नहीं मैडम २४ को नहीं आ पाएंगे

भोपाल में दंगो का डर किस तरह व्याप्त है, इस बात का अंदाज़ा करने के लिए ये वाकया काफी होगा, की अपने नौवे महीने में चल रही एक गर्भवती माँ, को जब डाक्टरनी ने कहा हे २४ तारीख को उसके घर संतान आपने वाली है, तो माँ बोल उठी के नहीं मैडम, या तो एक दिन बाद आयेंगे या एक दिन पहले, उस दिन तो अयोध्या कांड के नतीजे आने वाले हैं, और तब हम नहीं आ सकेंगे, तो आप कोई और डेट सुझा दीजिए, डॉक्टर ने दोबारा समझाने की कोशिश की के ये तो तुम्हारे दर्द के ऊपर है, अगर २४ को ही होता है तो तुम्हे आना ही पड़ेगा, और तुम्हे किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं होगी, मैं खुद तुमसे बात करुँगी, और ज़रूरत हुई , तो सामान लेकर तुम्हारे घर ही आ जायेंगे. पर वो बेचारी कैसे न डरती, १९९२ में हुए दंगों में उसने अपने दो भाई, और अनगिनत पडौसी जो खो दिए थे, तब वो सिर्फ १० साल की थी और ६ दिनों तक एक ही कमरे में बैठी रही थी, अपनी माँ से बारबार पूछती थी, के माँ, भाई कब आयेंगे. अपने पिता की भारतीय फ़ौज की नौकरी का उसे बड़ा गुमान तो था, पर जब घर में ही हादसा हुआ तो, उसके मन को लगने लगा के कैसे न कैसे मेरे पापा मेरे पास ही आ जायें.

अब वो २८ साल की हो गई है, और जीवन के कई पड़ाव देख चुकी है, अपने और अपने परिवार के बारे में बताते बताते उसकी आखें भीगने लगीं, और मेरा मन भी उदास होने लगा, पर वो फिर भी मुझ से बात करना चाहती थी, और बताना चाहती थी के कैसे गुज़रे थे वो दिन और क्या-क्या देखा था उसके परिवार वालों ने, कैसे वक्त पड़ने पर सरकार नहीं बल्कि उसके अपने पडौसी काम आए, और किन लोगों ने उसकी मदद करी. अपने सभी पडौसियों के नाम बताते बताते और उनको दुआएं देते वो थकती ना थी, उसने बताया कि किस तरह उनके पीछे वाले मकान वालों ने उसे और उसके परिवार को अपने घर में पनाह दी और उन को बाहर नहीं निकलने दिया और , कट्टर लोगों से उनको बचाए रखा. वो बताती है कि हम धर्म-मज़हब कुछ नहीं जानते और सब एक होकर ही रहते हैं आगे बताती है के अब हमारे परिवार ऐसे हो गए हैं, जैसे हम उनके घर का हिस्सा हैं, और वो हमारे. हमें उनके रहते कुछ नहीं हो सकता. पर फिर भी यादें तो यादें होती हैं, जिन को बदल पाना बहुत ही मुश्किल होता है, और वो भी अपनी उसी याददाश्त से लड़ने की कोशिश में लगी हुई है.

ये वाकया दरअसल भोपाल के हमीदिया अस्पताल का है, जहाँ मैं अपने एक मेडिकल कालेज के छात्र मित्र के साथ बैठ कर चाय की चुस्कियां ले रहा था, पर भोपाल की उस लड़की के आ जाने से और बात होने से ऐसा लगने लगा जैसे मानो सच में कुछ होने वाला है. आनन् फानन में मैंने भी अपने सभी स्टाफ को सूचित कर दिया के भाई देख लेना और अगर कल(२४ सितम्बर) को सब ठीक हो तो ही आना, नहीं तो छुट्टी ही कर लेना.

खैर शाम आते आते पता चला की फैसला २९ तक टल गया है, मैंने तुरंत अपने डाक्टर मित्र को फोन लगाया और उसे ये खबर सुनाई, मेरी उसको खबर सुनते ही वो समझ गया की मैं चाहता हूँ वो अपनी उस पेशंट को फोन लगाये और उसे भी इस खबर की सूचना दे दे .

सच कितना अच्छा होता है पड़ोसियों का साथ, और कितनी दुआएं मिलती हैं मदद करने से, अब समय बदल गया है, और मुझे उम्मीद है की हम सभी अछे पडौसी हैं , और अपने पडौसियों की रक्षा करना जानते हैं.

इन दंगों से और ऐसी खबरों से हमारी एकता और अखंडता को कुछ नहीं होने वाला .


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3 comments:

  1. यह नेता, यह धर्म के ठेके दार क्यो नही समझते, हम लोगो के दुख, ओर हम लोग क्यो पागलो की तरह इन के कहने से मार काट करने पर उतारू हो जाते है, मंदिर मस्जिद जाये भाड मै आओ मिल कर प्यार बांटे, इक दुजे का सुख दुख बांटे

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  2. यह भय आज नही पैदा किया गया है इसका भी एक इतिहास है और जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे इसी तर्ह मानवता के दुश्मन बने रहते हैं ।

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  3. काफी दि‍न हुए मेरे ख्‍याल से 365, आपन कुछ लि‍खा नहीं...कब होंगे पूरे हम?

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