रवि शंकर सिंह
आजादी से लेकर आज तक लोकतंत्र के इस सुहाने सफर में संचार माध्यमों की भूमिका तलाशने पर हम पाते हैं कि समय के साथ-साथ इनकी भूमिका भी बदलती रही है। जैसे 1970 तक पत्रकारीय मूल्य मर्यादाएं प्रभावी थी पर उसके बाद व्यावसायिकता का दौर शुरू हुआ और आज तो संचार माध्यमों पर बाजारवादी प्रवृत्तियों का खासा प्रभाव देखा जा सकता है। संचार माध्यमों अर्थात मीडिया की भूमिका को स्पष्ट करने के लिए हमें इसकी कार्यप्रणाली, वर्तमान स्थिति, लोगों तक पहुंच, विषय वस्तु इत्यादि पर भी नजर डालना होगा।
मीडिया की भूमिका का अध्ययन एक दिलचस्प मामला भी इस कारण हो जाता है क्योंकि यह एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें निरंतर परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। हम इसकी भूमिका को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों संदर्भों में दिखा सकते हैं, लेकिन बेहतर होगा कि इसकी सपाट व्याख्या की जाए, ताकि सच का सामना मीडिया स्वमेव कर सके।
विकास योजनाएं : मीडिया की भूमिका
चूंकि भारत एक कल्याणकारी राज्य है और इस नाते वह आम जनता के विकास के लिए तमाम विकास योजनाओं को क्रियान्वित करता है। ये सभी योजनाएं लोगों के प्रगति को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। आजादी से लेकर वर्तमान तक सरकारी एवं गैर सरकारी विकास योजनाओं को जनता तक पहुंचाने तथा उसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित कराने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सवाल शिक्षा का हो अथवा चिकित्सा या अन्य बुनियादी विकास का मीडिया के कारण ही ये जनता तक पहुंच पा रहा है। उदाहरण के लिए आज अगर भारत पोलियो मुक्त देश बनने के कगार पर है तो इसमें मीडिया की जबर्दस्त भूमिका है क्योंकि पोलियो उन्मूलन के लिए लोगों में लोक चेतना जागृत करने का काम मीडिया ने ही किया।
दलितों के उत्थान के संदर्भ में मीडिया की भूमिका
दलितों का प्रश्न देश से तो जुड़ा ही हुआ है, मीडिया से भी जुड़ा है। आजादी के 62 वर्ष बीत जाने पर भी हम देश में आर्थिक-सामाजिक खाई को पाटने में अक्षम रहे। दलितों का प्रश्न हमारे विकास के दावों की पोल खोलने वाला है। मीडिया ने आजादी के बाद लगभग तीन दशक तक इनके प्रश्न व इनकी आवाज को उठाने की मुहिम जरूर शुरू की थी लेकिन कालांतर में मीडिया पर बाजार की पकड़ बनने के बाद दलित समेत सभी कमजोर समूहों को जगह देने में मीडिया को मुश्किल होने लगी। हालांकि दलित तबके में जो भी चेतना जागृत हुई है उसमें मीडिया की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी सही है मीडिया ने जब से ख़बर का उत्पादन करना शुरू किया वैसे-वैसे उत्पादन से दलित प्रश्न व उनसे जुड़े मुद्दे दरकिनार होने लगे। यह दिगर बात है कि मीडिया इस बात को नहीं समझ रहा है कि भारत में सबसे तेजी से दलितों में चेतना जागृत होनी शुरू हुई है।
इसी कारण आज यह बात समझ लेना चाहिए कि भूमंडलीकरण की व्यवस्था में दलित खुद एक सशक्त स्तंभ बनकर उभर रहे हैं।
इसी कारण सिच्चदानंद सिन्हा जैसे चिंतक दलित एवं आदिवासियों के विकास पर बल दे रहे हैं क्योंकि इससे ही भारत की स्थिति मजबूत हो सकेगी।
ग्रामीण विकास में मीडिया की भूमिका
आज के संदर्भ में हम ग्रामीण विकास की बात करें तो स्थिति गंभीर मालूम पड़ती है। हालांकि अब तक ग्रामीण विकास को वर्तमान स्तर तक लाने में मीडिया ने दखल जरूर दी है। लेकिन 1991 के उदारीकरण और फरवरी 2009 में मीडिया में विदेशी निवेश भी छूट के बाद अब स्थिति बदलने की संभावना है और बदली भी है। हालांकि मीडिया में विदेश निवेश 25 जून 2001 को ही अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा मंजूरी दे दी गई थी। इसके बाद से ग्रामीण विकास के मुद्दों को दरकिनार करने की खतरनाक कोशिश की गई जो अब तक बदस्तूर जारी है।
भोपाल में राजबहादुर पाठक स्मृति व्याख्यानमाला में `मीडिया की विफलताएं` विषय पर बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार श्री राम बहादुर राय ने कहा कि आज मीडिया से ग्रामीण मुद्दे और हाशिए के लोग दूर होते जा रहे हैं, जिसके पीछे मुख्य वजह है मीडिया में विदेशी पूंजी की छूट। श्री राय ने ग्रामीण मुद्दों, हाशिए के लोगों और वंचितों की आवाज का विकल्प खोजने के लिए हमें समानांतर मीडिया को विकसित करना होगा।
अगर संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि चाहे अखबार हो अथवा न्यूज चैनल या सिनेमा इनसे ग्रामीण विकास के मुद्दे और गांव गायब होते जा रहे हैं। फिर इनके गायब होते जाने का सिलसिला नया नहीं है। इसका संबंध तत्कालीन भारत में अपनायी गयी विकास की खास पद्धति से भी रहा है, जिसने नगरीकरण को बढ़ावा दिया है और गांव को राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से बाहर फेंक दिया है।
भाषा के विकास में मीडिया की भूमिका
लेकतंत्र को उद्देश्यपूर्ण तथा अनवरत प्रवाहमान बनाए रखने में भाषा की भूमिका खासा महत्व भी होती है। इस लिहाज से हम देखते हैं तो पता चलता है कि मीडिया ने आजादी के बाद नब्बे के दशक तक भाषा की मर्यादा को बनाए रखा। लेकिन इसके बाद मीडिया के सभी घटकों ने प्रतिस्पर्धा के कारण सनसनीखेज और चटकारेदार जिस भाषा को प्रश्रय देना शुरू किया, वह आज चिंता का विषय बनी हुइ्रZ है।
भोपाल में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में `भाषा, संस्कृति व मीडिया` विषय पर श्री रमेश नैयर, प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज, सूर्यप्रकाश दीक्षित, केसी पंत, पुष्पेंद्रपाल सिंह, रमेशचंद्र शाह और प्रभु झिंगरन ने मीडिया में प्रयोंग की जा रही भाषा को लेकर चिंता जाहिर की। यह चिंता वाजिब भी है क्योंकि आज मीडिया से भाषा की तहजीब व तमीज गायब होते जा रहे हैं।
भाषा राष्ट्र के विकास का प्रमुख हथियार होती है लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि भारत का मीडिया आज टीआरपी की होड़ में लोकतांत्रिक मूल्यों को तरजीह नहीं दे रहा है। चूंकि भाषा स्वयं की संस्कृति लेकर चलती है जिससे लोकतंत्र समृद्ध होता है। यह बात मीडिया के जेहन में रखने की होनी चाहिए।
कल हम पढेंगे समकालीन समाज में मीडिया की भूमिका
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ग्रामीण विकास में मीडिया को अपनी भूमिका और सशक्त रूप में निभानी होगी
ReplyDeleteek jagah par itni achchhi samagri, thanks to all, who have provided this
ReplyDeleteग्रामीण विकास में मीडिया की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है । आलेख का आभार ।
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