भारत मालों से बढेगा या मेलों से ? india will grow through malls or by melas(fairs)

भारत मालों का देश न होकर मेलों का देश है, यहाँ गाँव-गाँव में मेले सिर्फ एक उत्सव या त्योहारों का प्रतीक नहीं अपितु देश के अर्थशास्त्र का एक हिस्सा है, नई शहरी विचार की वकालात अब आम है , और आज शोर-शराबा गाड़ियों की आवाज़ के ज्यादा किसी मैदान में लगे मेले से आने वाली आवाज़ को कहते हैं । लोग परेशान हो जाते हैं नवरात्री पर होने वाली 10 दिनों की राम लीला से, डोलग्यारस, अनंत चतुर्दशी और नवरात्री के बाद निकलने वाले चल समारोहों से , कारण पूछने पर कोई नाराज़ नही होता, बल्कि भड़क जाता है अपनी सुरक्षा के नाम पर, अपने स्वस्थ के नाम पर, और अपने बच्चों की पढ़ाई के नाम पर। क्या वाकई लोगों का भड़कना जायज़ होता है ?
भोपाल शहर में 29.09.2009 को दुर्गा विसर्जन समारोह था । ये शहर के दो हिस्सों में अलग अलग निकला जाता है । रात 10 बजे से शुरू होते हुए सुबह 6 बजे तक चलने वाले चल समारोह में विभिन्न समितियों द्वारा शहर भर में स्थापित झांकियों को गरिमामयी तरीके से सजाया जाता , बेहतरीब विद्युत सज्जा और चालित सामग्रियों के साथ निकला जाता है । एक एक झांकी पर हजारों रुपए खर्च होते हैं । उन झांकी वालों को क्या मिलता है, सिर्फ़ कुछ चुनिन्दा मंचों से प्रशस्ति , और कुछ मंचों से 501 और ज्यादा से ज्यादा 1001 रुपए का नगद पुरस्कार , वो भी चुनी हुई झांकियों को , फ़िर वो क्यों लाते हैं हर साल, क्या सिर्फ़ पैसा बहाने ?
वहां सड़कों पर 1 लाख आदमी घूम रहा है, और उसके पास कुछ खर्च करने को भी होता है, इसी बीच कुछ छोटे ठेले वाले चना जोर गरम , पपडी, पॉप कॉर्न, गुब्बारे और न जाने कितनी चोटी चोटी चीजें बेचते हैं . कुछ व्यापारी रात भर अपनी दुकाने खोले रहते हैं के लोगों तक उनकी ज़रूरत का सामान पहुँच सके । और ऐसे ही धन का संचार होता है। कुल मिला कर फायदा बाज़ार को होता है क्योंकि ये छोटी दुकान वाले बड़ी दुकानों से अपना समान लाते हैं, जिनकी बिक्री बढती है, छोटे व्यपारी के पास ज्यादा पैसा आ जाने से वो अपने व्यपार को बढ़ता है, तो बाज़ार में और पैसा आता है, और इन सभी से मिलकर शहर में रोज़गार बढ़ता है और गरीबी मिटती है । लोगों के पास पैसा आने से झांकियां लगाने वाली समितियों को दोबारा चंदा मिलता है और वे दुबारा झांकिया लगते हैं ।
हमारी पीड़ी को खरीददारी का मतलब मॉल, भीड़ का मतलब फ़िल्म छूटने के बाद मल्टीप्लेक्स से छूटने वाला हुजूम, और अर्थशास्त्र का मतलब शेयर बाज़ार ही बताया गया है । वो कभी किसी गाँव में लगे मेले में चला जाए और उसे मंगल पर जाने जैसा एह्साह होने लगे तो भी कोई बड़ी बात नही है । हम इतनी जल्दी परग्रही और पर वतन नही हो सकते, हम एक नया इतिहास तो बनायेंगे पर जो हमारे बुजुर्गों ने सांचा गढा है उसका क्या , यदि उसे समझे बिना ही नया सोपान लिखना शुरू कर ज्यादा मेहनत करनी होगी समय भी अधिक लग जाएगा ।
हमारा देश एक अलग संस्कृति को लेकर चलने वाला और अपने बनाये मापदंडों पर चलने वाला है , यहाँ सरकार को और युवाओं को ये समझना होगा के हमें क्या प्रोत्साहित करना है और कैसे करना है । शहर में मॉल खोलने से रोज़गार कितने बढ़ेंगे और एक हाकर्स कार्नर बनने से कितने रोज़गार बढ़ेंगे , बहुत साड़ी चोटी चोटी चीजों पर ध्यान देने की ज़रूरत है बाज़ार को बढ़ने के लिए , और लोगों को उन्नत करने के लिए ।
इन विषयों पर आज से कई साल पहले सोचा जाना चाहिए था जो नही किया गया, आज एक बार और यदि हम अपने दम पर एक ऐसी अर्थ व्यवस्था की नींव रख पाते हैं जो भारत की हो तो ये सचमुच भारत का विकास होगा ।
जाते जाते आपको छोड़ रहा हूँ भोपाल में बैठी विभिन्न झांकियों में से एक शिव-बारात के दृश्य के साथ


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3 comments:

  1. आपका आलेख सच मे बहुत विचार्णीय है । विकास के लिये अपने देश की संस्कृ्ति को भी समझना जरूरी है। जब तक सभी वर्गों की भागीदारी अर्थव्यवस्था मे नहीं होती तब तक समुचित विकास की कल्पना नहीम हो सकती। बहुत बडिया आलेख है झाँकी की तस्वार बहुत सुन्दर है बधाई

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  2. BAHOOT ACCHA PRAYAS HAI MAYURJI AAPKA

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  3. बेहद खूबसूरत और सामयिक प्रविष्टि । आभार ।

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