भारतीय लोकतंत्र की चुनाव प्रक्रिया

भारतीय लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया के अलग-अलग स्तर हैं लेकिन मुख्य तौर पर संविधान में पूरे देश के लिए एक लोकसभा तथा पृथक-पृथक राज्यों के लिए अलग विधानसभा का प्रावधान है।
भारतीय संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से अनुच्छेद 329 तक निर्वाचन की व्याख्या की गई है। अनुच्छेद 324 निर्वाचनों का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण का निर्वाचन आयोग में निहित होना बताता है। संविधान ने अनुच्छेद 324 में ही निर्वाचन आयोग को चुनाव संपन्न कराने की जिम्मेदारी दी है। 1989 तक निर्वाचन आयोग केवल एक सदस्यीय संगठन था लेकिन 16 अक्टूबर 1989 को एक राष्ट्रपतीय अधिसूचना के द्वारा दो और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की गई।
लोकसभा की कुल 543 सीटों में से विभिन्न राज्यों से अलग-अलग संख्या में प्रतिनिधि चुने जाते हैं। इसी प्रकार अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं के लिए अलग-अलग संख्या में विधायक चुने जाते हैं। नगरीय निकाय चुनावों का प्रबंध राज्य निर्वाचन आयोग करता है, जबकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव भारत निर्वाचन आयोग के नियंत्रण में होते हैं, जिनमें वयस्क मताधिकार प्राप्त मतदाता प्रत्यक्ष मतदान के माध्यम से सांसद एवं विधायक चुनते हैं। लोकसभा तथा विधानसभा दोनों का ही कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। इनके चुनाव के लिए सबसे पहले निर्वाचन आयोग अधिसूचना जारी करता है। अधिसूचना जारी होने के बाद संपूर्ण निर्वाचन प्रक्रिया के तीन भाग होते हैं- नामांकन, निर्वाचन तथा मतगणना। निर्वाचन की अधिसूचना जारी होने के बाद नामांकन पत्रों को दाखिल करने के लिए सात दिनों का समय मिलता है। उसके बाद एक दिन उनकी जांच पड़ताल के लिए रखा जाता है। इसमें अन्यान्य कारणों से नामांकन पत्र रद्द भी हो सकते हैं। तत्पश्चात दो दिन नाम वापसी के लिए दिए जाते है ताकि जिन्हे चुनाव नहीं लड़ना है वे आवश्यक विचार विनिमय के बाद अपने नामांकन पत्र वापस ले सकें। 1993 के विधानसभा चुनावों तथा 1996 के लोकसभा चुनावों के लिए विशिष्ट कारणों से चार-चार दिनों का समय दिया गया था। परंतु सामान्यत: यह कार्य दो दिनों में संपन्न करने का प्रयास किया जाता है। कभी कभार किसी क्षेत्र में पुन: मतदान की स्थिति पैदा होने पर उसके लिए अलग से दिन तय किया जाता है। मतदान के लिए तय किये गए मतदान केंद्रों में मतदान का समय सामान्यत: सुबह 7 बजे से सायं 5 बजे तक रखा जाता है।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन आने के बाद मतगणना के लिए सामान्यत: एक दिन का समय रखा जाता है। मतगणना लगातार चलती है तथा इसके लिए विशिष्ट मतगणना केंद्र तय किए जाते हैं जिसमें मतदान केंद्रों के समान ही अनाधिकृत व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित रहता है। सभी प्रत्याशियों, उनके प्रतिनिधियों तथा पत्रकारों आदि के लिए निर्वाचन अधिकारियों द्वारा प्रवेश पत्र जारी किए जाते हैं। वर्तमान में निर्वाचन क्षेत्रानुसार मतगणना की जाती है तथा उसके लिए उसके सभी मतदान केंद्रो के मत की गणना कर परिणाम घोषित किया जाता है। परिणाम के अनुसार जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, वह केंद्र या राज्य में अपनी सरकार का गठन करता है। भारत में वोट डालने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है और यह नागरिकों का अधिकार है, कर्तव्य नहीं।
राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा सदस्यों के चुनाव प्रत्यक्ष होकर अप्रत्यक्ष रूप से होते हैं। इन्हें जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि चुनते हैं।
चुनाव के वक्त पूरी प्रशासनिक मशीनरी चुनाव आयोग के नियंत्रण में कार्य करती है। चुनाव की घोषणा होने के पश्चात आचार संहिता लागू हो जाती है और हर राजनैतिक दल, उसके कार्यकर्ता और उम्मीदवार को इसका पालन करना होता है।
ये कल जारी पहली कड़ी का अंश है , इस कड़ी को आप लगातार पढ़ सकते हैं , यहीं,
अपने विचारों से हमें अवगत कराएं। धन्यवाद


नए लेख ईमेल से पाएं
चिटठाजगत पर पसंद करें
टेक्नोराती पर पसंद करें
इस के मित्र निर्वाचन बनें

चुनाव प्रक्रिया एवं चुनाव सुधार - शोध कार्य

क्रिकेट और चुनाव होते तो भारत को एक बेरौनक देश कहा जाता। थोड़े-थोड़े अंतराल में यहां चुनाव होते रहते हैं, इतने बड़े देश में चुनाव संपन्न करवाना कोई मामूली बात नहीं है।गत 57 वर्षों में लोकसभा के लिए 15 आम चुनाव तथा विभिन्न राज्यों के लिए अनेक विधानसभा चुनाव हुए लेकिन कुछ कठिनाइयों के बावजूद यह चुनाव निष्पक्ष, स्वतंत्र और सफल रहे हैं।
शोर शराबा, उम्मीदें, भावुकता, गुस्सा, चिंता, खुशी सब कुछ चुनाव में एक साथ नजर आते हैं। इन सब मानव भावनाओं को एक साथ संभालना चुनाव प्रबंधकों के लिए एक टेढ़ी खीर बन जाता है। प्रस्तुत शोध पत्र में भारतीय चुनाव प्रणाली की व्याख्या की गई है। एक चुनाव किस तरह संपन्न होता है, इसे समझाया गया है।
मानव की तरह चुनाव में भी सुधार की हमेशा गुंजाइश रहती है और भारत में भी इसकी जरूरत 1967 से समझी जाने लगी थी, तब से लेकर आज तक किए गए सुधारों को समझकर आगे की जरूरतों का पता लगाने की कोशिश की गई है।


क्रिकेट और चुनाव होते तो भारत को एक बेरौनक देश कहा जाता। थोड़े-थोड़े अंतराल में यहां चुनाव होते रहते हैं, इतने बड़े देश में चुनाव संपन्न करवाना कोई मामूली बात नहीं है।गत 57 वर्षों में लोकसभा के लिए 15 आम चुनाव तथा विभिन्न राज्यों के लिए अनेक विधानसभा चुनाव हुए लेकिन कुछ कठिनाइयों के बावजूद यह चुनाव निष्पक्ष, स्वतंत्र और सफल रहे हैं।
शोर शराबा, उम्मीदें, भावुकता, गुस्सा, चिंता, खुशी सब कुछ चुनाव में एक साथ नजर आते हैं। इन सब मानव भावनाओं को एक साथ संभालना चुनाव प्रबंधकों के लिए एक टेढ़ी खीर बन जाता है। प्रस्तुत शोध पत्र में भारतीय चुनाव प्रणाली की व्याख्या की गई है। एक चुनाव किस तरह संपन्न होता है, इसे समझाया गया है।
मानव की तरह चुनाव में भी सुधार की हमेशा गुंजाइश रहती है और भारत में भी इसकी जरूरत 1967 से समझी जाने लगी थी, तब से लेकर आज तक किए गए सुधारों को समझकर आगे की जरूरतों का पता लगाने की कोशिश की गई है।
शोध के द्वारा पता लगाने का प्रयत्न किया गया है कि भारतीय चुनाव प्रणाली में कहां खामी है और इसमें किन सुधारों की आवश्यकता है। साथ ही भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रमुख चुनौतियों को भी ढूंढा गया है। कुल मिलाकर प्रस्तुत शोध पत्र में इस लोकतंत्र के महापर्व की प्रक्रिया यानि चुनाव प्रक्रिया और उसके सुधारों की वर्तमान स्थिति का जायजा लेने की कोशिश की गई है।

भारतीय लोकतंत्र में `चुनाव प्रक्रिया एवं चुनाव सुधार` यह एक ऐसा विषय है जो हमारी संपूर्ण गतिविधियों एवं क्रियाकलापों से किसी किसी रूप में जुड़ा हुआ है। भारत में आजादी के तीन वर्ष बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई और इसके लगभग दो साल बाद चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ हुई।
भारतीय लोकतंत्र की कल्पना करते ही हमारे मस्तिष्क में संविधान का ध्यान आता है, जिसमें भारत की समस्त लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के साथ चुनाव प्रक्रिया का भी वर्णन है। लोकतंत्र राज्य व्यवस्था को बुनियादी ढंग से चलाने की व्यवस्था है, जिसमें जनता `स्व` से शासित होना चाहती है।
लोकतंत्र की व्यवस्था को अनवरत बनाए रखने के लिए ही चुनाव का प्रावधान हमारे संविधान में किया गया है, फिर लोकतंत्र की जीवंतता के लिए चुनाव सुधार की आवश्यकता पड़ती है। यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। गौरतलब है भारत अपनी आजादी के 62 साल पूरे कर चुका है और यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यही नहीं इसके लोकतंत्र की मजबूती की मिसाल पूरी दुनिया के लिए प्रेरणादायक है। इसका कारण भी है कि लोकतंत्र को ताक पर रखने वाले और तानाशाही से संचालित होने वाले पड़ोसी देशों से घिरे होने के बावजूद भारत के लोकतंत्र की बुनियाद काफी मजबूत है। प्रस्तुत शोध पत्र में इस लोकतंत्र के महापर्व की प्रक्रिया यानि चुनाव प्रक्रिया और उसके सुधारों की वर्तमान स्थिति का जायजा लेने की कोशिश की गई है।
भारतीय लोकतंत्र वर्षों के संघर्षों का परिणाम है, जिसकी बुनियाद में हमारे देश के शहीदों की यादें दबी पड़ी हैं। हालांकि भारत में प्राचीन काल से गणतंत्रों का वर्णन है जिसमें सोलह महाजनपदों का विवरण मिलता है। इसके बाद वर्षों तक हम गुलाम रहे। गुलामी की बेड़ियां तोड़ने और सुंदर भारत का सपना अपनी आंखों में सजाये भारत के वीर सपूतों ने अपने प्राणों की तिलांजलि तक दे दी। इसी क्रम में बापू, नेहरू, भगत सिंह, पटेल और तमाम लोगों ने भारत को आजादी का सवेरा दिखाया।
1947 के बाद भारत ने अपना नया अध्याय शुरू किया और स्वच्छंद माहौल में आजादी के तीन वर्षों बाद भारत ने खुद को गणतंत्र घोषित कर दिया। तब से लेकर अब तक भारत का लोकतंत्र निरंतर समृद्ध और सुदृढ़ ही हुआ है। बीते 62 वर्षों में भारत ने लोकतंत्र की मजबूती एवं सतत विकास की प्रक्रिया के लिए अपना सारा कुछ न्यौछावर किया है। विश्व के उभरते हुए राष्ट्रों में 1950 के दशक में लोकतंत्र एकमात्र पसंद थी। तब से अनेकों बार ऐसे अवसर आये हैं जब प्रश्न किए गए हैं कि क्या भारतीय लोकतंत्र परिस्थितियों की कसौटी पर खरा उतरेगा ? तब प्रत्येक अवसर पर भारत ने सकारात्मक तरीके से हामी भरी है और सभी सवालों के जवाब दिए हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत वयस्क मताधिकार देता है। यह अधिकार प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के दिया गया है, जो मजबूत लोकतंत्र को उंचाईयों पर ले जाने की पहली सीढ़ी है।

इस श्रंखला में हम आपको भारतीय चुनाव प्रक्रिया और चुनाव सुधार पर किए गए शोध कार्य से अवगत कराएँगे आपके अनुभव और सुझाव सदैव आमंत्रित हैं


नए लेख ईमेल से पाएं
चिटठाजगत पर पसंद करें
टेक्नोराती पर पसंद करें
इस के मित्र ब्लॉग बनें

बदल कर फ़कीरों का हम भेस .........................

ग़ालिब ने खूब कहा है ...........................

बदल कर फकीरों का हम भेस ग़ालिब,
तमाशा-ऐ-एहले करम देखते हैं .
ये दुनिया बड़ी अजीब है बाबू , यहाँ कोई आपकी सुनने वाला नही है , अगर खामोश रह गए तो समझो के सुब कुछ ख़तम।और अगर लोकतंत्र में रहना है तो राजनीति तो करनी ही होगी , और फ़िर योगेन्द्र यादव ने कहा भी है की राजनीति तो आज का युग धर्म है । ये बात सच है की जब-जब अच्छे काम की शुरुआत होती है परेशानियाँ हमेशा हमारा रास्ता रोकती है । मगर ये आदमी ही है जो बिना रुके आपना सफर तय करता है । हम हमेशा डर क्यों जातें हैं, जब ये बात तय है की एक दिन मौत आनी है। जब एक वक्त तय है मौत के लिए तो यूँ रोज - रोज मरना क्या । और माफ़ कीजिये , न हमे मौत का खोफ है न ही घुट-घुट के जीने की ख्वाहिश । ये बात तय है की पत्थर पिघल नही सकता पर हम बेकरार हैं आवाज के असर के लिए । कोई हमे हलके में न ले । हम अगर खामोश हैं तो इस वजह की हम लोगों की बात सुनना चाहते हैं पर इसका ये मतलब बिल्कुल नही की हम कुछ नही जानते । क्या हम सिर्फ़ कुछ मतलबी कारणों की वजह से पुरी जिंदगी के जशन को गम की दावत में बदल देते हैं ? उठो और उठके निजामे जहाँ बदल डालो । ये लेख किसी हादसे की भड़ास नही और न ही किसी नीद से जागे हुई डबडबाईआँखों का बयान । और आप लोगों को लगता है की यही जीना है तो इससे तो बेहतर के हम मर जायें यारों ।

हजारों साल नर्गिस आपनी बेनुरी पे ........

आज का दिन बहुत सारे मायनो में ख़ास हो सकता है । कई लोगों के लिए ये नई- नई यादों के साथ आया होगा . हम -आप ,सभी रोज कई जद्दोजहद से गुजरते हैं इसलिए कई घटनाएँ हमारे लिए नई नही होती है , तो इस हिसाब से मृणाल पाण्डेय की विदाई भी बहुत सामान्य सी घटना हो सकती है , और खासकर आज की इस दौर में जब की मीडिया सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है । कोई यह सोचने वाला नही है की ये घटनाएँ क्या भविष्य बनायेंगी ? वैसे अपन इतने बड़े नही की प्रभाष जोशी की तरह मीडिया पर कोई टिपण्णी कर सकें न ही अफलातूनी सुधीश पचौरी हैं की मीडिया की हद नाप सकें पर अल्प दिमाग से जो लग रहा है , वो यहाँ कहना चाहतें है- मृणाल पाण्डेय का जाना थोड़ा दुःखदाई तो है क्योंकि यह सब एक हादसे की तरह हुआ है और हादसे हमेशा दुखद होते हैं , हर जगह लोग अपने अनुभवों के आधार पर आपनी राय दे रहे है , शशि शेखर जी ठीक आदमी हैं इसमे कोई नही शक है पर मृणाल पाण्डेय जी की विदाई सुखद है यह बात पूरी तरह गलत है के हमने उनके आंचल में पलने वाले हिनुस्तान अखबार को देखा है उसमे किए गए प्रयोग भी देखे हैं हो न हो वे पत्रकारिता के नए मापदंड थे और उन्हें खारिज नही किया जा सकता , लेआउट से लेकर कंटेंट तक में एक रचनात्मकता थी इसे कोई नकार नही सकता , हजारों साल नर्गिस आपनी बेनुरी पर तरसती है बड़ी मुश्किल से पैदा होता चमन में दीदावर , यह लेख म्रणाल पाण्डेय की इस्तुती नही है और न ही शशि शेखर के आने का गम । हम उम्मीद करतें हैं की शेखर जी हमे निराश नही करेंगे और मृणाल पाण्डेय जी जल्दी ही नई कसौटी हमारे सामने प्रस्तुत करेंगी । दिल्ली डायरी

परदे के पीछे से झांकती आंखें

सदियाँ गुज़र गईं के महिलाओं की समानता और सशक्तिकरण की बात शुरू हुए पर आज भी हम पाते हैं के न तो जितना प्रयास होना था हुआ और न ही जितना आगे महिलाओं को बढ़ जाना था बढीं । कारण पुरूष प्रधान समाज तो है ही जो अपनी मानसिकता को बदलने में जरुरत से ज्यादा समय लगा रहा है , पर एक कारण महिलाऐं ख़ुद भी हैं जो अब तक अपने विद्रोही स्वरुप को उभर पाने में असफल रही हैं । ऐसा नही है की 8 मार्च 1957 के बाद कोई बड़ी महिला नेत्री ने इस तरह मोर्चा नही संभाला या वैसे महिला सशक्तिकरण के लिए प्रयास नही हुए पर इस विषय पर जहाँ रसोई से महिला को खींच के लेन की ज़रूरत थी वहां ज्यादातर महिलाएं सिर्फ़ स्वयं ही आन्दोलन में शामिल हो सकीं और एक अदद बड़ा आन्दोलन बनाने से रह गया ।

ऐसा नही के पुरूष प्रधान का एक कोना हमेश से ही महिलाओं को आगे आते देखना चाहता था , और उस ने अपना पूरा काम भी किया, पर समस्या हमेशा ज्यादा लोगों को जोड़ने की रही । स्वामी दयानंद और राजा राम मोहन राय ने 19 वी सदी में जो अलख जगाई थी उसको उनके अनुगामियों या कहें के आने वाली पीडियों ने सिर्फ़ किताबों में दर्ज करने और उपन्यास लिखने के आलावा बहुत कुछ नही किया ।

बीती आधी सदी में जहाँ महिलाओं के उत्थान में कथित रूप से सबसे ज्यादा कार्य हुआ है वहीं उनकी व्यावहारिक स्थिति सबसे कमजोर जो गई है ।

नतीजतन आम महिलाओं को ऐसा लगने लगा है के उनसे सम्बंधित फैसलों में पुरूष प्रधान समाज हमेशा दुराभाव से पीड़ित ही रहा है और रहेगा । साथ ही हमारे धार्मिक ठेकेदारों ने भी महिलाओं के अस्तित्व को ईमानदारी से देखने के लिए कभी प्रेरित नही किया ।

फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबन्ध लगाने की बात उठी है , सरकोजी ने 32 सांसदों का एक आयोग गठित कर इस पर अपना पक्ष देने की बात कही है , सरकोजी ने कहा है की बुर्का गुलामी की निशानी है और इसे हम अपने देश में बर्दाश्त नही करेंगे , उनका इतना कहना हुआ के विश्व भर के मुस्लिम अमाज ने अपना विरोध जाताना शुरू कर दिया है । कुरान और हदीसों के जानकारों के अनुसार किसी भी इस्लामिक धर्म ग्रन्थ में बुर्का शब्द का भी प्रयोग नही है , अलबत्ता हिजाब शब्द ज़रूर उपयोग में लाया गया है । हिजाब , शब्द हेड स्कार्फ के लिए है जिसपर मार्च 2009 में जर्मनी में प्रतिबन्ध लगाया गया , उसका भी इस्लामिक धर्म्ग्रंथियों ने विरोधकिया था ।
इसमे एक दुःख की बात ये भी है की कुछ महिला संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं , विरोध का कारण महिला कपड़े पहनने की आज़ादी से छेड़ छड़ करने का बताया जा रहा है ।

मेरा मानना है की यहाँ कमी महिलाओं के प्रति वैज्ञानिक सोच की कमी है , इस समाज में कहीं भी कोई भी नियम कानून बने सबसे पहले और सबसे आखिरी में उससे पीड़ित होने वाली महिलाएं ही होती हैं , कोई भी ( महिलाएं भी ) ये जानने का प्रयास नही करती के ये प्रथा , ये नियम, ये कानून आखिर बने क्यों और कब तक इनको ढोया जाए । बुर्का प्रथा या हिंदू परिवारों में घूंघट प्रथा क्यों शुरू हुई ये कोई जानने की कोशिश नही करेगा, न ही समझायेगा पर सिर्फ़ उनके फायदे और नुकसानों पर बात होगी ।

भारत और विश्व की महिलाओं को चाहिए के एक हों और एक होकर अपने अधिकारों की बात करें ।

हम यहाँ आने वाली कड़ियों में कुछ बातों को वैज्ञानिक रूप से समझने की कोशिश करेंगे , और विमर्श करेंगे की कैसे समाज के बदलावों में वैज्ञानिक नज़रिया ज़रूरी है और कैसे विज्ञान को बदलावों के साथ जोड़ा जा सकता है.

शेष अगली कड़ी में .....



नए लेख ईमेल से पाएं
चिटठाजगत पर पसंद करें

इस के मित्र ब्लॉग बनें
चिटठाजगत पर पसंद करें