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परदे के पीछे से झांकती आंखें

सदियाँ गुज़र गईं के महिलाओं की समानता और सशक्तिकरण की बात शुरू हुए पर आज भी हम पाते हैं के न तो जितना प्रयास होना था हुआ और न ही जितना आगे महिलाओं को बढ़ जाना था बढीं । कारण पुरूष प्रधान समाज तो है ही जो अपनी मानसिकता को बदलने में जरुरत से ज्यादा समय लगा रहा है , पर एक कारण महिलाऐं ख़ुद भी हैं जो अब तक अपने विद्रोही स्वरुप को उभर पाने में असफल रही हैं । ऐसा नही है की 8 मार्च 1957 के बाद कोई बड़ी महिला नेत्री ने इस तरह मोर्चा नही संभाला या वैसे महिला सशक्तिकरण के लिए प्रयास नही हुए पर इस विषय पर जहाँ रसोई से महिला को खींच के लेन की ज़रूरत थी वहां ज्यादातर महिलाएं सिर्फ़ स्वयं ही आन्दोलन में शामिल हो सकीं और एक अदद बड़ा आन्दोलन बनाने से रह गया ।

ऐसा नही के पुरूष प्रधान का एक कोना हमेश से ही महिलाओं को आगे आते देखना चाहता था , और उस ने अपना पूरा काम भी किया, पर समस्या हमेशा ज्यादा लोगों को जोड़ने की रही । स्वामी दयानंद और राजा राम मोहन राय ने 19 वी सदी में जो अलख जगाई थी उसको उनके अनुगामियों या कहें के आने वाली पीडियों ने सिर्फ़ किताबों में दर्ज करने और उपन्यास लिखने के आलावा बहुत कुछ नही किया ।

बीती आधी सदी में जहाँ महिलाओं के उत्थान में कथित रूप से सबसे ज्यादा कार्य हुआ है वहीं उनकी व्यावहारिक स्थिति सबसे कमजोर जो गई है ।

नतीजतन आम महिलाओं को ऐसा लगने लगा है के उनसे सम्बंधित फैसलों में पुरूष प्रधान समाज हमेशा दुराभाव से पीड़ित ही रहा है और रहेगा । साथ ही हमारे धार्मिक ठेकेदारों ने भी महिलाओं के अस्तित्व को ईमानदारी से देखने के लिए कभी प्रेरित नही किया ।

फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबन्ध लगाने की बात उठी है , सरकोजी ने 32 सांसदों का एक आयोग गठित कर इस पर अपना पक्ष देने की बात कही है , सरकोजी ने कहा है की बुर्का गुलामी की निशानी है और इसे हम अपने देश में बर्दाश्त नही करेंगे , उनका इतना कहना हुआ के विश्व भर के मुस्लिम अमाज ने अपना विरोध जाताना शुरू कर दिया है । कुरान और हदीसों के जानकारों के अनुसार किसी भी इस्लामिक धर्म ग्रन्थ में बुर्का शब्द का भी प्रयोग नही है , अलबत्ता हिजाब शब्द ज़रूर उपयोग में लाया गया है । हिजाब , शब्द हेड स्कार्फ के लिए है जिसपर मार्च 2009 में जर्मनी में प्रतिबन्ध लगाया गया , उसका भी इस्लामिक धर्म्ग्रंथियों ने विरोधकिया था ।
इसमे एक दुःख की बात ये भी है की कुछ महिला संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं , विरोध का कारण महिला कपड़े पहनने की आज़ादी से छेड़ छड़ करने का बताया जा रहा है ।

मेरा मानना है की यहाँ कमी महिलाओं के प्रति वैज्ञानिक सोच की कमी है , इस समाज में कहीं भी कोई भी नियम कानून बने सबसे पहले और सबसे आखिरी में उससे पीड़ित होने वाली महिलाएं ही होती हैं , कोई भी ( महिलाएं भी ) ये जानने का प्रयास नही करती के ये प्रथा , ये नियम, ये कानून आखिर बने क्यों और कब तक इनको ढोया जाए । बुर्का प्रथा या हिंदू परिवारों में घूंघट प्रथा क्यों शुरू हुई ये कोई जानने की कोशिश नही करेगा, न ही समझायेगा पर सिर्फ़ उनके फायदे और नुकसानों पर बात होगी ।

भारत और विश्व की महिलाओं को चाहिए के एक हों और एक होकर अपने अधिकारों की बात करें ।

हम यहाँ आने वाली कड़ियों में कुछ बातों को वैज्ञानिक रूप से समझने की कोशिश करेंगे , और विमर्श करेंगे की कैसे समाज के बदलावों में वैज्ञानिक नज़रिया ज़रूरी है और कैसे विज्ञान को बदलावों के साथ जोड़ा जा सकता है.

शेष अगली कड़ी में .....



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