आर के से बिग बी तक सभी तर हैं रंगों से

ब्लॉग जगत मैं जम के होली की धूम है ,और हमारी श्रंखला भी चल ही रही है वादे के अनुसार रोजाना हम हाजिर होही जाते हैं कुछ कुछ लेके, वो क्या है हमारा एक सपना है रंगों से भरा ,रंग खुशियों के ,रंग संतुष्टि के ,और रंगसुफिआना कुदरत के और अगर एक ही दिन में रुक जाते तो शायद बात बनती या सिर्फ़ बधाई दे देते तो भी बात बनतीतो फ़िर क्या था हम जुट गए कुछ जानकारी जुटाने मैं ,बरसाने ,कुमाऊ, राजिस्थान, बंगाल, हरियाणा और पंजाब , भोपाल ,कुछ पुराने सन्दर्भ और बनारस की होली बताने के बाद आज हम बिग बी के घर जा पहुंचे हैं ,रास्ता बीबीसीने बताया हैये आलेख यहाँ इसलिए दे रहे हैं क्योंकि कोई साल पहले की बीबीसी की खबरें कोई नही पढता .हम तो भाई तर हैं रंग से उम्मीद है आप भी सँभालने की कोशिश नही कर रहे होंगे । रोज़ की तरह एक मधुर गीत भी लगा है पोस्ट में ।
<span title=अमिताभ बच्चन
अमिताभ बच्चन के बंगले प्रतीक्षा में होता है अब होली का आयोजन
एक ज़माना था जब फ़िल्म जगत की होली राज कपूर के आरके स्टूडियो की होली से पहचानी जाती थी.

लेकिन ज़माना बदला और आरके स्टूडियो की रौनक ख़त्म हो गई अब बिग बी का ज़माना है और फ़िल्मी दुनिया की होली का रंग जमता है अमिताभ बच्चन के बंगले 'प्रतीक्षा' में.

पहले कहा जाता था कि जिस हीरो-हीरोइन ने आरके स्टूडियो में होली नहीं खेली उसने क्या होली खेली.

बीते ज़माने के किसी भी कलाकार से होली की बात करें तो उसके ज़हन में आरके की होली ही नज़र आती है.

पृथ्वीराज से राजकपूर तक

पृथ्वी थियेटर्स के सारे कलाकार मिलकर राग-रंग का उत्सव मनाया करते थे और आस-पास के फ़िल्मी गैर-फ़िल्मी कलाकार, बिन बुलाए जुट जाया करते थे
शशि कपूर

इन्हीं यादों के गलियारे से गुज़रते हुए शशि कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के समय मनाई जाने वाली होली के बारे में बताते हैं- "पृथ्वी थियेटर्स के सारे कलाकार मिलकर राग-रंग का उत्सव मनाया करते थे और आस-पास के फ़िल्मी गैर-फ़िल्मी कलाकार, बिन बुलाए जुट जाया करते थे."

अबीर गुलाल लगाने के बीच पृथ्वी थियेटर्स के लोग मेहमानों को पूरी-भाजी परोसते थे और होली का दिन रंग के साथ नाच-गाने से सराबोर हो उठता था.

पृथ्वीराज कपूर की इसी परंपरा को राज कपूर ने आरके स्टूडियो के निर्माण के साथ संस्थागत रूप दे दिया. 1952 के आसपास जब फ़िल्म 'आह' और आरके स्टूडियो दोनों मुकम्मिल हुए तो शशि कपूर की उम्र मात्र 14 साल थी मगर आरके की होली और मस्ती भरी हुड़दंग उन्हें बखूबी याद है.

एक बड़े टैंक में रंग और दूसरी तरफ भंग मेहमानों के स्वागत के लिए तैयार किए जाते थे. और हर आने वाले को उन दोनों से सराबोर किया जाता था.

<span title=राजकपूर और वैजयन्ती बाला माली"
फ़िल्मों में साथ काम करने वाली सभी हीरोइनें आरके स्टूडियो में उपस्थित होती थीं

फ़िल्म उद्योग से जुड़ी लगभग सभी छोटी-बड़ी हस्तियाँ आरके की होली में शरीक होती थीं. मशहूर नृत्यांगना सितारा देवी का नृत्य तो इस होली की ख़ासियत थी ही मगर शैलेन्द्र के गीतों और शंकर जयकिशन के संगीत से समाँ बंध जाया करता था.

इस महफिल में खान-पान की जिम्मेदारी नरगिस पर होती थी. वैजंतीमाला और सितारा देवी की एक नृत्य जुगलबंदी की याद शशि कपूर ख़ास तौर पर करते हैं. इस अनूठे और मस्तीभरे प्रयोग से उस साल की होली का मज़ा कई गुना हो गया था.

आने वाले सालों में आरके की होली ख़ुद अपनी पहचान बन गई और इंडस्ट्री के साथ-साथ देश को भी इसका इंतजार रहने लगा.इस साल पता नही क्या होगा

बदलते रंग

1970 के आस-पास फ़िल्म इंडस्ट्री बुरे दौर से गुज़र रही थी और आरके में भी ‘मेरा नाम जोकर’ के पिट जाने से मायूसी थी, मगर सन् 74 के आते-आते बॉबी की सिल्वर जुवली से खुशियों के रंग फिर लौट लाए और इस साल फ़िल्म जगत ने आरके की होली में अपनी बदहाली से उबरने का जश्न भी मनाया.

आरके की होली जहाँ फ़िल्म इंडस्ट्री की मस्ती और रिश्तों की गर्माहट का आईना हुआ करती थी वहीं प्रतीक्षा की होली ‘पेज थ्री’ की होली होती है जो रिश्तों के लिए कम और अपने मीडिया कवरेज के लिए ज़्यादा जानी जाती है

शशि कपूर की पत्नि जेनिफर कपूर भी होली में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करती थीं. शशि कपूर को याद है कि राज कपूर की पीढ़ी के लोगों के अलावा कई पीढ़ी के उभरते कलाकार भी आरके की होली में जोर-शोर से शामिल होते थे.

दरअसल आरके की होली फ़िल्मी लोगों के लिए एक ऐसा पड़ाव भी जहाँ वो सालभर के काम के बाद मस्ती भरी तरावट पा जाते थे.

राज कपूर की बीमारी और निधन के साथ इस होली का रंग फीका पड़ता गया और आरके की मशहूर होली इतिहास हो गई.

‘प्रतीक्षा’ की होली

आरके की होली के बंद होने के कुछ बरसों बाद तक एक तरह का शून्य रहा.

<span title=अमिताभ बच्चन"
राज कपूर की विरासत को अमिताभ बच्चन आगे बढ़ा रहे हैं

फिर अमिताभ बच्चन ने सामूहिक रूप से मिल-बैठने की परंपरा को अपने ढंग से ‘प्रतीक्षा’ में निबाहने की कोशिश शुरु की.

धीरे-धीरे ‘प्रतीक्षा’ की होली का रंग जम गया.

अब तो अक्षय कुमार से लेकर एश्वर्या राय तक शहर में मौजूद हर हस्ती ‘प्रतीक्षा’ की होली के लिए प्रतीक्षारत रहती है.

मगर जहाँ लोग पुराने शिकवे शिकायत भूल रंग और नरंग में डूबने कम और जान पहचान के साथ रिश्तों के नए समीकरण बिठाने ज़्यादा आते हैं.

लेकिन दोनों होली में एक मूलभूत अंतर नज़र आता है शायद बदलते ज़माने के प्रतीक स्वरुप या फिर शोमैन राजकपूर और बिग बी की अलग जीवनदृष्टि के कारण.

आरके की होली जहाँ फ़िल्म इंडस्ट्री की मस्ती और रिश्तों की गर्माहट का आईना हुआ करती थी वहीं प्रतीक्षा की होली ‘पेज थ्री’ की होली होती है जो रिश्तों के लिए कम और अपने मीडिया कवरेज के लिए ज़्यादा जानी जाती है.

क्या कहते हैं लोग

‘कलकत्ता’ और ‘चमेली’ के निर्देशक सुधीर मिश्रा को होली से प्यार है वो कहते हैं कि होली ही एकमात्र त्योहार है जिसमें पूरी इंडस्ट्री तहे दिल से मिलती और मस्ती में खिलती है.

सुधीर की होली अपने दोस्त केतन मेहता और नसीरुद्दीन शाह को रंगने से शुरू होती है और फिर उनका कारवाँ निकल पड़ता है, इंडस्ट्री के बड़े-छोटों को अपने रंग में रंगने. इस सफ़र में अमिताभ बच्चन का घर भी आता है और जुहू बीच भी, जहाँ आम मुंबइया अपनी होली मनाने जुटता है.

सुधीर के लिए शालीनता से मनाई जाने वाली होली ऐसा त्यौहार है जिसकी मस्ती में डूबकर बीते दिनों की कड़ुवाहट घुल जाती है.

<span title=अमिताभ और रेखा सिलसिला में"
फ़िल्मों में भी होली का ग़ज़ब का रंग रहा है: सिलसिला में अमिताभ बच्चन और रेखा (फ़ोटो-यशराज फ़िल्म्स)

ज़रूरत और व्यस्तता के चलते फ़िल्म जगत का एक वर्ग होली काम करते हुए ही मनाता है.

‘लगान’ और ‘गंगाजल’ के चर्चित अभिनेता यशपाल शर्मा पिछले दो सालों से अपनी होली निर्देशक प्रकाश झा के साथ शूटिंग करते हुए मना रहे हैं.

वे कहते हैं कि काम की अपनी तरंग होती है और होली का रंग तो काम पर भी छलक ही जाता है मगर बेफ़िक्री से खुलकर होली मनाने का मज़ा ही कुछ और है.

इंडस्ट्री के दोस्तों के बीच मनाई जाने वाली बंबई की होली को यशपाल ‘मिस’ करते हैं.

जलवा और चालबाज़ के ख्यातिनाम निर्देशक पंकज पराशर इन दिनों अपनी नई फ़िल्म ‘बनारस’ की शूटिंग में व्यस्त हैं. इस साल तो अपनी होली बनारस में मनाने जा रहे हैं और बनारस की ख़ास होली का रंग पूरी तरह जश्न करने के लिए उन्होंने होली के दिन छुट्टी रखी है ताकि अपनी यूनिट के साथ शिव की नगरी “वाराणसी” में जमकर होली की हुड़दंग की जा सके.

मगर मुंबई की होली भी उन्हें कम प्यारी नहीं है और वे अपने अपने मित्र अमिताभ के घर ‘प्रतीक्षा’ में मनाई जाने वाली होली को याद करते हैं.प्रस्तुति सहयोग सधन्यवाद बीबीसी आज ये मधुर गीत फ़िल्म धनवान से है ,बहुत ही अच्छा संदेश देता है ,होली के कुछ तर खोलता है और रंग घोलता है .

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टिपण्णी बॉक्स के ऊपर भाषा बदलो यन्त्र

अपने ब्लॉग में कमेन्ट बॉक्स के ऊपर भाषा बदलो यन्त्र लगायें । मैंने ये अपने ब्लॉग पर लगाया तो सोचा आप लोगों से भी शेयर किया जाए ,वैसे इसे लगाने का मूल आईडिया मुझे टेकटब से मिला .कुछ गूगल बाबा की मदद और थोड़ा सा दिमाग और नमूना हाज़िर है । गूगल कोड की वेबसाइट जिसपर ऐसी ही चीजों का ज़खीरा हाज़िर है ,वहां Google AJAX Language API पर इंग्लिश से हिन्दी में मिला । इसका सबसे बड़ा फायदा ये है की आपके पाठक को हिन्दी में कमेन्ट देने से पहले किसी और वेबसाइट खोल के लिखना और फ़िर पेस्ट नही करना होगा

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लोकमंगल का महायज्ञ : आम चुनाव 2009

योगेश पाण्डे

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आम चुनावों की घोषणा के साथ ही लोकतंत्र के महायज्ञ की तैयारियॉं शुरु हो गई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि 60 सालों के इस लोकतंत्र को दिशा देने में इस बार के चुनाव बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। गठबंधन की राजनीति का भविष्य तय होगा। ये भी तय होगा कि राजनीति में सिद्धांतों की पैठ किस स्तर तक है। मतदाताओं को राजनीतिक दलों के सिद्धांत किस हद तक प्रभावित करते हैं। दरअसल इस उम्मीद की किरण झारखंड में सिबु सोरेन की हार से उपजी है। सजायाफ़्ता को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने का भी असर इस बार के चुनाव परिणामों को थोड़ा उजला करेगा। ये एक अलग बात है कि ऐसे बाहुबली अपने किसी निकटस्थ को चुनावी मैदान में उतारकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को उड़ान दें। quote-wallpaper89

विश्व राजनीति में ओबामा के उदय का असर भी भारतीय राजनीति में अपना असर दिखा सकता है। खासतौर पर तब, जब इस दफा तीन चौथाई युवा मतदाता आमचुनाव में पहली बार मतदान करेगा। इनका दृष्टिकोण चुनाव परिणामों को बहुत हद तक प्रभावित करेगा।
उदारीकरण की चोट से घायल मतदाता भी महत्वपूर्ण भूमिका में होगा। ये भी पता चलेगा कि भारत का मतदाता एक पूंजीवादी लोकतंत्र का समर्थक है या उसे समाजवादी लोकतंत्र की महक ज्यादा सुहाएगी। लेकिन इन सबके लिए जरुरी है कि मतदाता राजनीतिक दलों के आडंबरों को समय रहते समझे। राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों की देश और समाज के प्रति प्रतिब°ता को समझे। अपने तुच्छ स्वार्थों से ऊपर देशहित की भावना को दृष्टिगत रखना होगा। तभी इस महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद लोकमंगल की कामना सिद्ध हो सकेगी। आम चुनाव की इस श्रृंखला में कुछ ऐसे ही पक्षों पर विमर्श की ये प्रक्रिया सतत जारी रहेगी।

पंजाब का होला मोहल्ला और हरियाणा की धुलन्डी

उत्सवों का अड्डा और रंगों की पनाहगाह पंजाब,हर मायने में भारत की विविधता का प्रतिक है उत्सव हो और शोर शराबा न हो भला ऐसा हो सकता है !

आज हम आप को लिए चलते हैं पंजाब के एक मोहल्ले में और हरियाणा की धुलन्डी में बशर्ते आप झूमेंगे।
हाँ और जाने से पहले गीत जरूर सुनियेगा


पंजाब का होला मोहल्ला


पंजाब मे भी इस त्योहार की बहुत धूम रहती है। सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री अनन्दपुर साहिब मे होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है।

सिखों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है।कहते है गुरु गोबिन्द सिंह(सिक्खों के दसवें गुरु) ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी।तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में सिख शौर्यता के हथियारों का प्रदर्शन और वीरत के करतब दिखाए जाते हैं। इस दिन यहाँ पर अनन्दपुर साहिब की सजावट की जाती है और विशाल लंगर का आयोजन किया जाता है।

कभी आपको मौका मिले तो देखियेगा जरुर।

हरियाणा की धुलन्डी

हरियाणा मे होली के त्योहार मे भाभियों को इस दिन पूरी छूट रहती है कि वे अपने देवरों को साल भर सताने का दण्ड दें।इस दिन भाभियां देवरों को तरह तरह से सताती है और देवर बेचारे चुपचाप झेलते है, क्योंकि इस दिन तो भाभियों का दिन होता है।

शाम को देवर अपनी प्यारी भाभी के लिये उपहार लाता है इस तरह इस त्योहार को मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति मे यही तो अच्छी बात है, हम प्रकृति को हर रुप मे पूजते है और हमारे यहाँ हर रिश्ते नाते के लिये अलग अलग त्योहार हैं।

ऐसा और कहाँ मिलता है।

और फिर सुनिए ये हरयान्वी होली गीत ,नया ही है, आनंद लीजिये
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`सोशल ट्रीटमेंट´का संकल्प लेना होगा

प्रस्तुति-योगेश पांडे





अंतराष्ट्रीय
महिला दिवस पर जगह- जगह संगोष्ठियॉं हो रही है। अखबारों में अग्रलेख छप रहे हैं, पुलआऊट महिला केंद्रित दिख रहे हैं। इन सबमें महिलाओं को समाज के एक उपेक्षित हिस्से के रुप में रेखांकित किया गया है। लेकिन ऐसा करके क्या वाकई हम महिला दिवस की प्रासंगिकता को साकार कर रहे हैं या सिर्फ ....
जो खास सवाल है वो हमें खुद से पूछना होगा। क्या महिला का अस्तित्व एक समाज और व्यक्ति से परे है? ठीक है समाज के कुछ हिस्सों में उसे अन्य हिस्सों की तरह स्वतंत्रता और स्वच्छंदता नहीं है।
मुझे लगता है कि पूरे देश और समाज की यही एक मात्र समस्या है कि हम चीजों और समस्याओं को वर्गीकृत कर देना चाहते हैं। हम ये नहीं देखना चाहते कि यदि कहीं समाज का कोई तबका उपेक्षित या अपने अधिकारों से वंचित है तो ये उस समाज और उस पूरे परिवेश की समस्या है। हमें उस परिवेश पर ध्यान केंद्रीत करना होगा। उस मनोविज्ञान को परखने की कोशिश करनी होगी। दरअसल ऐसा करके हम समस्याओं को टुकड़ों में बॉट देते हैं और फिर हो-हल्ला मचाते हैं कि ये नहीं हो रहा है वो नहीं हो रहा है। समस्याओं को टूकड़ों में बॉंटने की इसी आदत के कारण तो आए दिन हमें अखबारों में ये पढ़ने मिल जाता है कि `दलित महिला का उत्पीडन और आदिवासी महिला का उत्पीडन´ आदि आदि। ये शब्दों का वह भ्रम है जो हमें मूल समस्या के समाधान से और ज्यादा दूर करता जाता है। हमारी दृष्टि को भ्रमजाल में उलझा जाता है। हम ये नहीं तय कर पाते कि इस समस्या की जड़ क्या है? उसका समाधान कैसे हो सकता है? जहॉं तक मुझे लगता है कि बात महिला के अधिकारों की नहीं व्यक्ति के अधिकारों और उसके प्रति संजीदगी की है। हमें महिलाओं की समस्या का समाधान भी उसी स्तर पर खोजना होगा। महिला आरक्षण के मामले में भी वैसा ही है। क्या ये सही नहीं है कि महिला आरक्षण विधेयक पारित न होने के बावजूद भी महिलाएं आज शीर्ष पदों से लेकर पंचायत स्तर में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रही है। जो लोग महिलाओं के पृथक अधिकारों की पैरवी कर रहे हैं वे उस प्रक्रिया से लाभ कमाना चाहते हैं। चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक या आर्थिक , आखिरी में ये कहना ज्यादा बेहतर है कि पहले भी अतीत में मातृसत्तात्मक समाज रहे हैं और मुझे लगता है कि अभी भी 50 फीसदी से ज्यादा घरों में घर के प्रबंधन की जिम्मेदारी महिलाएं ही संभालती है। हमें अपना ध्यान उस परिवेश पर केन्द्रीत करना होगा जहॉं ऐसा नहीं है। गॉंव में तो आज भी महिलाएं जंगल से सिर पर ढोकर लकड़ी लाती है और उसे पास के ही शहर में बेचने जाती है। ऐसा नहीं है कि ग्रामीण और आर्थिक रुप से पिछड़े वर्ग में महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं है। दरअसल जो लोग महिलाओं को आगे नहीं आने देना चाहते वे वह हैं जिन्हें उनके आगे आने से स्वयं का अस्तित्व खतरे में दिखाई पड़ता है। हमें ऐसे लोगों को पहचान कर उनका `सोशल ट्रीटमेंट´ करना होगा। इस प्रक्रिया को किसी एक दिन और दिवस में बॉंधना इस प्रक्रिया की गति को और धीमा करेगा। इस दिन को हमें एक संकल्प दिवस के रुप में स्थापित कर ये संकल्प लेना होगा कि हम पूरे समय सोशल ट्रीटमेंट की अपनी प्रक्रिया को रफ़्तार देते रहेंगे । आत्मुल्यॉंकन करेंगे और पर उपचार करेंगे कि महिलाएं दोयम नहीं, आपके और हमारे अस्तित्व का अनिवार्य और अटूट अंग है। .....