ऐसा नही के पुरूष प्रधान का एक कोना हमेश से ही महिलाओं को आगे आते देखना चाहता था , और उस ने अपना पूरा काम भी किया, पर समस्या हमेशा ज्यादा लोगों को जोड़ने की रही । स्वामी दयानंद और राजा राम मोहन राय ने 19 वी सदी में जो अलख जगाई थी उसको उनके अनुगामियों या कहें के आने वाली पीडियों ने सिर्फ़ किताबों में दर्ज करने और उपन्यास लिखने के आलावा बहुत कुछ नही किया ।
बीती आधी सदी में जहाँ महिलाओं के उत्थान में कथित रूप से सबसे ज्यादा कार्य हुआ है वहीं उनकी व्यावहारिक स्थिति सबसे कमजोर जो गई है ।
नतीजतन आम महिलाओं को ऐसा लगने लगा है के उनसे सम्बंधित फैसलों में पुरूष प्रधान समाज हमेशा दुराभाव से पीड़ित ही रहा है और रहेगा । साथ ही हमारे धार्मिक ठेकेदारों ने भी महिलाओं के अस्तित्व को ईमानदारी से देखने के लिए कभी प्रेरित नही किया ।


मेरा मानना है की यहाँ कमी महिलाओं के प्रति वैज्ञानिक सोच की कमी है , इस समाज में कहीं भी कोई भी नियम कानून बने सबसे पहले और सबसे आखिरी में उससे पीड़ित होने वाली महिलाएं ही होती हैं , कोई भी ( महिलाएं भी ) ये जानने का प्रयास नही करती के ये प्रथा , ये नियम, ये कानून आखिर बने क्यों और कब तक इनको ढोया जाए । बुर्का प्रथा या हिंदू परिवारों में घूंघट प्रथा क्यों शुरू हुई ये कोई जानने की कोशिश नही करेगा, न ही समझायेगा पर सिर्फ़ उनके फायदे और नुकसानों पर बात होगी ।
भारत और विश्व की महिलाओं को चाहिए के एक हों और एक होकर अपने अधिकारों की बात करें ।
हम यहाँ आने वाली कड़ियों में कुछ बातों को वैज्ञानिक रूप से समझने की कोशिश करेंगे , और विमर्श करेंगे की कैसे समाज के बदलावों में वैज्ञानिक नज़रिया ज़रूरी है और कैसे विज्ञान को बदलावों के साथ जोड़ा जा सकता है.
शेष अगली कड़ी में .....
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