हिंसा अलगाव तथा पलायन की त्रासदी के दौर सी गुज़र रही स्वात घाटी को वर्तमान पीढी एक हिंसक और वीभत्स दर्रे के रूप मे देख रही है . आने वाली पीढ़ी इतिहास में दर्ज कुछ काले पन्नों के रूप मे इसे याद करेगी , मगर इससे पहले की ये त्रासदी स्वाट घाटी की पहचान बने हम आपको वक्त के चिलमन से झाँकते हुई स्वाट घाटी की एक बेहद खूबसूरत तस्वीर दिखना चाहते हैं जो अपने आकार को लेने के लिए तड़प रही है .
यहाँ प्रस्तुत है राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखित पुस्तक अकबर के चौथे अध्याय बीरबल का अंश , सन्दर्भ बीरबल की मृत्यु का है
कश्मीर से पश्चिम में कश्मीर जैसा ही सुंदर स्वात-बुनेर का इलाका हिमालय की सबसे सुंदर उपत्यकाओं में है । इस भूमि पर ऋग्वेदिक आर्य भी इतने मुग्ध थे की उन्होंने इसका नाम सुवास्तु (अच्छे घरों वाला ) रखा, जिसका बिगडा नाम स्वात है । भूमि बड़ी ही उर्वर है । गर्मियों में यह अधिक सुहावना और शीतल हो जाता है । इसके उत्तर में सदा हिम से आच्छादित रहने वाली हिमालय श्रेणी है, दक्षिण में खैबर से आने वाली पहाडियां, पश्चिम में सुलेमान पहाडियों की श्रेणियां चली गई हैं और पूर्व में कश्मीर है । इसमे तीस-तीस चालीस-चालीस लम्बी उपत्यकाएं हैं ।
इधर-उधर जाने के लिए पहाडों को पार करने वाले दर्रे हैं । सारा इलाका हरा भरा है । शम्स उल-उलमा मौलाना मुहम्मद हुसैन "आज़ाद" स्वात की भूमि के बारे में लिखते हैं -"मेरे दोस्तों, यह पर्वतस्थली ऐसी बेढंगी है, की जिन लोगों ने इधर के सफर किए हैं, वही वहां की मुश्किलों को जानते हैं । अंजानो की समझ में वे नही आती । जब पहाडों के भीतर घुसते हैं, तो पहले पहाड़, मनो ज़मीन थोडी थोडी ऊपर चलती हुई मालूम होती है । फ़िर दूर बादलों सा मालूम होता है, जो सामने दाहिने से बाएँ तक बराबर छाए हुए हैं । वह उठता चला आता है । ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते चले जाओ, छोटे छोटे टीलों की पंक्तियाँ प्रकट होती हैं । इनके बीच से घुसकर आगे बढ़ो, तो उनसे ऊँची-ऊँची पहाडियां शुरू होती हैं । एक पांती को लाँघ थोडी दूर चढ़ता हुआ मैदान है, फ़िर वाही पांती आ गई ।
यहाँ दो पहाड़ बीच से फटे हुए ( दर्रा ) है, जिनके बीच में से निकलना पड़ता है, अथवा किसे पहाड़ की पीठ पर से चदते हुए ऊपर होकर पार निकलना पड़ता है । चढाई और उतराई में, पहाड़ की धारों पर दोनों और गहरे गहरे गड्डे दिखलाई पड़ते हैं, जिन्हें देखने दिल नही चाहता । जरा पाँव बहका और गए, पातळ से पहले ठिकाना नही मिल सकता । कहीं मैदान आता, कहीं कोस दो कोस जिस तरह छाडे थे उसी तरह उतरना पड़ता, कहीं बराबर चढ़ते गए । रास्ते में जगह जगह दायें-बाएँ दर्रे (घाटे, डांडे) आते हैं, कहीं दूसरी तरफ़ रास्ता जाता है । इन दर्रों के भीतर कोसों तक लगातार आदमियों की बस्ती है, जिनका हाल किसी को मालूम नही । कहीं दो पहाडों के बीच मैं कोसों तक गली गली चले जाते हैं । चढाई ( सराबाला) , उतरे (सरोशेब), डांडा (कमरेकोह), द्वार (गरिबानेकोह), गलियारा (तंगियेकोह), धार (तेजियेकोह) तराई(दामनेकोह) इन शब्दों का अर्थ वहां जाने पर मालूम होता है ।... यह सारे पहाड़ बड़े-बड़े, छोटे छोटे वृक्षों से ढंके हुए हैं । दाहिने-बाएँ पानी के चश्मे ऊपर से उतारते हैं, ज़मीन पर कहीं नालों और कहीं नहर होकर बहते हैं । कहीं दो पहाडियों के बीच मैं हो कर बेह्त्ते हैं, जहाँ पुल या नाव के बिना पार होना मुश्किल है । पानी ऊँचाइयों से गिर कर आता पत्थरों से टकराता हुआ बहता है, इसीलिए जोर से जाता है, पैर से चल कर पार होना सम्भव नही । थोड़ा हिम्मत करे, तो पत्थरों पर से पैर फिसले बिना न रहे ।" इसी पर्वत्स्थाली ( स्वात ) में अफगान आबाद हैं ।
अफगानों को पख्तून भी कहते हैं, जिन्ही को ऋग्वेदिक आर्य पख्त कहते थे ।
प्रिय मयूर जी,
ReplyDeleteआपका मेरे ब्लॉग पर पधारने तथा मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए अतिशय धन्यवाद. इसे अपना ही ब्लॉग समझें और पधारने में कोई संकोच ना करें. आपका ब्लॉग भी पढ़ा, पूरा तो नहीं पढ़ पाया, मगर जितना पढ़ा अच्छा लगा. सबसे ज्यादा पसंद आया आपका सुझाया "टिप्पणी बॉक्स के ऊपर भाषा बदलो यन्त्र ". पुनःश्च धन्यवाद!!!
साभार
हमसफ़र यादों का.......