आल्लामा इकबाल किसी परिचय के मोहताज नहीं , मुझे वो इसलिए भी प्रिय हैं क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का कुछ समय भोपाल में बिताया है , उनकी लिखी नज्में, गजलें, और बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य कई बार भुला ही देता है के वो एक अच्छे वकील भी थे ।
भारत भर को कम से कम उनकी एक देशभक्तिपूर्ण कविता " सारे जहाँ से अच्छा.. " तो याद होगी ही . इसे तराना-ऐ-हिंद भी कहा जाता है ।
मुझे उनका ये गीत बहुत पसंद है, एक अलग तरह की आवाज़ में पैगाम सुनाता है
मोहब्बत का जूनून बाकी नहीं हैमुसलमानों में खून बाकी नहीं हैसफें काज, दिल परेशां, सजदा बेजूकके जज़बा-इ-अन्दरून बाकी नहीं हैरगों में लहू बाकी नहीं हैवो दिल, वो आवाज़बाकी नहीं हैनमाज़-ओ-रोजा-ओ-कुर्बानी-ओ-हजये सब बाकी है तू बाकी नहीं है
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