क्रिकेट और चुनाव न होते तो भारत को एक बेरौनक देश कहा जाता। थोड़े-थोड़े अंतराल में यहां चुनाव होते रहते हैं, इतने बड़े देश में चुनाव संपन्न करवाना कोई मामूली बात नहीं है।गत 57 वर्षों में लोकसभा के लिए 15 आम चुनाव तथा विभिन्न राज्यों के लिए अनेक विधानसभा चुनाव हुए लेकिन कुछ कठिनाइयों के बावजूद यह चुनाव निष्पक्ष, स्वतंत्र और सफल रहे हैं।
शोर शराबा, उम्मीदें, भावुकता, गुस्सा, चिंता, खुशी सब कुछ चुनाव में एक साथ नजर आते हैं। इन सब मानव भावनाओं को एक साथ संभालना चुनाव प्रबंधकों के लिए एक टेढ़ी खीर बन जाता है। प्रस्तुत शोध पत्र में भारतीय चुनाव प्रणाली की व्याख्या की गई है। एक चुनाव किस तरह संपन्न होता है, इसे समझाया गया है।
मानव की तरह चुनाव में भी सुधार की हमेशा गुंजाइश रहती है और भारत में भी इसकी जरूरत 1967 से समझी जाने लगी थी, तब से लेकर आज तक किए गए सुधारों को समझकर आगे की जरूरतों का पता लगाने की कोशिश की गई है।
क्रिकेट और चुनाव न होते तो भारत को एक बेरौनक देश कहा जाता। थोड़े-थोड़े अंतराल में यहां चुनाव होते रहते हैं, इतने बड़े देश में चुनाव संपन्न करवाना कोई मामूली बात नहीं है।गत 57 वर्षों में लोकसभा के लिए 15 आम चुनाव तथा विभिन्न राज्यों के लिए अनेक विधानसभा चुनाव हुए लेकिन कुछ कठिनाइयों के बावजूद यह चुनाव निष्पक्ष, स्वतंत्र और सफल रहे हैं।
शोर शराबा, उम्मीदें, भावुकता, गुस्सा, चिंता, खुशी सब कुछ चुनाव में एक साथ नजर आते हैं। इन सब मानव भावनाओं को एक साथ संभालना चुनाव प्रबंधकों के लिए एक टेढ़ी खीर बन जाता है। प्रस्तुत शोध पत्र में भारतीय चुनाव प्रणाली की व्याख्या की गई है। एक चुनाव किस तरह संपन्न होता है, इसे समझाया गया है।
मानव की तरह चुनाव में भी सुधार की हमेशा गुंजाइश रहती है और भारत में भी इसकी जरूरत 1967 से समझी जाने लगी थी, तब से लेकर आज तक किए गए सुधारों को समझकर आगे की जरूरतों का पता लगाने की कोशिश की गई है।
शोध के द्वारा पता लगाने का प्रयत्न किया गया है कि भारतीय चुनाव प्रणाली में कहां खामी है और इसमें किन सुधारों की आवश्यकता है। साथ ही भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रमुख चुनौतियों को भी ढूंढा गया है। कुल मिलाकर प्रस्तुत शोध पत्र में इस लोकतंत्र के महापर्व की प्रक्रिया यानि चुनाव प्रक्रिया और उसके सुधारों की वर्तमान स्थिति का जायजा लेने की कोशिश की गई है।
भारतीय लोकतंत्र में `चुनाव प्रक्रिया एवं चुनाव सुधार` यह एक ऐसा विषय है जो हमारी संपूर्ण गतिविधियों एवं क्रियाकलापों से किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ है। भारत में आजादी के तीन वर्ष बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई और इसके लगभग दो साल बाद चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ हुई।
भारतीय लोकतंत्र की कल्पना करते ही हमारे मस्तिष्क में संविधान का ध्यान आता है, जिसमें भारत की समस्त लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के साथ चुनाव प्रक्रिया का भी वर्णन है। लोकतंत्र राज्य व्यवस्था को बुनियादी ढंग से चलाने की व्यवस्था है, जिसमें जनता `स्व` से शासित होना चाहती है।
लोकतंत्र की व्यवस्था को अनवरत बनाए रखने के लिए ही चुनाव का प्रावधान हमारे संविधान में किया गया है, फिर लोकतंत्र की जीवंतता के लिए चुनाव सुधार की आवश्यकता पड़ती है। यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। गौरतलब है भारत अपनी आजादी के 62 साल पूरे कर चुका है और यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यही नहीं इसके लोकतंत्र की मजबूती की मिसाल पूरी दुनिया के लिए प्रेरणादायक है। इसका कारण भी है कि लोकतंत्र को ताक पर रखने वाले और तानाशाही से संचालित होने वाले पड़ोसी देशों से घिरे होने के बावजूद भारत के लोकतंत्र की बुनियाद काफी मजबूत है। प्रस्तुत शोध पत्र में इस लोकतंत्र के महापर्व की प्रक्रिया यानि चुनाव प्रक्रिया और उसके सुधारों की वर्तमान स्थिति का जायजा लेने की कोशिश की गई है।
भारतीय लोकतंत्र वर्षों के संघर्षों का परिणाम है, जिसकी बुनियाद में हमारे देश के शहीदों की यादें दबी पड़ी हैं। हालांकि भारत में प्राचीन काल से गणतंत्रों का वर्णन है जिसमें सोलह महाजनपदों का विवरण मिलता है। इसके बाद वर्षों तक हम गुलाम रहे। गुलामी की बेड़ियां तोड़ने और सुंदर भारत का सपना अपनी आंखों में सजाये भारत के वीर सपूतों ने अपने प्राणों की तिलांजलि तक दे दी। इसी क्रम में बापू, नेहरू, भगत सिंह, पटेल और तमाम लोगों ने भारत को आजादी का सवेरा दिखाया।
1947 के बाद भारत ने अपना नया अध्याय शुरू किया और स्वच्छंद माहौल में आजादी के तीन वर्षों बाद भारत ने खुद को गणतंत्र घोषित कर दिया। तब से लेकर अब तक भारत का लोकतंत्र निरंतर समृद्ध और सुदृढ़ ही हुआ है। बीते 62 वर्षों में भारत ने लोकतंत्र की मजबूती एवं सतत विकास की प्रक्रिया के लिए अपना सारा कुछ न्यौछावर किया है। विश्व के उभरते हुए राष्ट्रों में 1950 के दशक में लोकतंत्र एकमात्र पसंद थी। तब से अनेकों बार ऐसे अवसर आये हैं जब प्रश्न किए गए हैं कि क्या भारतीय लोकतंत्र परिस्थितियों की कसौटी पर खरा उतरेगा ? तब प्रत्येक अवसर पर भारत ने सकारात्मक तरीके से हामी भरी है और सभी सवालों के जवाब दिए हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत वयस्क मताधिकार देता है। यह अधिकार प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के दिया गया है, जो मजबूत लोकतंत्र को उंचाईयों पर ले जाने की पहली सीढ़ी है।
इस श्रंखला में हम आपको भारतीय चुनाव प्रक्रिया और चुनाव सुधार पर किए गए शोध कार्य से अवगत कराएँगे । आपके अनुभव और सुझाव सदैव आमंत्रित हैं ।
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बदल कर फ़कीरों का हम भेस .........................
हजारों साल नर्गिस आपनी बेनुरी पे ........
आज का दिन बहुत सारे मायनो में ख़ास हो सकता है । कई लोगों के लिए ये नई- नई यादों के साथ आया होगा . हम -आप ,सभी रोज कई जद्दोजहद से गुजरते हैं इसलिए कई घटनाएँ हमारे लिए नई नही होती है , तो इस हिसाब से मृणाल पाण्डेय की विदाई भी बहुत सामान्य सी घटना हो सकती है , और खासकर आज की इस दौर में जब की मीडिया सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है । कोई यह सोचने वाला नही है की ये घटनाएँ क्या भविष्य बनायेंगी ? वैसे अपन इतने बड़े नही की प्रभाष जोशी की तरह मीडिया पर कोई टिपण्णी कर सकें न ही अफलातूनी सुधीश पचौरी हैं की मीडिया की हद नाप सकें पर अल्प दिमाग से जो लग रहा है , वो यहाँ कहना चाहतें है- मृणाल पाण्डेय का जाना थोड़ा दुःखदाई तो है क्योंकि यह सब एक हादसे की तरह हुआ है और हादसे हमेशा दुखद होते हैं , हर जगह लोग अपने अनुभवों के आधार पर आपनी राय दे रहे है , शशि शेखर जी ठीक आदमी हैं इसमे कोई नही शक है पर मृणाल पाण्डेय जी की विदाई सुखद है यह बात पूरी तरह गलत है के हमने उनके आंचल में पलने वाले हिनुस्तान अखबार को देखा है उसमे किए गए प्रयोग भी देखे हैं हो न हो वे पत्रकारिता के नए मापदंड थे और उन्हें खारिज नही किया जा सकता , लेआउट से लेकर कंटेंट तक में एक रचनात्मकता थी इसे कोई नकार नही सकता , हजारों साल नर्गिस आपनी बेनुरी पर तरसती है बड़ी मुश्किल से पैदा होता चमन में दीदावर , यह लेख म्रणाल पाण्डेय की इस्तुती नही है और न ही शशि शेखर के आने का गम । हम उम्मीद करतें हैं की शेखर जी हमे निराश नही करेंगे और मृणाल पाण्डेय जी जल्दी ही नई कसौटी हमारे सामने प्रस्तुत करेंगी । दिल्ली डायरी
परदे के पीछे से झांकती आंखें
सदियाँ गुज़र गईं के महिलाओं की समानता और सशक्तिकरण की बात शुरू हुए पर आज भी हम पाते हैं के न तो जितना प्रयास होना था हुआ और न ही जितना आगे महिलाओं को बढ़ जाना था बढीं । कारण पुरूष प्रधान समाज तो है ही जो अपनी मानसिकता को बदलने में जरुरत से ज्यादा समय लगा रहा है , पर एक कारण महिलाऐं ख़ुद भी हैं जो अब तक अपने विद्रोही स्वरुप को उभर पाने में असफल रही हैं । ऐसा नही है की 8 मार्च 1957 के बाद कोई बड़ी महिला नेत्री ने इस तरह मोर्चा नही संभाला या वैसे महिला सशक्तिकरण के लिए प्रयास नही हुए पर इस विषय पर जहाँ रसोई से महिला को खींच के लेन की ज़रूरत थी वहां ज्यादातर महिलाएं सिर्फ़ स्वयं ही आन्दोलन में शामिल हो सकीं और एक अदद बड़ा आन्दोलन बनाने से रह गया ।
ऐसा नही के पुरूष प्रधान का एक कोना हमेश से ही महिलाओं को आगे आते देखना चाहता था , और उस ने अपना पूरा काम भी किया, पर समस्या हमेशा ज्यादा लोगों को जोड़ने की रही । स्वामी दयानंद और राजा राम मोहन राय ने 19 वी सदी में जो अलख जगाई थी उसको उनके अनुगामियों या कहें के आने वाली पीडियों ने सिर्फ़ किताबों में दर्ज करने और उपन्यास लिखने के आलावा बहुत कुछ नही किया ।
बीती आधी सदी में जहाँ महिलाओं के उत्थान में कथित रूप से सबसे ज्यादा कार्य हुआ है वहीं उनकी व्यावहारिक स्थिति सबसे कमजोर जो गई है ।
नतीजतन आम महिलाओं को ऐसा लगने लगा है के उनसे सम्बंधित फैसलों में पुरूष प्रधान समाज हमेशा दुराभाव से पीड़ित ही रहा है और रहेगा । साथ ही हमारे धार्मिक ठेकेदारों ने भी महिलाओं के अस्तित्व को ईमानदारी से देखने के लिए कभी प्रेरित नही किया ।
फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबन्ध लगाने की बात उठी है , सरकोजी ने 32 सांसदों का एक आयोग गठित कर इस पर अपना पक्ष देने की बात कही है , सरकोजी ने कहा है की बुर्का गुलामी की निशानी है और इसे हम अपने देश में बर्दाश्त नही करेंगे , उनका इतना कहना हुआ के विश्व भर के मुस्लिम अमाज ने अपना विरोध जाताना शुरू कर दिया है । कुरान और हदीसों के जानकारों के अनुसार किसी भी इस्लामिक धर्म ग्रन्थ में बुर्का शब्द का भी प्रयोग नही है , अलबत्ता हिजाब शब्द ज़रूर उपयोग में लाया गया है । हिजाब , शब्द हेड स्कार्फ के लिए है जिसपर मार्च 2009 में जर्मनी में प्रतिबन्ध लगाया गया , उसका भी इस्लामिक धर्म्ग्रंथियों ने विरोधकिया था ।
इसमे एक दुःख की बात ये भी है की कुछ महिला संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं , विरोध का कारण महिला कपड़े पहनने की आज़ादी से छेड़ छड़ करने का बताया जा रहा है ।
मेरा मानना है की यहाँ कमी महिलाओं के प्रति वैज्ञानिक सोच की कमी है , इस समाज में कहीं भी कोई भी नियम कानून बने सबसे पहले और सबसे आखिरी में उससे पीड़ित होने वाली महिलाएं ही होती हैं , कोई भी ( महिलाएं भी ) ये जानने का प्रयास नही करती के ये प्रथा , ये नियम, ये कानून आखिर बने क्यों और कब तक इनको ढोया जाए । बुर्का प्रथा या हिंदू परिवारों में घूंघट प्रथा क्यों शुरू हुई ये कोई जानने की कोशिश नही करेगा, न ही समझायेगा पर सिर्फ़ उनके फायदे और नुकसानों पर बात होगी ।
भारत और विश्व की महिलाओं को चाहिए के एक हों और एक होकर अपने अधिकारों की बात करें ।
हम यहाँ आने वाली कड़ियों में कुछ बातों को वैज्ञानिक रूप से समझने की कोशिश करेंगे , और विमर्श करेंगे की कैसे समाज के बदलावों में वैज्ञानिक नज़रिया ज़रूरी है और कैसे विज्ञान को बदलावों के साथ जोड़ा जा सकता है.
शेष अगली कड़ी में .....
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ऐसा नही के पुरूष प्रधान का एक कोना हमेश से ही महिलाओं को आगे आते देखना चाहता था , और उस ने अपना पूरा काम भी किया, पर समस्या हमेशा ज्यादा लोगों को जोड़ने की रही । स्वामी दयानंद और राजा राम मोहन राय ने 19 वी सदी में जो अलख जगाई थी उसको उनके अनुगामियों या कहें के आने वाली पीडियों ने सिर्फ़ किताबों में दर्ज करने और उपन्यास लिखने के आलावा बहुत कुछ नही किया ।
बीती आधी सदी में जहाँ महिलाओं के उत्थान में कथित रूप से सबसे ज्यादा कार्य हुआ है वहीं उनकी व्यावहारिक स्थिति सबसे कमजोर जो गई है ।
नतीजतन आम महिलाओं को ऐसा लगने लगा है के उनसे सम्बंधित फैसलों में पुरूष प्रधान समाज हमेशा दुराभाव से पीड़ित ही रहा है और रहेगा । साथ ही हमारे धार्मिक ठेकेदारों ने भी महिलाओं के अस्तित्व को ईमानदारी से देखने के लिए कभी प्रेरित नही किया ।
फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबन्ध लगाने की बात उठी है , सरकोजी ने 32 सांसदों का एक आयोग गठित कर इस पर अपना पक्ष देने की बात कही है , सरकोजी ने कहा है की बुर्का गुलामी की निशानी है और इसे हम अपने देश में बर्दाश्त नही करेंगे , उनका इतना कहना हुआ के विश्व भर के मुस्लिम अमाज ने अपना विरोध जाताना शुरू कर दिया है । कुरान और हदीसों के जानकारों के अनुसार किसी भी इस्लामिक धर्म ग्रन्थ में बुर्का शब्द का भी प्रयोग नही है , अलबत्ता हिजाब शब्द ज़रूर उपयोग में लाया गया है । हिजाब , शब्द हेड स्कार्फ के लिए है जिसपर मार्च 2009 में जर्मनी में प्रतिबन्ध लगाया गया , उसका भी इस्लामिक धर्म्ग्रंथियों ने विरोधकिया था ।
इसमे एक दुःख की बात ये भी है की कुछ महिला संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं , विरोध का कारण महिला कपड़े पहनने की आज़ादी से छेड़ छड़ करने का बताया जा रहा है ।
मेरा मानना है की यहाँ कमी महिलाओं के प्रति वैज्ञानिक सोच की कमी है , इस समाज में कहीं भी कोई भी नियम कानून बने सबसे पहले और सबसे आखिरी में उससे पीड़ित होने वाली महिलाएं ही होती हैं , कोई भी ( महिलाएं भी ) ये जानने का प्रयास नही करती के ये प्रथा , ये नियम, ये कानून आखिर बने क्यों और कब तक इनको ढोया जाए । बुर्का प्रथा या हिंदू परिवारों में घूंघट प्रथा क्यों शुरू हुई ये कोई जानने की कोशिश नही करेगा, न ही समझायेगा पर सिर्फ़ उनके फायदे और नुकसानों पर बात होगी ।
भारत और विश्व की महिलाओं को चाहिए के एक हों और एक होकर अपने अधिकारों की बात करें ।
हम यहाँ आने वाली कड़ियों में कुछ बातों को वैज्ञानिक रूप से समझने की कोशिश करेंगे , और विमर्श करेंगे की कैसे समाज के बदलावों में वैज्ञानिक नज़रिया ज़रूरी है और कैसे विज्ञान को बदलावों के साथ जोड़ा जा सकता है.
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18 डब्बे लग्गे श्री अमरनाथ की रेल में ..
बाबा भोले का बुलावा आया है , मुझे सपरिवार बुलाया है, कहा है पहलगाम के रास्ते आना ,वहां का मौसम मैंने सुहाना बनाया है , मैं जब तुम्हारी माता पार्वती को लेकर गुफा में जा रहा था तब मैंने वहां नंदी महाराज को छोड़ दिया था , फ़िर क्या था वहां से हम भी पैदल हो लिए , भाई क्या नज़ारा होता है वहां का तुम जब आओ तो वहां पूरी शाम रुक कर घूमना, जहाँ तुम्हारा आधार शिविर है वहां पास से एक नदी जाती है उसे देखना, चाँदी जैसी चमकती है नदी । अरे हाँ तुम्हे पता है वहां एक घाटी है बेताब घाटी । वहां वो तुम लोग क्या कहते हो फिलिम विलिम , हाँ बेताब , उसको वहीं बनाया था । पर तुम वहां मत जन तुम तो मेरे पास आ जाना । रात में बढिया आधार शिविर में जाना , धूम मचाना , भजन गाना , ढोल बजाना , भोजन करना , मैं वहीं रहूँगा मुझे ढूंढ़ना । सुबह तुम फ़िर चंदनवाडी जाओगे , हम तो पैदल गए थे 16 किलो मीटर पर तुम्हारे लिए तो बस का इन्तेजाम है , जाओ बढिया वहां सुबह सुबह नदी मैं नहाओ और यात्रा चालू कर दो । हाँ पर याद रखना साथ में स्वेटर, जैकेट, गरम मोजे, दस्ताने, टोपा , छाता, बरसाती, टॉर्च, पानी की बोतल, सुई धागा जरुर रखना, और जूते जरा ढंग के पहनना , ये नही के रस्ते में बैठ गए के पाँव में दर्द हो रहा है बाबा, में नही आ पाउँगा फ़िर , अभी बता रहा हूँ ।अच्छा सुओ मैंने यहाँ तुम्हारे चंदा मामा को छोडा था , तभी तो इसका नाम चंदनवाडी पड़ा है , उसका उजाला अभी भी है वहां , तुम जब यात्रा शुरू करोगे तो पाओगे की पहाड़ ही पहाड़ हैं , धूल ही धूल है , ये मत समझना के चाँद पर आ गए, इतना समझना के पिस्सू टॉप की चढाई शुरू हो गई है । ये चढो , बड़ा मज़ा आएगा इस रस्ते पर , अच्छा सुनो कोई बुजुर्ग को समस्या आ रही हो तो हाथ पकड़ के ले जाना , थोडी देर हो जायेगी चलेगा, पर आ जाना फ़िर तुम जोजिबाल और नागा कोटि से होते हुए शेष नाग आ जाना , हां ! जब तुम यहाँ पहुँच रहे होगे तो तुम्हे एक खूबसूरत तालाब मिलेगा । इस तालाब का पानी घोर नीला और अपने में रहस्य लिए हुए है ! तो जब मैं जा रहा था तब मैंने कंधे पर बठे भुजंग महाराज याने शेष नाग जी को यहाँ छोड़ दिया था तभी से इस जगह का नाम शेष नाग पड़ा है ।यहाँ पूरी रात विश्राम की व्यवस्था है । चारों और सुरम्य वादियों से घिरी वादी कहीं हरी चादर ओढी दिखाई देगी कहीं सफ़ेद , दूर दिख रहे पर्वत तक जाना लगेगा तो आसान पर जब पग बढाओगे तो बहुत दूर पाओगे , स्वर्ग है वहां सचमुच स्वर्ग । तुमसे पहले जो लोग आए हैं वोह कहते हैं की यहाँ रात मैं एक नीला उजाला होता है और शेष नाग के दर्शन होते हैं , शेष नाग के दर्शन तो नही पर चाँद रात में वहां उस नीले रौशनी को देखना बहुत ही मोहक होता है । ज्यादा थकना मत सो जाना सुबह जल्दी उठाना है फ़िर पञ्चतरनी से होते हुए गुफा तक भी तो आना है, इस यात्रा का सबसे खूब सूरत पड़ाव है ये और आगे मिलने वाले सौन्दर्य की झलक भी । सुबह उठ के जब यात्रा शुरू होगी तब एह्साह होगा सर्दी का और ये सर्दी अब कम नही होने वाली , आगे है महागुनस टॉप , शब्द से शायद समझे हो की हम महा गणेश की बात कर रहे हैं । महा गणेश के उदर की तरह ही विशाल और उनके दांतों की तरह सफ़ेद बरफ , ऊंचाई भी अब तक की सबसे ज्यादा होगी पूरे चौदाह हज़ार पॉँच सौ फीट ऊपर, यहाँ श्वास वायु का भी स्तर कम हो जाता है इसलिए किसी भी साथ चलने वाले से कहना के आराम से चलो ज्यादा उर्जा खत्म मत करो आगे बहुत यात्रा बाकि है । इस पर्वत का पार करते यात्रा का सुखद अनुभव अपने चरम पर होगा , यहाँ बरफ में अटखेलियाँ करने का भी अपना की आनंद है । अगला पड़ाव होगा पंचतरनी ।पंच तरनी अगर दोपहर १२ बजे तक पहुँच जाओ तो ठीक है आगे बढ जाना नही तो यात्रा यही विराम दे देना , इस यात्रा का एक महत्त्व सुदूर वादियों में निकल रही इन पॉँच जल धाराओं में स्नान करना भी है । पॉँच पर्वत और पॉँच धाराएं ही बनती है इस पंचतरनी नदी को । निर्मल स्वच्छ जल में स्नान का अपना ही आनंद है, फ़िर यात्रा भी हमारी याने बाबा बर्फानी की है ।अब ये अन्तिम पड़ाव होगा तुम्हारी यात्रा का जहाँ कुछ ३ किलोमीटर पैदल चल कर संगम पहुंचोगे जहाँ से बालताल से आने वाले भक्तों का जत्था भी तुम्हारे साथ हो लेगा । एक लम्बी कतार में बम बम भोले के नाम के जयकारे लगते हुए आ जाना मेरे पास , मेरी गुफा में , बस बाकि तो निरंतर चलता ही रहेगा । तुम्हे ये मेरा बुलावा है "की आना प्यारों संग भक्तार "
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