उठो और उठ के निज़ामे जहाँ बदल डालो ,
ये आसमान ये ज़मीन ये मकां बदल डालो ।
ये बिजलियाँ हैं पुरानी ये बिजलियाँ फूंको ,
ये आशियाँ है कदिम आशियाँ बदल डालो ।
गुलों के रंग मैं आग पंखुड़ी में शराब ,
कुछ इस तरह रविशे गुलसिताँ बदल डालो ।
मिज़ाज़-ए-काफिला बदला तो क्या कमाल किया ,
मिज़ाज़-ए-रहबारे कारवाँ बदल डालो ।
'हयात' कोई कहानी नही हक़ीकत है,
इस एक लफ्ज़ से कुल दास्ताँ बदल डालो ।
चाँदी के वरक में लपटा भारत
हलवाइयों ने हमें एकाधिक स्वादों से तो परिचित कराया है, वे मिठाई बनने के बाद उसे सुंदर बनने के लिए उसपर चांदी का एक वरक चढा देते हैं और ये ही वरक मिठाई को कृत्रिम रूप से ताज़ा दिखाने में भी इस्तेमालहोता है . बहुत दीनो बाद कल डाक घर जाने का मौका मिला, डाक घर अब नया हो चुका है, नई कुर्सियाँ , दीवारों पर नया पैंट और बाबुओं के काउंटर का रंग भी बदल गया है . कुर्सियाँ चाँदी के रंग मैं हैं और काउंटरों का रंगलाल है . दरअसल सिर्फ़ इतना ही बदला है , कार्य करने की गति और तरीके में कोई ख़ासा फ़र्क नहीआया है । खैरमैं ये कहना चाहता हूँ की आज हमारा भारत जितना विकसित है उससे ज़्यादा उसपर चाँदी की वरक चड़ा कर दिखाजा रहा है . पुरानी इमारतों में उपर से सनबोर्ड लगाकर नया रूप तो दे दिया जाता है पर असल में बदलता कुछ नहीहै .हमारी सरकार ही नही हम खुद ही अपने आप को इस धोके से बाहर नही निकालने चाहते . हम भारतीयों कोचमक ने हमेशा से अपनी और आकर्षित किया है , हम आज भी हर चमकती हुई चीज़ को सोना मानने से नहीचूकते ।
चु नाव हमे बदलाव का सबसे बड़ा रास्ता नज़र आते हैं जिसे लोकतंत्र का उत्सव भी कहा जाता था . पर हमबदलना क्या चाहते हैं सरकार,क्या करेगी नई सरकार भी आ कर , लोग तो घुमा फिरा कर वो ही हैं ना . मुझे सागर निज़ामी की एक नज़्म के मध्यम से अपनी बात आगे बढ़ना अच्छा लगेगा . धन्यवाद
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भाई साहेब सुंदर वस्त्रों से प्रथमतः भद्र पुरुष का आभास होता है. पर वास्तविकता का पता तो उसके व्यवहार, शालीनता एव मन की निर्मलता से लगता है. दरअसल हम जो है वो दिखाना नहीं चाहते बल्कि उससे कई गुना अधिक बड चढ़ कर आभासित करना चाहते है और इसी भ्रम को पालकर रहने की आदत बना ली है. आज आवश्यकता है अपनी कार्य शैली में सुधार करने की जो हम करना नहीं चाहते. नोकरशाही में कितनी ही पगार बड़ा दो, कार्य के घंटे कम कर दो, त्वरित कार्य निष्पादन हेतु कंप्यूटर लगो दो पर धाक के वाही तीन पात, यंत्रो पर धुल जमी रहेगी व् कम में टालमटोल होती रहे गी. इसे हमारी नियति ही कहा जा सकता है.
ReplyDeleteआपका ब्लॉग भी अच्छा लगा
ReplyDeleteबधाइयां
स्ट्रक्चर पर कमेन्ट के लिए आभार