स्वप्न का जीवन

तुम मेरे सपनों में साथ चलो,
मैं तुम्हारे स्वप्न संवारूँगा।
कुछ कदम जो मेरे साथ चलो,
मैं हर पल तुम्हे पुकारूँगा।

तुम बिन मैं या मुझ बिन तुम,
ये मेरे बस की बात नहीं।
इस आधे आधे जीवन को,
मैं पूरे मन से बिता दूंगा

साथ चलो

उठो और चलो
और तब तक चलते रहना
जब तक पैर दर्द न करने लगें।
फिर तब तक, जब तक पैर जकड न जाएं।
और फिर तब तक जब तक पैर टूट ही न जाएं।
तुम कितने भी रहमदिल हो
खुद के लिए बेरहम ही बने रहना।

और पीछे मुड़कर मदद मांगने का ख्याल भी मत लाना
आगे मतलबी सन्नाटा है तो पीछे चापलूस शून्य
जो पीछे तो है पर सिर्फ तब तक तुम चल पा रहे हो।

दर्द के अहसास के आगे
खूब आगे
इन सन्नाटों से दूर, बहुत दूर ,
पर तुम्हारे एकदम नज़दीक
कहीं बसती है वो मंज़िल जहाँ का सपना तुमने मेरे साथ देखा था।

आज मैं कहाँ हूँ मत पूछो
शायद कहीं पीछे छूट गया हूँ
पर अपने साथ अगर ले चलोगे तो शायद मेरी ज़िद्द और तुम्हारा जूनून, मेरी तरफदारी और तुम्हारा तराज़ू, मेरी तसल्ली और तुम्हारा तसव्वुफ़ हमारी ताकत बने और हम पहुचें उस मंज़िल तक जो हमारे ख्वाबों में बसती है ।

आया प्यारा मौसम छप छ्प छप छप कीचड का



के देखो कैसे भूरी मिटटी काली काली बन जाती है .
कैसे मेंडक ऊपर आकर, टर टर का राग सुनाते हैं .
फिर रातों को आ आ के जुगनू गीत सुनाते हैं .
मनो कहते हों प्रेम गीत, कोई मधुर युगल, कोई मधुर प्रीत,
थकते हैं कहाँ बस गाते हैं , हम सुनते हैं, वो गाते हैं .

सरकार की सारी सड़कों की, सब नालों की, सब पुलों की,
सब नई पुरानी रेलों की, हवाईजहाज और खेलों की

सारी पोलें खुल जाती हैं.
अख़बारों में फिर पांडे जी वही खबरें लिख जाते हैं.

ऐसा लगता इसबार मुझे भजिये न कहीं मिल पायेंगे.
अब दिल्ली में तो बस हम मोमोस से काम चलाएंगे

चलो सावन कोई बात नहीं , तुम तो पुराने साथी हो
हम फिर मिलेंगे भोपाल में, फिर तुम संग मौज मनाएंगे .






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नहीं मैडम २४ को नहीं आ पाएंगे

भोपाल में दंगो का डर किस तरह व्याप्त है, इस बात का अंदाज़ा करने के लिए ये वाकया काफी होगा, की अपने नौवे महीने में चल रही एक गर्भवती माँ, को जब डाक्टरनी ने कहा हे २४ तारीख को उसके घर संतान आपने वाली है, तो माँ बोल उठी के नहीं मैडम, या तो एक दिन बाद आयेंगे या एक दिन पहले, उस दिन तो अयोध्या कांड के नतीजे आने वाले हैं, और तब हम नहीं आ सकेंगे, तो आप कोई और डेट सुझा दीजिए, डॉक्टर ने दोबारा समझाने की कोशिश की के ये तो तुम्हारे दर्द के ऊपर है, अगर २४ को ही होता है तो तुम्हे आना ही पड़ेगा, और तुम्हे किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं होगी, मैं खुद तुमसे बात करुँगी, और ज़रूरत हुई , तो सामान लेकर तुम्हारे घर ही आ जायेंगे. पर वो बेचारी कैसे न डरती, १९९२ में हुए दंगों में उसने अपने दो भाई, और अनगिनत पडौसी जो खो दिए थे, तब वो सिर्फ १० साल की थी और ६ दिनों तक एक ही कमरे में बैठी रही थी, अपनी माँ से बारबार पूछती थी, के माँ, भाई कब आयेंगे. अपने पिता की भारतीय फ़ौज की नौकरी का उसे बड़ा गुमान तो था, पर जब घर में ही हादसा हुआ तो, उसके मन को लगने लगा के कैसे न कैसे मेरे पापा मेरे पास ही आ जायें.

अब वो २८ साल की हो गई है, और जीवन के कई पड़ाव देख चुकी है, अपने और अपने परिवार के बारे में बताते बताते उसकी आखें भीगने लगीं, और मेरा मन भी उदास होने लगा, पर वो फिर भी मुझ से बात करना चाहती थी, और बताना चाहती थी के कैसे गुज़रे थे वो दिन और क्या-क्या देखा था उसके परिवार वालों ने, कैसे वक्त पड़ने पर सरकार नहीं बल्कि उसके अपने पडौसी काम आए, और किन लोगों ने उसकी मदद करी. अपने सभी पडौसियों के नाम बताते बताते और उनको दुआएं देते वो थकती ना थी, उसने बताया कि किस तरह उनके पीछे वाले मकान वालों ने उसे और उसके परिवार को अपने घर में पनाह दी और उन को बाहर नहीं निकलने दिया और , कट्टर लोगों से उनको बचाए रखा. वो बताती है कि हम धर्म-मज़हब कुछ नहीं जानते और सब एक होकर ही रहते हैं आगे बताती है के अब हमारे परिवार ऐसे हो गए हैं, जैसे हम उनके घर का हिस्सा हैं, और वो हमारे. हमें उनके रहते कुछ नहीं हो सकता. पर फिर भी यादें तो यादें होती हैं, जिन को बदल पाना बहुत ही मुश्किल होता है, और वो भी अपनी उसी याददाश्त से लड़ने की कोशिश में लगी हुई है.

ये वाकया दरअसल भोपाल के हमीदिया अस्पताल का है, जहाँ मैं अपने एक मेडिकल कालेज के छात्र मित्र के साथ बैठ कर चाय की चुस्कियां ले रहा था, पर भोपाल की उस लड़की के आ जाने से और बात होने से ऐसा लगने लगा जैसे मानो सच में कुछ होने वाला है. आनन् फानन में मैंने भी अपने सभी स्टाफ को सूचित कर दिया के भाई देख लेना और अगर कल(२४ सितम्बर) को सब ठीक हो तो ही आना, नहीं तो छुट्टी ही कर लेना.

खैर शाम आते आते पता चला की फैसला २९ तक टल गया है, मैंने तुरंत अपने डाक्टर मित्र को फोन लगाया और उसे ये खबर सुनाई, मेरी उसको खबर सुनते ही वो समझ गया की मैं चाहता हूँ वो अपनी उस पेशंट को फोन लगाये और उसे भी इस खबर की सूचना दे दे .

सच कितना अच्छा होता है पड़ोसियों का साथ, और कितनी दुआएं मिलती हैं मदद करने से, अब समय बदल गया है, और मुझे उम्मीद है की हम सभी अछे पडौसी हैं , और अपने पडौसियों की रक्षा करना जानते हैं.

इन दंगों से और ऐसी खबरों से हमारी एकता और अखंडता को कुछ नहीं होने वाला .


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हाथ जोड़कर एक अपील

हाथ जोड़कर एक अपील





24 तारीख़ को बाबरी मस्ज़िद विवाद का हाईकोर्ट से फैसला आना है।

तय है कि यह एक समुदाय के पक्ष में होगा तो दूसरे के ख़िलाफ़। ऐसे में पूरी संभावना है कि लोकतंत्र में विश्वास न रखने वाली ताक़तें 'धर्म के ख़तरे में होने' का नारा लगा कर जनसमुदाय को भड़काने तथा हमारा सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास करेंगी। फ़ैसला आने से पहले ही इसके आसार नज़र आने लगे हैं।

दो दिन बाद … यानि 27 सितम्बर को भगत सिंह का जन्मदिन है। आप जानते हैं कि पंजाब में उस वक़्त फैले दंगों के बीच भगत सिंह ने 'सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़' लेख में सांप्रदायिक ताक़तों को ललकारते हुए कहा था कि दंगो की आड़ में नेता अपना खेल खेलते हैं और असली मर्ज़ यानि कि विषमता पर कोई बात नहीं होती।

इन दंगो ने हमसे पहले भी अनगिनत अपने और हमारा आपसी प्रेम छीना है। आईये आज मिलकर ठंढे दिमाग़ से यह प्रण करें कि अगर ऐसा महौल बनाने की कोशिश होती है तो हम इसकी मुखालफ़त करेंगे…और कुछ नहीं तो हम इसमें शामिल नहीं होंगे।

ग्वालियर में हमने इस आशय के एस एम एस व्यापक पैमाने पर किये हैं। आप सबसे भी हमारी अपील इसी संदेश को जन-जन तक पहुंचाने की है।

आईये भगत सिंह को याद करें और सांप्रदायिक ताक़तों को बर्बाद करें। यह एक ख़ुशहाल देश बनाने में हमारा
सबसे बड़ा योगदान होगा।
हमने इस साल भगत सिंह के जन्मदिन को 'क़ौमी एकता दिवस' के रूप में मनाने का भी फैसला किया है।

नई दखल दे साभार -
http://naidakhal.blogspot.com/2010/09/blog-post_21.html
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