह बात उनकी असंवेदनशीलता को भी दर्शाती है .

रवि : यह बात केवल शासन कर्ताओं से नहीं जुडी है, बल्कि सारे अंगों से जुडी हुई है, उदारहण के लिये आज परिवार कि अवधारणा पर सवाल उठ रहे हैं. यही नहीं आज विवाह जैसी पवन संस्था को पश्चिम के चश्मे से देखा जाने लगा है. इससे पता चलता है कि हम अपने मूल से दूर होते जा रहे हैं. हम शायद भूलते जा रहे हैं कि विरोध या आवाज़ उठाना भी एक जरुरी चीज़ होती है आखिर हम आज़ादी के बासठ साल बीत जाने पर भी सभी का पेट नहीं भर पाए क्यों ? हमारे देश में १९७४ के बाद खास तौर पर कोई छात्र आंदोलन नहीं होना यही बताता है कि हमारा दायरा लगातार सिमटता जा रहा है और हम सरहदों के पार नजरें उठा कर देखने का कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं .

मयूर : अभी मैं एक प्रवचन सुन रहा था, व्यास पीठ से कहा गया के वीर वो होता है जो अपने शत्रुओं को नष्ट करे और महावीर वो होता है, जो अपने अंदर उपजी बुराइयों रुपी शत्रुओं को नष्ट कर सके. आज हम अपने अंदर कि बुरायिओं से इतनी बुरी तरह से त्रस्त हैं के हमारे पास किसी अन्य विषय पर सोचने का समय ही नहीं है . हम अपनी दिन दौड से ही इतने परेशां हो जाते हैं के हमारे पास कुछ समय ही नहीं बचता , और जो बचता है सो , आराम ...
इसमें हम हमेशा व्यवस्था को दोष देते हैं , माना कि समय लगेगा पर हमें शुरुआत तो करनी ही होगी ना .

पिरामिड में निचे से ऊपर जाना मुश्किल होता है, पर शुरू तो करना ही होगा

सौरभ : बात वाही है कि शुरू कौन करेगा, कब, कहाँ, कैसे करेगा . सब भगत सिंह को पड़ोस में ही चाहते हैं . इसमें हम भी शामिल हैं

मयूर : हमें पार्ट-लेस, यानि मोहों से मुक्त होना होगा, तब जा कर हम कुछ कर सकते हैं, पर आज भौतिक विश्व में अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में ही समय बीत जाता है

रवि : हम यहाँ एक लीडर का , एक सैयोजक का आह्वाहन करते हैं
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2 comments:

  1. nice...Talk... नमस्ते जी.. एक बात और पूछना चाहूँगा.. आपने इस टेम्पलेट को अपलोड कैसे किया। डाऊनलोड करना तो आता है लेकिन अपलोड में दिक्कत है।

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