तीस मिनट का वजन कितना होता है...


यह जानकारी क्या रूह को कंपा देने के लिए काफी नहीं है कि देश में औसतन हर तीस मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा है। तीस मिनट कितना समय होता है? लगभग उतना, जितना मैं शायद अक्सर अपने दोस्त से मोबाइल पर बात करने में बिता देता हूं या फिर आफिस की कैंटीन में चाय पीते हुए... वो तीस मिनट जिसमें एक किसान आत्महत्या कर लेता है या फिर उसके आसपास के कुछ और मिनट, कितने भारी होते होंगे उस एक शख्स के लिए। क्या उस समय उसके दिमाग पर पड़ रहे बोझ के वजन को मापने के लिए कोई पैमाना है?
मौत के बारे में आंकड़ों में बात करना चीजों को थोड़ा आसान कर देता है। जैसे हैती में भूकंप से लाखों मरे, मुंबई हमले में 218 या फिर देश में 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्या की। ऐसा लगता है यह किसी प्लाज्मा टीवी के निहायत किफायती माडल की कीमत है 16196 रुपये मात्र। दरअसल यह अश्लील आंकड़ा भी अखबार के उसी पन्ने पर छपा है जिसमें गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर सोनी के लैपटाप पर 12000 रुपये की छूट का विज्ञापन है। ये अखबार वालों को क्या होता जा रहा है?
किसी को ऐसा भी लग सकता है कि चलो देश की आबादी तो डेढ़ अरब पहुंच रही है 16000 मर भी गए तो क्या फर्क पड़ता है। छुट्टी करो यार.
आंकड़ों से थोड़ा और खेला जाए, हूं... लीजिए जनाब 1997 से अब तक देश में तकरीबन 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके। बिलकुल ठीक ठीक गिनें तो 199,132 । 2 लाख यह संख्या किस जुबानी मुहावरे के करीब है???? हां याद आया 2 लाख यानी टाटा की दो लखटकिया कारें। अकेले महाराष्ट्र में बीते 12 सालों में सर्वाधिक 41,404 किसानों ने आत्महत्या की है यह तो संख्या तो एक हीरोहोंडा स्प्लेंडर मोटरसाइकिल की कीमत से भी कम है। क्या यार ??? इन किसानों को हुआ क्या है कोई समझाओ भाई!
(आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो और हिन्दू में प्रकाशित पी साईनाथ के लेख से)T





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7 comments:

  1. सच कहा आप ने तीस मिनट का वजन हमारी सोच से परे है, बहुत मार्मिक लेख, धन्यवाद

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  2. अत्यन्त संवेदनापूर्ण आलेख !

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  3. ये सब नेताओं की मेहरबानी है जो वोटे की राजनीति से उठ नहीं पा रहे। अब देश को बचाने के लिये कोई मसीहा आये तभी इन 30 मिन का हिसाब लगा सकता है महत्वपूर्ण आलेख आभार

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  4. बहुत सटीक और संवेदनशील पोस्ट.

    रामराम.

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  5. संदीप भैया, बहुत भारी हैं ये तीस मिनट, सच में गला दुःख आया है, और आपने आज सुबह सुबह बहुत दर्द भरी पोस्ट पढ़ा दी है .

    शायद हम भी जिम्मेदार हैं ऐसी ख़बरों को नज़रंदाज़ करने के लिए .

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  6. सच में मौत बहुत सस्ती हो गई है क्योंकी जीने कि वजहें ख़तम हो रही है ओर ये सब साजिश के तहत किया जा रहा है जिसमे आपने भी हैं ओर पराए भी . हर तरफ सवालों कि दुकान सजी हुई है ओर जबावों को किसी आदिवासी कि भांति विस्थापित कर दिया गया है . ये मौतें भी भारत का विस्थापन ही है

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  7. आपने हर तीस मिनट में एक किसान द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के बारे आंकड़ों के साथ बड़ा ही सार्थक एवं दिलदहलाने वाला आलेख संवेदनशील लोगों की ऑंखें खोलनेवाला है. जब से देश में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया शुरू करके w .t .o .की शर्तों को स्वीकारा गया है हमारी सरकार ने पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कम्पनिओं आगे घुटने टेक कर हमारे कृषि क्षेत्र की लगातार उपेक्षा शुरू करदी. खाद, बीज, बिजली, तेल, कृषि औजारों पर सरकारी अनुदानों में कटोती की गयी तो दूसरी और अनाज आदि जिंसों के खरीद मूल्यों में इजाफा अपर्याप्त किया गया. किसानों को बैंकों से कर्ज में जटिल प्रशासनिक प्रक्रिया ने उसे निजी सूदखोरों की शरण में धकेल दिया. कृषि की लागत बराबर बदती रही एवं कृषि को आज घाटे का व्यवसाय बना दिया एव आजकल कोड में खाज का कम किया नरेगा ने जिसमें वोटो की राजनीती के खातिर एक प्रकार से नाम मात्र की खानापूर्ति पर १००-१२५ रूपये की मजदूरी के सहज भुगतान की व्यवस्था ने खेत में काम करने वाले मजदूरों को महंगा एवं अनुपलब्ध बना दिया. आज किसान अपने खेतों को खाली छोड़ कर नरेगा में नाम लिखवा कर आसान मजदूरी की और आकर्षित हो रहा है. नतीजा आना शुरू हो गया है. एक और किसान की कराया शक्ति कम होने एवं कर्ज के असहनीय बोझ तले दब कर लगातार हर तीस मिनट में आत्मा हत्या कर रहा है तो दूसरी और उपजाऊ भूमि को हर शहर गाँव के आसपास रिहायशी, व्यापारिक एवं औद्योगिक उपयोग में बेतहाशा रूप से नष्ट करने से आज आनाज, सब्जी, गुड, शक्कर, सब्जियों के दाम आसमान को चूराहे है. हमारी संवेदनहीन सरकार कुम्भ्करनी निद्रा में सोयी हुई है. किसानों की जल्द सुध नहीं ली गयी एवं उपजाऊ भूमि को नहीं बचाई गयी तो आसन्न अन्न संकट से बचना दुष्कर होगा. संदीप जी मार्मिक लेख के लिएधन्यवाद्.

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