योगेश पाण्डे
बेचना ही बाज़ार का मुख्य धर्म है। बाज़ार का काम है इंसान के लिए ज़रूरत पैदा करना और उन ज़रूरतों के बदले पैसा उगाहना। यह ज़रूरतें सेवा और सामान दोनों किस्म की हो सकती है। लेकिन जब बाज़ार का यह छोर आस्था और भावनाओं को छूने लगता है तो फिर इसका विकृत स्वरुप उजागर होता दिखता है।
बीते दिनों अपनी यात्रा के दौरान कुछ धार्मिक स्थलों में मैंने बाज़ार का जो बदला स्वरुप देखा उसने मेरी आस्था को झंझो़ड दिया। ईमानदारी से और थो़डी ठेठ बात कहूँ तो अब भगवान के मंदिरों के बाहर दलालों के अड्डे पनप गए हैं और इन अड्डों के चलते आम इंसान की आस्था डगमगा रही है। मसलन शनि को क्या और कितना अर्पण करना है, यह अब बाज़ार तय करने लगा है। अब बाज़ार ही पूजा का विधान बता रहा है। विधान ऐसा जिसमें उसका ज्यादा से ज्यादा माल खप जाए। गाय और बंदरों को चने और कुछ घासफूस खिलाकर पूण्य अर्जित करने की सीख भी अब बाज़ार देने लगा है। इस मुफ्त की सलाह के पीछे बाज़ार के अपने निहितार्थ है। ये सब करके बाज़ार अपना धंधा चोखा कर रहा है। लेकिन इस चोखे धंधे की आ़ड में आस्था डगमगा रही है।
500 रुपयों के तेल से शनिदेव का अभिषेक करने के बाद भक्त बाज़ार को कोस रहा है। उसकी नज़र दुकानदार द्वारा उसके गा़डीवान को दिए कमीशन पर भी है, जो दुकानदार ने इसीलिए दिया है क्योंकि वह उस ग्राहक को उसकी दुकान पर लाया है। ग्राहक रुपी वह भक्त रास्ते में पडने वाले किसी ढाबे या होटल में अपने गा़डीवान द्वारा रुपए न दिए जाने को भी ब़डे ही संदेह के भाव से देख रहा है। वह देख रहा है कि भगवान के दर्शन की उसकी अभिलाषा के पीछे कितनों के मनोरथ सिद्ध हो रहे हैं।
वह सबकुछ जानते हुए भी खामोश है क्योंकि ये आस्था का मामला है। वह जानता है कि आस्था के आगे तर्क नहीं ठहरता। आस्था के बाज़ार के इस बिग़डते हालात पर आप-हम सबको चिंतित होना जरुरी है। सवाल सिर्फ बाज़ार के अंधाधुंध मुनाफे का नहीं है बल्कि इंसान की दरकती आस्था का है। बाज़ार और भगवान दोनों पर इंसान की आस्था कमजोर हो रही है।
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