होली तब भी ,होली अब भी ,होली का कोई सानी नही,होली का त्यौहार अगर साल मैं दो बार आता तो भी शायद लोग उतने ही मजे से मानते । पर भाई अब दिक्कत पानी की है ,जब आप कार धोते समय, दाडी बनते समय,अपने हरे बगीचे को तेज़ धुप मैं सींचते समय ,और बे फिजूल मैं अपने नलकूप से पानी निकलते समय उसका ध्यान नही रखते तो वो भला आपको होली क्यों खेलने दे, और जनाब अब तो बात सूखी होली से तिलक होली तक आ गई है ,एक अखबार ने सही विषय उठाया है इस साल ? छोटे शहरों मैं अब भी होली मैं विशेष बाज़ार लगते हैं ,जहाँ गुलाल,रंग और पिचकारी की जम की बिक्री होती है ,कुछ बेरोजगार कुछ दिन तो चैन से रोटी खा ही लेते हैं , पर अब जब पिचकारी नही होगा तो पिचकारी कैसे चलाओगे,कभी फुर्सत मिले तो सोचें और पानी थोड़ा बचैएँ ,अब बात ही कर रहे हैं तो कहूँगा की हिन्दी फ़िल्म जगत के एक प्रसिद्ध वाक्य का शायद अस्तित्व ही नही होता 'होली कब है,होली कब है '--- "श्रीमान गब्बर "-फ़िल्म शोले
होली की इस श्रृंखला का आज नौंवां दिन है ,
कुछ एतिहासिक द्रश्य दिखाना चाहते हैं .
कृष्ण-राधा से लेकर अकबर-जोधाबाई
 |  कृष्ण राधा की होली"> मिथक से लेकर इतिहास तक होली का ज़िक्र रंग और मस्ती के त्यौहार के रुप में होता है |
होली कृष्ण की राधा और गोपियों के साथ हो या अकबर की जोधाबाई के साथ या फिर सिनेमा के रुपहले पर्दे पर खेली जाने वाली होली हो.
हर समय काल में होली का रंग और उसकी मस्ती एक जैसी होती आई है.
बाजों और नगाड़ों के बीच रंग और गुलाल की छटा के बीच हुड़दंग और चुहलबाज़ियाँ.
प्रहलाद और होलिका के प्रसंग को छोड़ दें तो मिथक में भी होली के फागुन की मस्ती में सराबोर उदाहरण ही मिलते हैं.
कृष्ण की राधा के साथ आय की जो तस्वीरें चित्रकारों ने कल्पना से बनाई हैं वो देखते ही बनती हैं.
फिर वो चाहे रंग शताब्दी ही ओंगे की पेंटिंग हो या फिर मेवाड़ तक चित्रकला या फिर बूंदी, कांगड़ा और मधुबनी शैली का चित्र हो कृष्ण और गोपियों की होली के चित्र कलाकारों की पसंद रहे हैं.
मुगलों की होली
सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के क़िस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं.
अकबर का जोधाबाई के साथ रंग खेलना अपने आपमें उस समाज की कई कहानियाँ कहता है.
अकबर के बाद जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का ज़िक्र मिलता है.
शाहजहाँ के ज़माने तक तो होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था.
इतिहास में दर्ज है टी शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था या आब-ए-पाशी यानी रंगों की बौछार कहा जाता था.
आख़िरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र तो होली के दीवाने ही थे.
उनके लिखे होली के फाग आज भी गाए जाते हैं.
''क्यों मो पे मारी रंग की पिचकारी, देखो कुँअर जी दूंगी गारी'' लिखने वाले बहादुर शाह जफ़र के बारे में मशहूर है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे.
मेवाड़ की चित्रकारी में दर्ज़ है कि महाराणा प्रताप अपने दरबारियों के साथ मगन होकर होली खेला करते थे.
राजस्थान के किलों और महलों में खेले जाने वाली होली के रंग तो पूरी दुनिया में मशहूर रहे हैं. वरना बिल क्लिंटन की बिटिया अमरीकी राष्ट्रपति का आवास छोड़कर होली ?
प्रस्तुति सहयोग बीबीसी हिन्दी.कॉम
आज झूमने के लिए ये मधुर गीत छोडे जा रहे हैं .और नजीर अकबरावादी की एक नज़्म भी 'जब फागुन रंग चमकते हों "
'जब फागुन रंग चमकते हों "